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Magazine - Year 1984 - Version 2

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तेजोवलय- एक बहुमूल्य आत्मिक विभूति

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देवताओं, अवतारों के चेहरे के चारों ओर एक प्रभा मण्डल चित्रित किया जाता है। श्रद्धावश महापुरुषों और सन्त- सिद्ध पुरुषों के चेहरे पर भी यह अंकन होता है। खुले नेत्रों से देखने पर जीवित महामानवों के चेहरों पर ऐसा कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तब यह सन्देह होता है कि जिनने अवतारी शरीरधारियों को देखा होगा उन्हें वह प्रकाश दृष्टिगोचर होता होगा या नहीं, जो चित्रों में अंकित किया जाता है।

यह उनकी आध्यात्मिक विशिष्टता का परिचय है। यह तेजोवलय खुली आँखों से नहीं देखा जाता पर सूक्ष्म नेत्र जिनके भी खुल सके होते हैं, उन्हें प्रतीत होता है कि दैवी महामानवों का देवत्व उनके चेहरे पर विशिष्ट रूप से देखा जाता है। यह उनकी आन्तरिक शक्तियों का बहिरंग में परिचय है। यों वह होता तो समस्त शरीर के इर्द-गिर्द है, पर उसकी अधिक मात्रा चेहरे के आस-पास ही प्रधान रूप से परिलक्षित होती है।

अध्यात्म रहस्योद्घाटनों में नेत्रों को सूर्य-चन्द्र की उपमा दी गई है। वाणी को सरस्वती की, नासिका को पवन की और कानों को आकाश की। चेहरे के भीतरी भाग में भृकुटी के स्थान पर दिव्य तृतीय नेत्र माना गया है, जिससे अदृश्य को देखा जा सकता है। उसका तेजस् प्रत्यक्ष नेत्रों की तुलना में कहीं अधिक होता है। इसी को खोलकर शिवजी ने कामदेव को जलाया था। त्रिकाल दर्शी उसी की सहायता से दूर-दर्शन ही नहीं भूत और भविष्य को भी देख पाते हैं। मस्तिष्क के भीतर ब्रह्मरन्ध्र सहस्रार चक्र है। विष्णु के उपासक इसे क्षीर सागर में सोया हुआ सहस्र फण वाला शेषनाग मानते हैं और शिव उपासकों के लिए यह ब्रह्मरंध्र ही कैलाश और उसके इर्द-गिर्द का क्षेत्र मानसरोवर है। गुरुत्व का ध्यान यहीं किया जाता है। इस प्रकार मस्तिष्क का भीतरी भाग भी दिव्य शक्तियों से भरा है। ज्ञानेंद्रियां यदि परिशोधित स्थिति में हों तो वे भी देवतुल्य हैं। इस प्रकार चेहरे का बाहरी और मस्तिष्क का भीतरी भाग देव शक्तियों का निवास स्थान माना गया है और उन सबका प्रतीक चेहरे के इर्द-गिर्द फैला हुआ तेजोवलय माना गया है। प्राचीनकाल में तेजोवलय दिव्यता का- दिव्य शक्तियों के भण्डार का सूचक माना जाता था और चित्रों में उसका अंकन इसी आधार पर होता था। सन्तों और महामानवों को भी जो लोग वही पदवी देना चाहते थे वे उनके चेहरे पर भी वैसा ही अंकन करते थे। बुद्ध, राम, कृष्ण आदि के चेहरों पर तो यह प्रकाश अति प्राचीन काल से चला आता रहा है। ईसा मसीह के चित्रों में भी तात्कालिक चित्रकारों ने इसका समावेश करना आरम्भ किया।

अब वैज्ञानिक शोधों ने इस संदर्भ में नया कदम उठाया है। उनने अपनी शोधों में पाया कि प्रत्येक व्यक्ति में यह प्रकाश तीव्र अथवा क्षीण रूप में पाया जाता है। वे इसे प्राण ऊर्जा का प्रतीक मानते हैं। ऐसे यन्त्र विनिर्मित हो चुके हैं जो किसी भी व्यक्ति के चेहरे के इर्द-गिर्द फैले हुए इस प्रकाश की छाया ले सकते हैं। समस्त शरीर के इर्द-गिर्द भी यह होता है पर वह क्षीण रहता है। क्योंकि चेहरे के भीतर और बाहर विद्युत सम्पदा का भण्डार है। गले से नीचे के अवयवों में प्राण ऊर्जा- गर्मी अथवा विद्युत का कितना भाग है, इसी का पता चलता है।

इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक शारीरिक दूसरा मानसिक। शरीर से सीधा साधा प्रकाश निकलता है। प्रकाश सफेद होता है। मानसिक तेजोवलय इसी में घुला होता है। उसमें रंगों की झलक होती है। जिस प्रकार इन्द्र धनुष में हल्के भारी कई रंगों की झलक मिलती है, उसी प्रकार तेजोवलय का श्वेत भाग शरीरगत समर्थता का प्रमाण प्रस्तुत करता है। इसमें रंगों की झलक मिले तो उसे मानसिक विशेषता का परिचायक माना जाएगा।

दिव्यता विहीन मोटे-तगड़े शरीरों में तेजोवलय धुँधले कुहरे जैसा होता है। उसमें शुभ्रता का अंश बहुत कम होता है। मानसिक दृष्टि से जो गये, बीते, पतित हैं उनके प्रकाश में कालेपन की बहुलता रहती है। दोनों मिलाकर जो स्थिति बनती है उसे धुंधलापन कह सकते हैं। उसका चित्रण नहीं हो सकता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से यह प्रभामण्डल किसी की दिव्यता का परिचायक है। उसमें विशिष्टताएं होनी ही चाहिए। ऐसा प्रकाश दिव्य चक्षुओं से ही देखा जा सकता है। जिस प्रकार कर्णेन्द्रियों को जागृत करके नादयोग सुना जाता है, जैसे अंतर्दृष्टि से अन्तर्मुखी होकर ध्यान योग द्वारा सूक्ष्म शरीर के, अन्तरंग के किसी भाग के दर्शन किये जाते हैं उसी प्रकार ज्ञान चक्षुओं से दैवी विभूति सम्पन्न पुरुषों का तेजोवलय देखा जाता है ओर यह अनुमान लगाया जाता है कि किसके भीतर कितनी दिव्यता है।

अब इस क्षेत्र में विज्ञान ने कुछ कदम आगे बढ़ाये हैं और शरीरगत प्राण ऊर्जा को विशिष्ट यन्त्रों से आभा मण्डल के रूप में प्रत्यक्ष देखना आरम्भ किया है। उस आधार पर किसी सशक्त या दुर्बल होने का स्वस्थ या रुग्ण होने का पता चलता है। भौतिक विवेचन का क्षेत्र भी यही है। विज्ञानी किसी की आध्यात्मिक स्थिति का पता नहीं लगा सकते, तो भी शरीर या मन की स्वस्थता- दुर्बलता का आकलन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

शरीर में रक्त माँस ही नहीं होता उसमें विद्युत शक्ति भी होती है। इसके भी दो भाग हैं। एक वह जो हृदय और मस्तिष्क से विनिर्मित होकर नाड़ी संस्थान का संचालन करती है। दूसरी वह जो निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त रहते हुए प्रत्येक शरीरधारी, वनस्पति एवं पदार्थ को प्रभावित करती है। दोनों के सम्मिश्रण से जो विद्युत बनती है, उसी को वैज्ञानिक देख या समझ पाते हैं। उसी आधार पर किसी की स्थिति का विश्लेषण करते हैं। वैज्ञानिक तेजोवलय विशुद्धतः भौतिक होता है। वही यन्त्र गम्य है। आध्यात्मिक प्रभामण्डल मशीनों से नहीं देखा जा सकता उसे ज्ञान-चक्षुओं से ही ध्यानयोग द्वारा देखा जा सकता है।

अब तक तेजोवलय के सम्बन्ध में कुछ निश्चित अभिमत नहीं था, पर अब प्राण विद्युत के रूप में उसका आकलन होने के उपरान्त यह आशा बँधती है कि दिव्य आभा मण्डल का भी किसी न किसी आधार पर दर्शन आकलन किया जा सकेगा।

प्रभामण्डल के सम्बन्ध में वैज्ञानिक खोजबीन आरम्भ हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं। तेजोवलय का मापन सबसे पहले डा. किल्नर ने 1911 में किया। उन्होंने हाइवोल्टेज लाइट स्रोत का प्रयोग कर यह पाया कि हर जीवित वस्तु के चारों ओर एक प्रभा मण्डल होता है। बैग्नेल (लन्दन) के 1937 तथा रिगस (अमेरिका) के 1974 में किये गये कार्यों से यह पता चला है कि कुछ व्यक्तियों के आसपास का प्रभामंडल विशिष्ट आभा लिए होता है। उसमें विद्यमान किरणों का स्पेक्ट्रम भी अन्य जीवों की तुलना में भिन्न होता है। इसे उन्होंने पहले कीर्लियन तथा बाद में शेर्लियन फोटोग्राफी द्वारा फोटो प्लेट पर अंकित किया। उँगलियों के पोरों, चेहरे के चारों ओर एवं सुषुम्ना के निचले भाग पर इसकी सघनता को मात्रा भिन्न-भिन्न पायी गयी। इन्हीं वैज्ञानिकों का मत था कि ऑरा का मापन करके पहले से बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति किस मनोविकार या ग्रन्थि का शिकार है एवं इसे आगे चलकर क्या रोग हो सकते हैं। मस्तिष्क में रक्त, स्राव, दमा, हृदयाघात, कैंसर जैसे रोगों में निदान की इस विधि में साठ से अस्सी प्रतिशत सफलता पायी गयी। निषेधात्मक चिन्तन वाले व्यक्ति एवं विधेयात्मक व्यक्तित्व में अन्तर उनके ऑरा के विश्लेषण से हो सकता है, यह डा. श्रोडिंजर ने 1976 में बताया।

आभा मण्डल के 3 स्पष्ट भाग वैज्ञानिकों ने किए हैं। पहला शरीर तक सीमित विद्युत विभव, दूसरा शरीर से एक इंच बाहर तक निकला तेजोवलय एवं तीसरा शरीर को कवच की तरह चारों ओर से लपेटे 6 से 8 इंच व कभी-कभी कई फीट तक शरीर से बाहर तक फैला हुआ- विशेष कर चेहरे, उंगलियों व जननेन्द्रियों पर। इस तीसरे आभा मण्डल को जार्जमीक ने ‘जोन ऑफ एनर्जी’ माना है। पहले में बिन्दु होते हैं, दूसरी में रेखाएँ तथा तीसरे में सघन आयनों का समुच्चय। पहले को वे स्थूल शरीर व बायोप्लाज्मा का सम्मिश्रण कहते हैं, दूसरे को प्लाज्मा तथा तीसरे को विकिरण जिसमें वास्तव में ही लिंग (चिकित्सा) की क्षमता होती है।

भारतवर्ष में यह कार्य सबसे पहले डा. पी. नरेन्द्रन् ने किया है। वे भारत सरकार के विज्ञान और तकनीक मन्त्रालय के अनुदान के अंतर्गत अपना काम चला रहे हैं। सन् 1983 में उन्होंने हाँगकाँग में एशियन एण्ड आस्ट्रेलियन काँग्रेस में अपनी शोध का प्रदर्शन किया था जिसमें उपस्थित वैज्ञानिकों ने बहुत रुचि ली, प्रतिपादन यह किया गया है कि दूसरा “ऑरा” प्रकाश के आधार पर शारीरिक और मानसिक स्थिति का अधिक गहराई से विश्लेषण किया जा सकता और जाना जा सकता है कि इन क्षेत्रों में किन्हीं रोगों का प्रवेश हो चुका है या होने वाला है। समय रहते इस प्रकार की जानकारी मिल जाने से उपचार कहीं अधिक सरल पड़ेगा।

डा. नरेन्द्रन् का ध्यान इस विषय में पहले हो चुकी शोधों ने विशेष रूप से आकर्षित किया और वे उस कार्य को अपने ढंग से आगे बढ़ाने में लगे गये। लन्दन के सेन्ट जोन्स थामस हॉस्पिटल के प्रमुख सर्जन डब्ल्यून जे. किल्नर ने ऐसे प्रकाश की जानकारी प्राप्त की थी और अपनी शोधों का विवरण “दी ह्यूमन एटमॉसफियर” में विस्तार पूर्वक लिखा है।

सन् 1939 में रूसी वैज्ञानिक किरलियन ने इलेक्ट्रोथेरेपी की शोध करते हुए पाया कि उनके शरीर में से रंग-बिरंगी विद्युतीय चिनगारियाँ निकल रही हैं। फिर उन्होंने दूसरे शरीरों की जाँच-पड़ताल की और पाया कि यह उनकी निजी विशेषता नहीं है वरन् न्यूनाधिक मात्रा में दूसरों के शरीरों में से भी ऐसा ही प्रकटीकरण होता है।

मद्रास इन्स्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी के अध्यक्ष पी. नरेन्द्रन् को इसी आधार पर अपने प्रयास आगे बढ़ाने की प्रेरणा मिली। उनने एक ऐसी मशीन बनाने में भी सफलता पाई जो उँगलियों के फोटोग्राफ प्रभा मंडल सहित खींच लेती है।

इस प्रभामण्डल को इन्फ्रारेड फोटोग्राफी के सिद्धान्तों से मिला देने पर घोर अँधेरे में घूमते हुए किसी आदमी का फोटो खींचा जा सकता है और अँधेरे में चोरी करने वालों का भी पता लगाया जा सकता है। उस व्यक्ति के चले जाने पर भी इन्फ्रारेड फोटोग्राफी से यह विदित होता रह सकता है कि कुछ समय पूर्व यहाँ कौन था और क्या कर रहा था क्रिया-कलाप समाप्त हो जाने पर भी यह निशान बने रह सकते हैं कि किसने क्या किया था।

यही सिद्धान्त अध्यात्मिक क्षेत्र में विकसित होने पर यह जानकारी दे सकते हैं कि किस चरित्र एवं व्यक्तित्व का व्यक्ति किस स्थान पर कितने समय रहा है और उसने उस स्थान को किस दिशा में प्रभावित किया है?

प्रभा मण्डल एक प्रकार का छाया पुरुष है, जो प्रकाश रूप होते हुए भी यह बताता है कि जिसका यह प्रकाश है, उसके गुण, कर्म, स्वभाव, उद्देश्य एवं कृत्य क्या थे। इस प्रकार यह विज्ञान विकसित होने पर किसी व्यक्ति के न रहने पर भी उसके निवास स्थान से संपर्क साधकर बहुत समय तक यह जाना जा सकेगा कि यहाँ किसी मनुष्य की प्राण ऊर्जा अपना कैसा और कितना प्रभाव छोड़ गई है।

प्रभा मण्डल एक प्रकार से किसी व्यक्ति का अदृश्य व्यक्तित्व है जो उसके प्रभाव से उस क्षेत्र को देर तक प्रभावित करता रहता है। तेजोवलय के चित्रण का महत्व ऐसी ही अनेक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए समझा जा सकता है।

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