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Magazine - Year 1984 - Version 2

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भुतहा मकान जो आखिर गिराना ही पड़ा

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16 सितम्बर 1979 की बात है। उस घर में पति-पत्नी दो ही थे। दोनों ने अनुभव किया कि उनके मकान की सीढ़ियों पर कोई ऊपर चढ़ता आ रहा है। चढ़ना थके हुए आदमी जैसा था। रुकना हुआ तो रोने की आवाज आने लगी। पति का नाम था एडवर्ड। पत्नी का सूसन। पहले तो वे नवागन्तुक की टोह लेते रहे। फिर हिम्मत बाँधकर उसका परिचय और आने का कारण पूछते रहे। पर जो कुछ जानकारी मिली वह असंगत और भयावह थी। रात को वे उस घर में ही इधर-उधर टकराते रहे और सवेरा होते-होते पागल जैसी स्थिति में पहुँच गये। दरवाजा खुला था। परिचितों ने उन्हें अलबर्टो सिविल अस्पताल पहुँचाया। वहाँ वे प्रलाप तो करते रहे पर किसी चिकित्सा से अच्छे न हुए। दूसरे दिन उनकी मृत्यु हो गई।

जिस मकान की चर्चा की जा रही है उसका नाम था ‘दि सिलवर ओक’, वह अतीव सुन्दर था, इसलिए जिनको भी मकान की आवश्यकता होती, इतना सुन्दर और सस्ता मकान देखकर वे ललचा जाते और बिना बहुत ढूँढ़-खोज किये उसे खरीद लेते। सब पर न्यूनाधिक एक जैसी मुसीबत बनती और सभी को जान से हाथ धोना पड़ता। वह मकान अपने जीवन काल में 52 व्यक्तियों को निगल चुका था। अलबर्ट दम्पत्ति 53वें थे।

यह इमारत सन् 1880 में बनी थी। शिकागो की इस बिस्कुटी रंग से रंगी इमारत का डिजाइन किसी ने बड़े कलात्मक ढंग से बनाया था और लागत का ख्याल किये बिना जी खोलकर उसमें पैसा लगाया था। ईंट सीमेंट ही नहीं उसमें चाकलेटी पत्थर भी बहुत लगा था। इसे उस समय के माने हुए नक्षत्र विद्या विशेषज्ञ अलेक्जेन्डर वेयरिंग ने बड़ी तबीयत से बनवाया। नक्शानवीस, कारीगर, रंगसाज उन्होंने ढूँढ़-ढूँढ़कर इसमें लगाये थे। उसे सर्वांग सुन्दर बनाने में पैसा पानी की तरह बहाया था। लेकिन वे ज्यादा दिन इस कोठी में रह नहीं पाये। अक्टूबर 1887 को वे अपने इस घर में मरे हुए पाये गये। आधी रात उनके नौकरों ने सुना कि अपने शयनकक्ष में भीतर ही भीतर वे कुछ बुदबुदा रहे हैं। आवाज दी पर कोई जवाब न मिला। इस पर वे उनके परिचितों को बुलाकर लाये। दरवाजा खटखटाने पर कोई जवाब न मिला तो किवाड़ तोड़ी गईं और मालूम पड़ा कि वे मरे पड़े थे।

उनके मरने के कई वर्ष बाद तक मकान बन्द पड़ा रहा। मौत की घटना लोग भूल गये। ऐसे अच्छे-खासे और बिल्कुल नये मकान को देखकर ग्राहकों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। इसे सन् 1897 में एक धनी युवती मेथिल्डी ने बड़े चाव से खरीद लिया। उन्हें अपने नाना की अपार सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिली थी। ऐसे ही शौक-मौज में दिन गुजारती थीं। एकान्त उन्हें पसन्द था सो मकान को उन्होंने अपने अनुरूप पाया और सस्ते मोल मिलते देखकर सहज ही उनने खरीद लिया। उसके नाना काल्विन सोने की खदानों के व्यापारी थे सो विरासत में अपनी इस इकलौती धेवती के लिए अकूत सम्पत्ति छोड़कर मरे थे। मेथिल्डी के साथ उसका प्रेमी वेलिन्यूव भी रहने लगा। वे लोग शादी करना चाहते थे, पर इसके लिए उन्हें जल्दी न थीं।

सफाई करते समय सिलवर ओक में एक कुआँ मिला। उसमें एक नर कंकाल, जंग लगी बन्दूक और कुछ ऐसे निशान मिले जो उसका समय अमेरिका के गृह युद्ध के दिनों का बताते थे। मालिकों ने इसका पता लगाने के बजाय इसको बन्द करा देना ज्यादा अच्छा समझा। उनने कुएँ के निशान पूरी तरह मिटा दिए।

वेलिन्यूव भी सोने की खदानों का कारोबार करता था। कुछ सौदे निपटाने के लिए उसे एक सप्ताह बाहर रहना पड़ा। लौटा तो उसकी प्रेमिका उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह घर की देहली में घुसा ही था कि उन्मादियों जैसी हरकतें करने लगा। उसने कमर में से छुरा निकाला और प्रेमिका के सीने में भोंक दिया। यह मरणासन्न स्थिति में जमीन पर गिर ही पाई थी कि छुरे का दूसरा वार उसने अपनी छाती में किया और आत्महत्या करके अपना भी अन्त कर लिया।

घटना आई गई हो गई। लोगों ने इसे साधारण प्रेम विग्रह समझा। मकान की मालिकीयत अब प्रख्यात ‘शिकागो ट्रिब्यून’ पत्र के सम्पादक जान सिमिल्टन के हाथों आ गई। यह खरीद सन् 1909 में हुई। सिमिल्टन अनीश्वरवादी थे, भूत-प्रेतों की बातों पर जरा भी विश्वास नहीं करते थे। 11 जनवरी, 1910 को उनके यहाँ एक पारिवारिक उत्सव था। किसी बच्चे का जन्म दिन मनाया जा रहा था। कुल मिलाकर छोटे-बड़े 38 मेहमान एकत्रित थे। प्रीतिभोज हुआ। भोज के बाद दरवाजा तो खुला था पर मालूम पड़ा कि 38 व्यक्ति मरे हुए पड़े हैं। कारण तलाश करने पर इतना ही कहा जा सका कि जहरीला खाना खाने से यह मौतें हुईं।

इसके बाद सन् 1915 में यह मकान सैक्युअल ओची नामक व्यक्ति ने खरीदा। वह शोधकर्मी था, साथ ही दिलेर भी। इन दिनों मिस्र के पिरामिडों सम्बन्धी कुछ दस्तावेजों की खोज कर रहा था। उसे कई रातों से बरामदे में कुछ परछाइयाँ टहलती और चीख पुकार करती सुनाई पड़ी। यह सब उसने देखा सुना तो सही पर घबराया नहीं। दूसरे दिन अपने जैसे कुछ और दिलेर मित्रों को बुलाकर लाया कि माजरा क्या है? कई दिन यह डरावनी बातें देखकर उसने निश्चय किया कि वह इस मकान को छोड़ देगा। रात को ही उसने अपनी डायरी में लिखा- “दो डरावनी आँखें मुझे हर समय घूरती रहती हैं। इस मकान में रहते हुए खतरा है। मकान छोड़ देने का मेरा पक्का इरादा है।”

सन् 1920 में एक सौदागर थामसन प्रेयरी ने यह इमारत खरीदी। उस परिवार को रहते एक सप्ताह भी न बीतने पाया था कि चमड़े की बेल्ट से किसी ने उन सबका गला घोंट दिया।

सन् 1922 में वह मकान दो विधवा महिलाओं ने मिलकर खरीदा। इनमें से एक का नाम था एलिजावेथ दूसरी जैकसिन। वे जिस दिन से इस मकान में आईं उसी दिन से जीने में किन्हीं के चढ़ने उतरने की, हँसने रोने की आवाजें सुनने लगीं। पूछने पर कोई जवाब न मिलता। वे दस दिन में ही सुखकर काँटा हो गईं। उस बस्ती के नगरपालिका अध्यक्ष श्री अल्बर्टो शिष्टाचार के नाते इन नये निवासियों की कुशल क्षेम पूछने आए। तो उनसे कहा गया कि आरम्भ के दिन से ही कोई दुष्ट आत्मा उन्हें बुरी तरह डरा रही है और जान से मार देने की धमकी दे रही है।

अध्यक्ष ने अधिक विवरण पूछा तो उनने बताने से इन्कार कर दिया और कहाँ- “हमें कहा गया है कि कुछ भी बताने पर उनकी जान ले ली जाएगी”।

बातें करते-करते कुछ देर हो गयी। काल्विन विदाई लेते हुए बाहर खड़ी अपनी गाड़ी तक आये तो लगा कि उन्हें किसी ने जकड़ लिया है। वे हाथ फड़फड़ाकर उस जकड़न से छूटने की कोशिश करने लगे पर उल्टे किसी जाल में कसते जाने का अनुभव करने लगे। फिर वे बेहोश हो गए। होश आया तो उनकी स्थिति पागलों जैसी हो चुकी थी। उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया, तो वे इतना ही कह सके- “मैंने उन्हें देखा है- मैंने उन्हें देखा है।” जिस रात वे अस्पताल थे उसी रात उन दोनों विधवाओं की घर में मृत्यु हो गई। दोनों की लाशें रेशमी रस्सी से बँधी हुई छत पर लटक रही थीं। तब से पचपन वर्ष तक अर्थात् सन् 1979 तक वह मकान खाली ही पड़ा रहा। किसी की हिम्मत इसे लेने की नहीं हुई।

सबसे आखिरी किरायेदार थे एडवर्ड और सूसन। उनका भी अंत ऐसी ही दुर्दशा में हो चुका था। इस तरह कुल मिलाकर 52 मृत्युएं इस अवधि में हो चुकी थीं। शिकागो प्रशासन ने इस मकान को अभिशप्त घोषित कर दिया और सन् 1980 में उसे जमींदोज करा दिया। यों अब कोई मकान नहीं है तो भी भूतही आवाजें जब-तब उधर से गुजरने वालों को सुनने को मिलती हैं। इस अभिशप्त मकान का रहस्य यथावत् बना हुआ है। अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र में ऐसी बातें उपहासास्पद मानी जा रही हैं। किन्तु वैज्ञानिक स्वयं हतप्रभ हैं कि यह वस्तुतः है क्या?

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