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Magazine - Year 1984 - Version 2

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भौतिक और आध्यात्मिक जीवन की तुलना

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जीवन की समग्र समस्याओं का स्वरूप और समाधान समझने के लिए हमें उसके दोनों पक्षों को समझना होगा। एक वह, जो शरीर से सम्बन्धित है दूसरा वह जो अन्तरात्मा पर निर्भर है।

शरीर की समस्याओं- आवश्यकताओं का सीधा सम्बन्ध सुविधा साधनों से है। भोजन, वस्त्र और निवास की सुविधाएँ तथा इन्द्रियों के अपने-अपने सुविधा साधन यह सब शरीर से सम्बन्धित हैं। यह वस्तुएँ उचित समय पर उचित मात्रा में जब मिलती रहती हैं तो शरीर की तुष्टि होती रहती है। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। उसके विषय हैं- लोभ, मोह और अहंकार। इन तीनों को जितनी मात्रा में तुष्टि होती है, उतना ही मन प्रसन्न रहता है। शरीर और मन इन दोनों का युग्म सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य सामान्यतया प्रयत्न करते रहते हैं। शारीरिक जीवनचर्या का सारा प्रयास प्रायः इन्हीं कृत्यों में लगा रहता है। मन अपने तीन विषयों का समाधान ढूँढ़ता रहता है और शरीर को अन्न, वस्त्र और निवास के अतिरिक्त अपने तीन विषयों में जोते रहता है। कहा जा चुका है कि मन की तुष्टि लोभ, मोह और अहंकार की तृप्ति पर निर्भर है। यही उसके तीन विषय हैं। शरीर तुष्टि में इन्द्रिय तुष्टि भी एक विषय है। आँख, कान, जीभ और जननेन्द्रिय इनके अपने-अपने विषय हैं। इनकी ललक लिप्सा ऐसी है जो भोगों की थकाने वाली मात्रा मिल जाने पर भी तुष्ट नहीं होती। ललक लिप्सा का कोई अन्त नहीं।

यह शरीर की आवश्यकता और मन की लिप्सा की परिधि हुई। साधारणतया इन सबकी आवश्यकताएँ बहुत थोड़े साधनों से पूर्ण हो जाती हैं। चार रोटी में पेट भर जाता है। छह गज कपड़े में आच्छादन हो जाता है। तीन गज लम्बी और एक गज चौड़ी जमीन या चारपाई पर सोने की आवश्यकता पूरी हो जाती है। इससे अधिक दिया जाय तो उसका उपयोग सम्भव नहीं। दस रोटी थाली में परोसी जाय तो पेट में उसके लिए जगह ही नहीं। दूने चौगुने आकार की चारपाई सोने के लिए दी जाय तो वह खाली पड़ी रहेगी। इतना ही नहीं उठाने रखने में अनावश्यक जगह घेरेगी और कठिनाई उत्पन्न करेगी। उसे रखा कहाँ जाएगा? उपयोग कौन करेगा? शरीर की तनिक-सी आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के लिए दो चार घण्टे का परिश्रम पर्याप्त होना चाहिए।

यह बात इन्द्रियों के सम्बन्ध में है। कितने ही सुन्दर दृश्य क्यों न हों, उन्हें थोड़ी देर तक देखने में आँखें थक जाती हैं। कानों को कितना ही मधुर स्वर सुनने को मिले वे भी ऊबने लगते हैं। जीभ स्वाद चखने में कुछ मिनट ही लगाती है। जननेंद्रियों का स्वाद भी कुछ मिनटों का ही है। इसके बाद उससे भी विरति हो जाती है। इंद्रियजन्य लिप्साओं की भी सीमा है। इस सीमा से आगे बढ़ने पर इन्द्रियाँ थक जाती हैं, ऊबने लगती हैं।

केवल मन ही ऐसा है जिसकी आशा, आकाँक्षा तो लगी रहती है पर जितना चाहा गया था, वह सीमित होता है उसके तृप्त होते ही नई आकाँक्षा संजोनी पड़ती है। कल्पना कीजिए कि हजार रुपये की ललक है। जब तक वह पूर्ण नहीं हुई है, तब तक मन उसके लिए ललचाता रहता है। जिस क्षण हजार रुपये हाथ में आते हैं वे कम प्रतीत होने लगते हैं। जब तक वे नहीं मिले थे तभी तक उनमें आतुरता थी। मिलते ही वे बेकार प्रतीत होते हैं, दस हजार पाने की नई ललक उठ बैठती है। पुरानी हजार की आकाँक्षा बेकार ही नहीं लगती, भारभूत भी प्रतीत होती है। इन्हें कहाँ रखा जाय? किस काम में लगाया जाय? रखवाली का क्या प्रबन्ध हो? आदि चिन्ताएँ उठ बैठती हैं। इस प्रकार लाभ का अभाव ही आकर्षक है। उसकी उपलब्धि बेकार हो जाती है। मात्रा बढ़ती जाने में रस आता है। वह मात्रा मिल जाय तो वह भी निरर्थक प्रतीत होती है।

मोह के सम्बन्ध में भी यही बात है। सन्तान नहीं हुई थी, तब तक उसकी आतुरता थी पर हो जाने के उपरान्त उसके लालन-पालन, शिक्षा, चिकित्सा एवं दुर्गुणी निकलने पर खीज उठती है सो अलग। मोह का अभाव ही आकर्षक है। पूर्ति होने पर वह भी भारभूत हो जाता है। बहुत बच्चे हो जायें, बहुत मोह की पूर्ति होने लगे तो उतना ही जंजाल सिर पर बँधा प्रतीत होता है।

अहंकार के सम्बन्ध में भी यही बात है। ऊँचा पद मिल जाने पर उससे बड़ा चाहिए। ढेरों ईर्ष्यालु हो जाते हैं। कई चुनौती देते हैं। उनका सामना करना पड़ता है। पदवी, सफलता मिलने पर भी सन्तोष कहाँ होता है? इससे अधिक चाहिए। गिराने वाले, कुढ़ाने वाले ढेरों होते हैं वह अहंकार जान का बवाल बन जाता है।

शरीर की आवश्यकता इतनी स्वल्प है कि दो चार घण्टे के परिश्रम में कोई भी उनकी पूर्ति कर सकता है। इन्द्रिय लिप्सा की पूर्ति कुछ क्षणों तक सीमित है। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति कभी भी हो नहीं सकती। जब तक इच्छित वस्तु मिली नहीं है तभी तक उसकी ललक है। मिलते ही पुरानी बेकार हो जाती है। रखवाली की चिन्ता लदती और नई लिप्सा पैदा करती है। इस प्रकार इन तीनों को भी मन मोदक ही कहना चाहिए। दिवास्वप्न की तरह वे हैरान बहुत करते हैं। झलक झाँकी दिखाकर गायब हो जाते हैं।

यही है शरीर पक्ष की आवश्यकताओं, इच्छाओं और लिप्साओं का स्वरूप, जो हैरान तो बहुत करता है- पर तृप्ति का नाम भी नहीं लेता। जीवन इसी जाल-जंजाल में व्यतीत होता है। मृग तृष्णा में भटकते-भटकते सारा समय निकल जाता है, सारा श्रम चुक जाता है। फिर भी असन्तोष ही बना रहता है। जो मिलता है, जितना मिलता है उससे असन्तोष की आग ही भड़कती है। आग में जितना ईंधन डाला जाता है, उतनी ही वह तीव्र होती है, बुझने का नाम नहीं लेती।

सर्व साधारण की जीवनचर्या यही है। कार्य पद्धति एवं आकाँक्षा की रूप रेखा यही है। इसकी पूर्ति के प्रयास करते-करते सारा जीवन निकल जाता है। हाथ कुछ आता नहीं। सन्तोष कोसों दूर बना रहता है। यह हुआ शरीर परायण जीवन।

जीवन का दूसरा पक्ष है- अन्तरात्मा। इसे अपनाने में शान्ति ही शान्ति है, सन्तोष ही सन्तोष है, आनन्द ही आनन्द है, लाभ ही लाभ है। शरीरगत आवश्यकताएँ सीमित रखने पर ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का आदर्श सधता है। भोजन पेट से कम रखा जाय तो आरोग्य और दीर्घजीवन का लाभ हाथों-हाथ मिलता है। वस्त्र सादा और कम पहनने पर सज्जनता का उपहार मिलता है। तड़क-भड़क के- खर्चीले-फैशन वाले वस्त्र पहनने पर विज्ञजनों की आँखों में अपना मूल्य गिरता है। ओछा, बचकाना, फिजूल खर्च कहलाने के अतिरिक्त यह भी भी कहा जाता है कि फालतू पैसा खर्च करने पर यह चोरी करता होगा। ऋण लेता होगा। पैसे की तंगी सहता होगा। इन्द्रियों का स्वाद जिसे जितना प्रिय है उसका स्वास्थ्य उतना ही गया गुजरा होगा। जीभ का चटोरा व्यक्ति अपना पेट खराब कर लेता है और बीमारियों का शिकार होता है। आँख और कान के रसिया इन दोनों इन्द्रियों का अपव्यय करके उनकी शक्ति को अल्पकाल में ही चुका लेते हैं। कामुक प्रकृति वाले ब्रह्मचर्य से क्षीण होकर खोखले हो जाते हैं। किन्तु जिनका इन सब इन्द्रियों पर नियन्त्रण है वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अक्षुण्ण बनाये रहते हैं। उन्हें चरित्रवान कहा जाता है और सम्मान मिलता है। आत्मिक पक्ष अपनाने वाले को संयमी और सन्तोषी बनना पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों को कभी आर्थिक तंगी नहीं भुगतनी पड़ती, ऋणी नहीं बनना पड़ता और चोरी-बेईमानी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह एक प्रत्यक्ष लाभ है जो अध्यात्म पक्ष अपनाने पर हाथोंहाथ मिलता है।

सन्तोषी यह सोचता है कि हमसे कम में जब लाखों व्यक्ति गुजारा करते हैं, तो हमें ही लालच बढ़ाने की क्या आवश्यकता है। ईमानदारी से जितना कमाया जा सके उसी से व्यवस्थापूर्वक खर्च चलाया जा सके तो श्रीमन्त बनने की मृग तृष्णा क्यों अपनानी पड़े और उसके लिए कुमार्ग क्यों अपनाना पड़े। स्मरण रहे ईमानदारी से सीमित पैसा ही मिल सकता है। दीवार खड़ी करने के लिए कहीं गड्ढा खोदना पड़ेगा। अमीर बनने के लिए बहुतों को गरीब बनाना पड़ेगा।

मोह रखना हो तो सारे संसार को ही अपना क्यों न माना जाय? वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श क्यों न अपनाया जाय? जब सभी अपने हैं तो सभी के साथ प्रेम का सेवा-सहानुभूति का व्यवहार क्यों न किया जाय। कुटुम्ब के दो चार व्यक्तियों के लिए ही क्यों मरते-खपते रहा जाय। स्मरण रहे जिनके साथ अनावश्यक दुलार किया जाता है, उनकी आदतें बिगड़ती हैं और वे अपने लिए तथा मोह कर्त्ता के लिए अन्ततः दुःखदायी बनते हैं।

अहंकारी की तुलना में नम्र, विनयशील, सज्जन का मूल्य और महत्व कहीं अधिक होता है। विनयशील को कोई चुनौती नहीं देता जबकि अहंकारी से लड़ने मरने को ईर्ष्या रखने वाले अनेकों सामने आते रहते हैं। अहंकार दिखाकर अपना बड़प्पन सिद्ध करने वाले की अपेक्षा विनयशील सज्जन का कहीं अधिक सम्मान होता है। उसका मूल्य कहीं अधिक समझा जाता है।

आत्म पथ अपनाने वाले का सादगी से भरा हुआ जीवन बहुत ही सस्ता और सादा होता है। उसके पास पैसा, समय श्रम, सभी अपव्यय से बच जाते हैं और वह उसे सेवा, पुण्य-परमार्थ में लगा सकता है। महामानवों को यही रीति-नीति अपनानी पड़ती है कि अपना काम न्यूनतम में चलाते हैं। फलतः उनके पास साधनों की बचत होती रहती है। इन बचत वाले साधनों को ही वे परमार्थ में लगाते रहते हैं। फलतः लोकमंगल के लिए उनसे निरन्तर काम बन पड़ता है। सेवा धर्म के लिए किये गये उनके थोड़े-थोड़े काम मिलकर इतने अधिक हो जाते हैं कि उन्हें लोकसेवी, परमार्थी, पुण्यात्मा कहा जा सके। आत्म पक्ष का अपनाया गया जीवन सदा प्रसन्न पाया जाता है। सत्कर्मों की मात्रा उन्हें यश और सन्तोष प्रदान करती रहती हैं। गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता की मात्रा बढ़ी चढ़ी रहने के कारण सभी उनके मित्र, प्रशंसक एवं सहायक होते हैं। यह कमाई ऐसी है, जिस पर स्वार्थी, लालची लोगों द्वारा कमाया गया वैभव निछावर किया जा सकता है।

आत्म पथ अपनाने वाले को आत्मा और परमात्मा का आशीर्वाद निरन्तर मिलता रहता है। यह कमाई ऐसी है जिसे प्राप्त करने के उपरान्त और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।

शरीर पथ को प्रधानता देने वाले और उसी के लिए मरते-खपते रहने वाले लोक और परलोक बिगाड़ लेते हैं। जिस शरीर के लिए सब कुछ निछावर किया गया था वह भी सुखी नहीं रहता। बीमार, बदनाम और गुत्थियों में उलझा हुआ रहता है। उनकी तुलना में बुद्धिमान हैं जिनने आत्मपथ अपनाया। शालीनता और सज्जनता का जीवन जीने वाले जिस सन्तोष को अपनाते हैं उसके बदले में उन्हें निरन्तर प्रसन्नता मिलती है। प्रेम, सहानुभूति और सद्भावना जो-जो लोग प्राप्त कर सकें समझना चाहिए कि उनने अपना जीवन धन्य बना लिया। ऐसे लोग अपने संपर्क में आने वालों को भी धन्य बनाते हैं। इसी उपलब्धि को सच्चे अर्थों में बुद्धिमत्ता कहा जा सकता है।

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