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Magazine - Year 1984 - Version 2

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Language: HINDI
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अतीन्द्रिय क्षमता बनाम प्रचण्ड आत्मशक्ति

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परा मनोविज्ञान शाखा के अंतर्गत अतीन्द्रिय क्षमताओं के कई अचरज भरे प्रदर्शन देखने को मिलते हैं। दूरदर्शन, दूरश्रवण, स्वप्नसन्देश, प्रेतसंपर्क, भविष्य कथन, पुनर्जन्म विषयक ऐसी अनहोनी अनेकों घटनाएँ हैं, जो सामान्यतया देखने को मिलती हैं।, इन्हीं की खोजबीन होती रहती है और यह पता लगाने का प्रयत्न किया जाता रहता है कि मस्तिष्क में क्या और क्यों ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न होती हैं जो सामान्यजनों में देखने को नहीं मिलती। इन दिनों भौतिकवाद की दृष्टि में इतना ही छोटा अध्यात्मवाद है। इन सब में जो अतीन्द्रिय क्षमता के नाम से देखा जाता है उसमें एक तथ्य समान रूप से काम करता है कि किसी व्यक्ति विशेष में यह क्षमताएँ उत्पन्न हुई देखती जाती हैं, उसे निजी रूप से चमत्कारी अनुभव होते हैं। वह उनका विवरण दूसरों को सुनाता है। जाँच करने पर वह कथन सही पाया जाता है। आश्चर्य प्रकट किया जाता है और कारण की खोज पर माथा-पच्ची होती रहती है। अब तक यही होता रहा है।

इस विधा से एक चरण और बढ़ना चाहिए था तभी बात दूसरों तक पहुँचती। जो अनुभव स्वयं होते हैं, वे दूसरों को भी कराये जाते। अपने अन्दर जो विशेषता प्रकट हुई है, वह दूसरों में भी प्रकट कराई जाती। विवरण को सुनने वालों से जो बात सम्बन्धित है उसका वे लाभ उठा लेते। पर इससे आगे बढ़कर वे अपना कार्यक्षेत्र नहीं बढ़ा सकते। उस शक्ति से अन्यान्यों को सम्पन्न नहीं कर सकते। जो अनुभव अपने को होते हैं उससे घनिष्ठ लोगों का ही सम्बन्ध होता है। ऐसा नहीं होता कि जो उस मण्डली में नहीं हैं वे भी उस विशेष वेत्ता की सहायता से वैसी ही जानकारियाँ प्राप्त कर सकें अथवा लाभ उठा सकें।

आँख में पट्टी बाँध कर मोटर साइकिल चलाने में मात्र इतना ही आश्चर्य है कि जो कार्य खुली आँखों से किया जा सकता है, उसे दूसरा आदमी आँखें बन्द करके कर सकता है। अच्छा होता ऐसे व्यक्ति किन्हीं अन्धों की दृष्टि खोल देते और वे सामान्य लोगों की तरह देखना आरम्भ कर देते। तब तो यह भी कहा जा सकता था कि इस जादुई शक्ति का कोई वास्तविक लाभ भी है। जादूगर अपनी हाथाफेरी से कई तरह के तमाशे दिखाते रहते हैं। वर्तमान विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमता को लगभग उसी स्तर की कहा जा सकता है और इस प्रकार के व्यक्ति को एक खास किस्म का जादूगर समझा जा सकता है। मृतकों का आह्वान करने वाले अपने मित्र सम्बन्धियों को ही बुलाते और घर गृहस्थी की ही बातें पूछते देखें गये हैं। अभी तक किसी ने यह हिम्मत नहीं की कि राष्ट्रीय गुत्थियों को सुलझाने के लिए सरदार पटेल, पं. नेहरू, महात्मा गाँधी जैसे सुलझी हुई आत्माओं का परामर्श प्राप्त करें और सिद्ध करें कि यह परामर्श सचमुच उतने सुलझे हुए स्तर के लोगों का ही हो सकता है।

तांत्रिक हवा में हाथ मारकर लौंग, इलायची के कुछ दाने मँगा सकते हैं। ऐसा नहीं कर सकते कि एक बोरी लौंग नित्य मँगा दिया करें अथवा हीरा-पन्ना आदि बहुमूल्य रत्न नित्य मँगाकर किसी महत्वपूर्ण कार्य की पूर्ति हेतु आर्थिक कठिनाई का चिरस्थायी समाधान कर दें। शाप वरदान भी उनके छोटे स्तर के ही होते हैं। भविष्य कथन भी अनिश्चित। किसी विषय में यहाँ तक कि तेजी मन्दी तक के सम्बन्ध में भी छाती ठोंक कर कुछ नहीं कह सकते। लाटरी के नम्बर या सट्टे के उतार-चढ़ाव तो क्या बताएंगे। शाप-वरदान भी वे मुहल्ले, पड़ौस वालों को ही दे पाते हैं। राष्ट्रों की बदलती राजनीति को मनचाही दिशा में मोड़ देने की सामर्थ्य किसी अतीन्द्रिय क्षमता का दावा करने वाले में नहीं देखी गई।

इन सब बातों को दृष्टि में रखते हुए परामनोविज्ञान शाखा के अंतर्गत जिस अतीन्द्रिय क्षमता के प्रामाणिक सबूत भी पाए गए हैं उनमें इतना ही निष्कर्ष निकलता है कि वह जादूगर स्तर का कोई खेल तमाशा भर है। इसके सहारे किन्हीं बड़ी सार्वजनिक समस्याओं का हल निकालने की आशा नहीं की जा सकती। ऐसी दशा में उसे अध्यात्मिक शक्ति भी नहीं कहा जा सकता। बहुत हुआ तो मानसिक विकास का एक चरण भर कह सकते हैं। हिप्नोटिज्म सम्मोहन का खेल मात्र उनसे हो सकता है। वे लोगों को अचम्भे में डाल सकते हैं। उनकी गतिविधियाँ कुछ ही व्यक्तियों तक सम्बन्ध साधने या प्रभावित करने की हो सकती हैं। ऐसी दशा में किसी महत्वपूर्ण भूमिका की भी उनसे आशा नहीं की जा सकती।

यह चर्चा गुरुदेव के सूक्ष्मीकरण प्रयास के संदर्भ में कही जा रही है। इसे पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहने वाले जादुई घटनाक्रमों से सर्वथा भिन्न समझा जाना चाहिए। उसका प्रभाव मित्र-पड़ौसियों को कोई छोटी हानि लाभ पहुँचाने जैसा होगा, यह भी नहीं सोचना चाहिए। ऐसा तो उनके जीवन में सदा ही होता रहा है। लोगों ने ध्यान दिया नहीं, वरन् हर दिन उनके क्रियाकलापों में विलक्षणता देखी जा सकती थी। उन्हें कुछ बड़ा काम करना है व्यापक काम करना है, इसलिए अतीन्द्रिय क्षमताओं में उनके सभी संकल्प, प्रयास एवं कार्यक्रमों को नहीं ही गिनना चाहिए। वे बड़े कदम उठाने जा रहे हैं उसी की तैयारी में उनकी मौन एकान्त साधना इन दिनों चल रही है।

युग परिवर्तन से सम्बन्धित कदमों में वातावरण को बदलना प्रमुख है। वातावरण को बदलने के लिए व्यक्तियों का स्तर बदला जाना है। इसके साथ-साथ सार्वजनिक गतिविधियों में उथल-पुथल होना आवश्यक है। यही तीनों ही काम ऐसे हैं। जिसके लिए विशिष्ट कार्य पद्धति अपनानी होगी और उसके लिए विशेष क्षमता चाहिए। बुद्धकाल में जन-साधारण की मनोवृत्ति धर्म के नाम पर कुकर्मों में निरत और प्रसन्न रहने की थी। उस वातावरण को बुद्ध द्वारा बदला गया। कुछ ही दशाब्दियों में न केवल भारत का वरन् समूचे एशिया का कायाकल्प हो गया। इतने बड़े परिवर्तन की सहज आशा न थी। गाँधी काल अद्भुत था। दो हजार वर्षों की पराधीनता भोगते-भोगते मनुष्य का रोम-रोम गुलाम हो गया था। अंग्रेजों के सात समुंदर तक फैले हुए शासन का आतंक ऐसा था जिसमें किसी के हाथ-पाँव चलना तो दूर मुँह तक नहीं खुलता था। पर वातावरण ऐसा बदला कि गाँधी की आँधी पत्तों और धूलि कणों को उड़ाकर आसमान तक ले गई और परिस्थितियाँ इतनी बदलीं कि अँग्रेजों को पैर जमाए रहना मुश्किल हो गया। उनने सलाह मशविरा करके सत्ता हस्तांतरित कर दी।

रावण का आतंक पूरी तरह छाया हुआ था। सीता को वापस लाने के युद्ध में एक भी राजा सहयोगी न बना। सबको अपनी-अपनी जान प्यारी थी। उस जमाने में रामराज्य की स्थापना का माहौल बना। न केवल सोने की लंका वाला दसशीश बीस भुजा वाला रावण मरा, उसके एक लाख पूत सवा लाख नाती वाला कुटुम्ब भी सफाचट हो गया। उन दिनों कोई आशा नहीं करता था कि 14 वर्ष के वनवास काल में इतनी बड़ी उथल-पुथल सम्भव हो जायेगी।

यह वातावरण की बात हुई। व्यक्तियों के पुरुषार्थ का प्रसंग भी देखने ही योग्य है। तान्त्रिक अनाचार के विरुद्ध जहाँ किसी की भी जीभ नहीं खुलती थी वहाँ देखते-देखते लाखों चीवर धारी भिक्षु-भिक्षुणी मैदान में कूद पड़े और भारत एशिया समेत विश्व में धर्म चक्र प्रवर्तन की असम्भव प्रक्रिया को सम्भव कर दिखाने लगे। यह आँधी-तूफान का काम था। उपदेश सुनाने भर से इतने लोग किस प्रकार इतने बदल जाते और जो कार्य जीवन भर में कभी सुना सीखा तक नहीं था उसे कैसे कर दिखाते। सत्याग्रहियों की सेना में लाखों निहत्थे लोग जेल जाने, घर बरबाद करने, गोली खाने, फाँसी पर चढ़ने के लिए तैयार हो गए। इन्हीं कहीं फौजी ट्रेनिंग नहीं मिली थी। जिन्हें वर्षों खर्चीली ट्रेनिंग मिलती है उनमें से भी बहुत से पीठ दिखाकर भागते देखे गए हैं, पर गाँधी के सत्याग्रही रातों रात न जाने कहाँ से ढलकर आ गए और ऐसा कमाल दिखाते रहे जिससे सारी दुनिया दाँतों तले उँगली दबाए रह गई। यह व्यक्ति निर्माण है। गोवर्धन पहाड़ का वजन उठाने वाले इतने वजन के नीचे पिचक कर मर सकते थे, पर हिम्मत का कमाल देखा जाये कि गोवर्धन उठाना था तो उठा करके ही दम लिया। लंका युद्ध तो छिड़ गया पर सैनिक कहाँ से आएँ। दैत्य कुंभकरण जैसों के मुँह में चारा बनने की हिम्मत किस समझदार में उत्पन्न हो। रीछ, वानर रातों रात दौड़ते चले आये और निहत्थी स्थिति में अस्त्र-शस्त्रों वाले असुरों से भिड़ पड़े। रीछों में इंजीनियरों की शानदार भूमिका निभाकर रख दी। इसे कहते हैं दैवी चमत्कार।

इस प्रक्रिया में पराक्रम और साधनों का अगला चरण है। अंगुलिमाल जैसे दुर्दान्त दस्यु ने उस दिन युद्ध का सिर उतार लेने की योजना बनाई थी। निहत्थे साधु के सामने पहुँचा तो शक्ति हीन हो गया। थर-थराकर काँपने लगा और शत्रुता छोड़कर मित्रता के बन्धन में बँध गया। साधनों की बारी आई तो बिना झोली पसारे ही काम चल गया। आम्बपाली का तीस लाख का खजाना एक ही दिन में मिला और ढेरों संघाराम वाला विहार बनकर तैयार हो गया। काम बढ़ा सो बड़े साधनों की आवश्यकता पड़ी। नालन्दा विश्वविद्यालय के संचालन का काम अशोक ने और तक्षशिला का उत्तरदायित्व हर्षवर्धन ने अपने कन्धे पर उठा लिया। चीन के समूचे क्षेत्र में अवरोधों का ढाँचा सहयोगियों में बदल गया। गाँधी का युद्ध, राणा प्रताप के युद्ध से बड़ा था। तब एक भामाशाह निकलकर आए थे। अब जमुनालाल बजाजों की भीड़ लग गई। पराक्रमियों में क्रान्तिकारियों की गदर पार्टियाँ देश विदेश में तहलका मचाने लगीं। सुभाषचन्द्र बोस, भगतसिंह और चन्द्रशेखरों की कमी न रही। धन के बिना साधनों के बिना भी वह काम रुका कहाँ? विनोबा जैसे अकिंचन पचास लाख एकड़ जमीन माँग लाए। गाँधी स्मारक निधि पर एक करोड़ और कस्तूरबा निधि पर साठ लाख रुपया बरस पड़ा। खादी उद्योग, सर्वोदय जैसी गाँधी द्वारा आरम्भ की गई अतिरिक्त प्रवृत्तियों में अरबों रुपया लग गया। यदि समूचे स्वतंत्रता संग्राम का कोई अनुमान लगाए तो प्रतीत होगा कि उसमें न साधन कम लगे, न पराक्रम में न्यूनता पड़ी। राम इधर से नंगे पैरों वनवास गये थे, उधर से पुष्पक विमान में बैठकर आए। कृष्ण वन में गौयें चराते थे, पर पीछे उनके साथी द्वारिकापुरी वासी और वे स्वयं द्वारिकाधीश कहलाए। पराक्रम तो उन्हें भी बचपन से ही करना पड़ा।

यह इतिहास की कुछेक प्रतिभाओं की चर्चा है। जिनने वातावरण बदला-सुयोग्य सहकर्मियों की मण्डली जुटाई और पराक्रम तथा साधनों की आवश्यकता पड़ी तो दौड़ती चली आई। जमाने की प्रतिकूलता एक ओर और एक व्यक्ति का पौरुष एक ओर। घनघोर अन्धेरे में प्रकाश उत्पन्न करने वालों को अध्यात्मवादी कहा जा सकता है। जिनने अपनी अथवा दूसरों की आत्मशक्ति के सहारे समूचे समय को बदल डालने वाले चमत्कार दिखाये, उनके सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उनमें आत्मशक्ति की और उसके सहारे उन्होंने ऐसे काम कर दिखाये जो आत्म-शक्ति की गरिमा को बताते और बढ़ाते हैं।

प्रश्न प्रचलित अतीन्द्रिय क्षमताओं का है जो इन दिनों परामनोविज्ञान के नाम पर तथाकथित अतीन्द्रिय क्षमताओं के नाम पर शोध का विषय बनी हुई हैं। ऐसे कितने ही व्यक्तियों की- उनके चमत्कारों की चर्चा होती रहती है और समझा जाता है कि आत्मशक्ति नाम की यदि कोई वस्तु होती है तो उसकी इतनी ही छोटी सीमा है। यहाँ इन पंक्तियों में यह बताया जा रहा है कि आत्मबल इससे सर्वथा भिन्न है। उसमें कौतुक कौतूहल नहीं है। वरन् वैयक्तिक न होकर सार्वजनिक उपयोग का अति महत्वपूर्ण भण्डार है। उसका उत्पादन आड़े समय में होता है। महामानव उसे उत्पन्न करते हैं और उसका सुनियोजन वातावरण को बदलने में- सहयोगी- महामानवों की सेना जुटाने में होता है। पराक्रम पौरुष की आवश्यकता उसी के बलबूते पूरी की जाती है और साधनों को इस प्रकार जुटाया जाता है जैसे सूखे आसमान में से घटाटोप वर्षा होती है और हरीतिमा का दृश्य देखकर आँखें अचंभे से चकित रह जाती है।

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