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Magazine - Year 1984 - Version 2

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दुराचरण से जन्मी महामारी महाविनाश लाएगी?

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इकालॉजी का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जैसी क्रिया होती है, वैसा ही उकसा प्रतिफल भी होता है। प्रकृति के सामान्य क्रम में तनिक भी व्यतिरेक आने पर उसकी विक्षुब्ध प्रतिक्रिया तुरन्त देखने को मिलती है। मानवी काया भी इन नियमों से बँधी हुई है। आहार-विहार के क्रम में जहाँ त्रुटि होती है, तुरन्त उसकी प्रतिक्रिया रुग्ण काया के रूप में सामने आती है। असंयम से अनेकों रोग जन्म लेते हैं एवं अचिन्त्य चिन्तन से तनाव, मनः दौर्बल्य, अवसाद, आवेश जैसे मनोविकारों की उत्पत्ति होती है। जब भी सामान्य क्रिया-कलापों में अति का समावेश हो जाता है, उसका फल काया एवं मन एक साथ भुगतते हैं।

प्रस्तुत विवेचन आज की सन्धि बेला में और भी महत्त्व रखता है, क्योंकि मानव जाति इन दिनों विभीषिकाओं की गहन तमिस्रा से घिरी हुई है। दैवी आपदाएँ, महामारियाँ एवं अभाव की परिस्थितियों ने दुष्कर्मों में निरत मानव समुदाय पर गत तीन-चार वर्षों में जिस प्रकार हंटर बरसाए हैं, उससे प्रतीत होता है कि प्रकृति की व्यवस्था क्रम में बिगाड़ नियन्ता को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं है। इन सबके बावजूद अदूरदर्शिता का चोला ओढ़े मानव समुदाय परिस्थितियों से अनभिज्ञ बना हुआ है। संयम अब मात्र कहने-पढ़ने भर का प्रसंग बन गया है। व्यवहार में उसका प्रतिपालन अनिवार्य नहीं माना जा रहा। यौन उच्छृंखलता अपनी चरम सीमा पर है। इस जबरन छीनी गयी स्वतंत्रता ने इतना विकृत रूप ले लिया है कि स्वयं विधाता भी इसे देखकर शर्म से अपना मुँह छिपा लें। प्रारम्भ में पाश्चात्य जगत तक सीमित यौन स्वातंत्र्य अब छूत की तरह सारे विश्व में फैल गया है। इसकी प्रतिक्रिया जो सामने आयी है, वह रोंगटे खड़े कर देने वाली है।

आज से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व जन्में भविष्य वक्ता नोस्ट्राडेमस ने अपनी पुस्तक में एक अजीबोगरीब पूर्वानुमान लिपिबद्ध कर दिया था, जिसे इस सदी में अनूदित किए जाने पर मनीषी वर्ग हतप्रभ होकर रह गया। ज्ञातव्य है कि इस भविष्य वक्ता के कोई भी कथन कभी झूठे नहीं निकले। समय की कसौटी पर उनकी सभी भविष्यवाणियाँ सही उतरीं। इस विचित्र भविष्यवाणी में यह कहा गया था कि बीसवीं सदी के अन्तिम दो दशकों में मनुष्य के दुराचरण के कारण एक ऐसी महामारी जन्म लेगी जो असमय काल के ग्रास में अनेकों व्यक्तियों को खींच ले जाएगी। इस व्याधि से लोगों की प्रतिरोधी सामर्थ्य नष्ट हो जाएगी व क्षीण शक्ति वाले ये मनुष्य अल्पावधि में ही वेदना सहते हुए मृत्यु के मुख में चले जाएँगे। उनका कथन था कि अमर्यादित काम सेवन एवं विकृत यौनाचार ही इसका मूल कारण होगा।

स्वास्थ्य विज्ञानियों का मत है कि गत तीन वर्ष में ऐसी व्याधि जन्म ले चुकी है एवं वह बड़ी तेजी से सारे विश्व में फैल रही है। मात्र 6 माह की अवधि में कष्ट भरा जीवन जीकर रोगी मृत्यु को प्राप्त होने लगे हैं। प्रारम्भ में तो यह बीमारी चिकित्सकों की समझ में भी नहीं आई, नामकरण क्या किया जाता? अन्ततः निदान-परीक्षण के बाद प्रतिरोधी संस्थान पर इसका प्रभाव देखते हुए इसे नाम दिया गया- ए. आय. डी. एस. अर्थात् “एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएन्सी सिन्ड्रोम”। इसका शब्दार्थ हुआ ऐसी ग्रहण की गयी व्याधि जिसमें जीवनी शक्ति सहसा कम होती चली जाती है व रोगी इसके अभाव में संक्रमण का शिकार हो मौत की गोद में चले जाते हैं। जिस तेजी से भयावह रूप में यह रोग पहले विकसित देशों में व अब सारे विश्व में फैला है, उसने चिकित्सकों एवं साधारण जन समुदाय को चिन्तित, भयभीत कर दिया है। रोग का निदान होने पर भी चिकित्सा की व्यवस्था न होने अथवा उनके कारगर न होने की विवशता ने परिस्थितियों को और भी विषम बना दिया है। किसी समय प्लेग जैसी महामारी, ने जो भययुक्त परिस्थितियाँ खड़ी की थीं, लगभग वैसी ही आज हैं। आने वाले एक-दो वर्षों में इसके और भी विकराल रूप में प्रकट होने की सम्भावना है।

उन्मुक्त यौनाचार के समर्थक कामू के चिन्तन के पक्षधर पाश्चात्य जगत के बहुसंख्य व्यक्ति अब यह अनुभव करते हैं कि स्थिति उनके बस में नहीं रही। आधुनिक तकनीकी के क्षेत्र में प्रगति करने वाले इन राष्ट्रों की यह गति क्यों कर हुई, कैसे नासमझी इन पर हो गयी, इसका कारण ढूँढ़ना हो तो हमें इस शताब्दी के प्रारम्भ में प्रतिपादन करने वाले कुछ पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों एवं स्वास्थ्य विज्ञानियों के तर्कों पर दृष्टि डालनी होगी। पूर्वार्त्त मनोविज्ञान एवं दर्शन के सीमित-संयत यौन संपर्क से सर्वथा विपरीत उक्ति व्यक्त करने वाले इन मनीषियों ने काम प्रवृत्ति पर अंकुश को एक कृत्रिम बलपूर्वक किया गया निरोध बताया व कहा कि सारी कुण्ठाओं, तनाव तथा मनोविकारों से मुक्ति पाने के लिये उन्मुक्त यौनाचार की छूट मिलना चाहिए। अन्धे को क्या चाहिए, बस दो आँखें। काम प्रवृत्ति बड़ी बलवती होती है। क्षणिक आनन्द जब मनःरोगों से मुक्ति की गारण्टी देता हो तो फिर प्रतिबन्ध किस बात का? नियन्त्रण क्यों? यही कारण है कि न्यूड क्लबों, मसाज थैरेपिस्टों के रूप में यौन पिपासा शान्त करने हेतु सर्वसाधारण को एक मान्यता प्राप्त मार्ग मिल गया।

अतिवाद हर दृष्टि से हानिकारक है। यौनाचार पर यह विशेष रूप से लागू होता है क्योंकि इससे जीवनी शक्ति का अपव्यय तो होता ही है, अनेक प्रकार के शारीरिक रोग एवं मनोविकार जन्म लेने लगते हैं। नयी उम्र के किशोरावस्था में पहुँचे बालक जब यौन स्वातंत्र्य अथवा परिपक्व होने के पूर्व विवाह के कारण जब इस स्थिति का सामना करते हैं तो जानकारी के अभाव में दुरुपयोग होने के कारण क्रमशः क्षीण होते चले जाते हैं व एक विकसित व्यक्तित्व बनने के पूर्व ही टूट जाते हैं।

काम-तृप्ति को परम लक्ष्य व सम्भोग से समाधि जैसे नारे लगाने वाले एक धर्म गुरु अपनी मैथुन-क्रान्ति के कारण हमारे अपने देश में बदनाम भले हुए हों, बाहर जहाँ यौनमुक्त वातावरण है, उन्हें खूब ख्याति मिली है। लेकिन अब अपनी ही उत्पन्न की गयी सृष्टि को उन्हें समझाना पड़ रहा है कि इस यौनाचार के दुष्परिणाम ए. आय. डी. एस. जैसे घातक रोगों के रूप में सामने आएँगे व समाधि तो नहीं, इस दुनिया से वेदना भरी मुक्ति चढ़ती आयु में ही दिला देंगे। पता नहीं, कितने समझदार व्यक्ति उनकी इस बात को अब उतनी ही अक्लमन्दी से अपनी गिरह में बाँधेंगे, जितनी कि उन्होंने यौन मुक्त जीवन वाली बात बाँधी थी। फिर भी यह एक सत्य है, निर्विवाद तथ्य है एवं आँकड़ों से भरी एक दर्दनाक तस्वीर है जो अमेरिका से लेकर जापान आस्ट्रेलिया तक के नागरिकों की आँखों के समक्ष घूम रही है। यह नोस्ट्राडेमस के तीन शताब्दी पूर्व के कथन को प्रामाणित भी कर रही है। संस्कृति विनाश की इस बेला में मानव समुदाय तो नहीं चेता, चिकित्सकों ने इस रोग की भयंकरता को जनमानस के समक्ष रखना आरम्भ कर दिया है।

यह रोग मूलतः समलिंगी यौन सम्बन्धों से फैला है। प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस काम विकृति ने अमेरिका व यूरोप में बड़ी तेजी से विस्तार किया। अरब की खाड़ी के देशों में किशोरावस्था के लड़के शेखों के हरमों में सैकड़ों की संख्या में अभी भी देखे जा सकते हैं। एकाकी नीरस जीवन बिताने वाले मनोविकारग्रस्त युवकों में यह मनोवृत्ति अधिक पायी जाती है। पुरुषों व स्त्रियों दोनों में ही यह पायी जाती है। जहाँ यौन तृप्ति ही लक्ष्य हो वहाँ स्त्री हो या पुरुष कोई अन्तर नहीं पड़ता, ऐसी उनकी मान्यता है। अमेरिका में तो दो पुरुषों ने परस्पर विवाह कर उसे फेडरल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से वैध भी स्वीकार करा लिया। वियतनाम युद्ध जहाँ अमेरिकी सैनिकों को कई वर्षों तक विषम परिस्थितियों में रहना पड़ा, यह विकृत यौनाचार खूब फैला। तब तो किसी ने इस सम्बन्ध में कल्पना भी नहीं की थी कि इसके क्या परिणाम होंगे। किन्तु प्रकृति की पाठशाला में अनुशासन हीनता के लिये दण्ड की पर्याप्त व्यवस्था है। जिस अप्राकृतिक कृत्य में मानव निरत हुआ, उसकी परिणति एक ऐसे रोग के रूप में उभर कर आयी जिसके उभरने व मृत्यु को प्राप्त होने के बीच मात्र 5-6 महीने की वेदना युक्त अवधि थी। अमेरिकन एसोशिएशन फॉर एडवान्समेन्ट ऑफ साइन्स ने एक सर्वेक्षण कर 1983 में यह पाया कि यह कैंसर से भी अधिक घातक रोग है, जिसे यदि प्रारम्भिक स्थिति में पहचान भी लिया जाय तो उपचार सम्भव नहीं है। इस रोग में “सेल्युलर इम्युनिटी” का ह्रास होता चला जाता है व शरीर से प्रतिरोधी संस्थान सम्बन्धी जीवकोष चुक जाते हैं। प्रति रक्षा के अभाव में शरीर संक्रमण व कभी-कभी व ठीक हो सकने वाले लसिका ग्रन्थियों के कैंसर, कैपोसी सारकोमा जैसे रोगों का शिकार हो जाता है। 6 माह से कम में ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।

सबसे भयावह पक्ष यह है कि कोई आवश्यक नहीं कि रोग फैलने के लिये यौन संपर्क ही जरूरी हो। यह रोगी का रक्त अन्य किसी व्यक्ति को दिए जाने पर अथवा प्रयुक्त इन्जेक्शन सुई कहीं और उपयोग में लाई जाने पर भी एक से दूसरे तक पहुँच सकता है। मादक औषधियों का सेवन करने वाले बहुसंख्य व्यक्ति इसके रोगी हो सकते हैं व रक्त बेचने में भी वे अग्रणी होते हैं। रोग फैलाने व एक महाद्वीप व राष्ट्र से दूसरे में रोग को पहुँचाने में सहायक सिद्ध होते हैं। यही कारण है कि मात्र 2 वर्ष की अल्पावधि में इसके लगभग सभी बड़े विकसित व विकासशील राष्ट्रों में प्रकट होने की रिपोर्ट मिली हैं।

यह समझा जाना चाहिए कि अप्राकृतिक जीवन क्रम विधाता को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं। यौनाचार पर प्रतिबन्ध नहीं, लेकिन एक मर्यादा है। जब भी इसका उल्लंघन होगा, दण्ड हाथों-हाथ मिलेगा। अभी तक गनोरिया, सिफिलिस जैसे रोग ही व्यभिचार जैसे कृत्यों के कारण आगे थे किन्तु इस नयी व्याधि ने इन सबसे बाजी मार ली है। जितनी शीघ्रता से यह फैलता है उससे अकाल मृत्यु तो अल्पायु में होती ही है, अन्य संपर्क वाले व्यक्ति भी अछूते नहीं रहते।

अध्यात्मिक दर्शन मर्यादित संयमित जीवन जीने का आदेश देता है। इस विज्ञान सम्मत विधा के सारे सिद्धान्त क्रिया की प्रतिक्रिया के इकालॉजी के नियम पर आधारित हैं। विभीषिकाएँ मनुष्य की स्वयं की न्यौत दी गयीं विपदाएँ हैं। उनका स्वरूप चाहे परिस्थिति की असंतुलन के रूप में हो अथवा काया व मन के रोगी होने के रूप में, वे बारम्बार यही चेतावनी देती हैं कि अच्छा हो! मनुष्य समय रहते सम्भल जाए। नहीं तो हश्र वही होना है जो नोस्ट्राडेमस ने पहले ही लिखकर रखा है कि “महामारी जो यौनाचार से जन्मेगी मनुष्यों के शरीरों को गला-गलाकर रातों-रात नष्ट कर देगी।” मनुष्य की समझदारी पर भरोसा किया जा सके तो विश्वास रखना चाहिए कि ऐसा समय नहीं आएगा।

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