
समृद्धि कर्मठता की चेरी
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शुक और शुकी एक वृक्ष की डाल पर सुखपूर्वक बैठे विश्राम कर रहे थे। कोटर में उनके बच्चे सोये थे। प्रातः काल होने में अभी कुछ देर थी। तभी शुकी ने जिज्ञासु स्वर में शुक से पूछा- स्वामी! भगवान् की इस सृष्टि में साधन और सम्पत्ति का कहीं भी अभाव नहीं है फिर भी कितने ही लोग दुःखी, साधनहीन और संकटग्रस्त क्यों हैं? मैं कुछ समय नहीं पाती।
शुक एक दार्शनिक हँसी-हँसा और यह कथा कहनी प्रारम्भ की- साँझ होने को थी शुकी! तभी एक दम्पत्ति अपने तीन बच्चों के साथ इधर से ही निकले, देखने से लगता था कि ये लोग दिन भर के थके-माँदे हैं, और चल सकने की उनमें हिम्मत नहीं थी। सभी रुक गये और इसी वृक्ष के नीचे डेरा डाल दिया। उन दिनों मैं भी बालक ही था, तुम्हारे साथ विवाह तो अभी हुआ है, मैं अकेला ही बैठा बड़े ध्यान से इन नवागन्तुकों के क्रियाकलाप देखने लगा।
बच्चे बोले पिताजी! भूख लग रही है खाने को दो नहीं तो प्राण निकलते हैं। माँ तो यह सुनकर चिन्तित हो उठी पर पिता था उत्साही, उसने कहा- बच्चों! जाओ थोड़ी सूखी लकड़ियाँ काट लाओ अभी भोजन तैयार करते हैं। पिता की बात सुनते ही बड़ा लड़का उठ खड़ा हुआ बोला- मैं जाता हूँ अभी सूखी लकड़ियाँ काट लाता हूँ। अभी वह उठ भी नहीं पाया था कि दूसरा लड़का खड़ा होकर बोला- पिताजी लकड़ियाँ तो मैं ही लाऊँगा मुझसे चुपचाप बैठा नहीं जायेगा, तब तक तीसरा उठकर चल भी पड़ा वह कह रहा था- मैं छोटा हूँ लकड़ियाँ लाने का अधिकार तो मुझे ही है।
उनकी इस प्रकार की बातें सुनकर मुझे हँसी आ गई प्रिये!
क्यों, आपको हँसी क्यों आई? शुकी ने पूछा तो शुक ने बताया- मैंने उनसे कहा- मूर्खों तुम्हारे पास न तो अन्न है और न शाक या फल लकड़ियाँ लाकर क्या अपने हाथ-पाँव पकाकर खाओगे? इस पर तीनों लड़कों ने मेरी ओर देखकर कहा- “अपने हाथ-पाँव नहीं- औरे! पक्षी हम तो तुझे खायेंगे।” उनका यह निश्चय सुनकर मैं डर गया शुकी! और बोला भाई तुम लोग मुझे मत खाना। चलो मैं तुम्हें खजाना बताता हूँ तुम उसे खोद लो और अपना अभाव दूर करो। यह कहकर मैंने उन्हें गन्धमादन पर ले जाकर रत्नों का ढेर दिखाया जिसे पाकर वे सब बहुत प्रसन्न हुए और अपने घर चले गये।
इससे निष्कर्ष क्या निकला? शुकी ने प्रश्न किया तो पक्षी बोला- निष्कर्ष अभी कहाँ शुकी- यह लोग अपने घर गये तो पड़ौसियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह लोग इतने शीघ्र धनवान् कैसे हो गये। लोगों ने पूछा तो उनने सारी बातें बता दीं। दूसरे ही दिन मैंने देखा कि इसी वृक्ष के नीचे वैसे ही एक और दम्पत्ति भी आ टिके हैं।
उनके बच्चों ने भी खाना माँगा। पिता बोला- बच्चों जाओ और लकड़ियाँ ले आओ अभी भोजन तैयार करेंगे। लड़के आपस में झगड़ने लगे। स्वयं जाने को कोई तैयार न था सब एक दूसरे को आज्ञा दे रहे थे। मैंने कहा झगड़ो मत, लकड़ियाँ लाकर ही क्या करोगे- तुम्हारे पास रखा ही क्या है लकड़ियां ले भी आये तो खाओगे क्या? इस पर वे बनावटी स्वर में बोले- तुझे खायेंगे? मैं हँसा और बोला- मुझे खाने वाले तो पहले आये थे वह धन-दौलत ले भी गये तुम तो जैसे खाली हाथ आये वैसे ही खाली हाथ जाओगे। हुआ भी यही शुकी! वे बेचारे वैसे ही लौटे।
हँसते हुये शुक ने कहा- प्रिये अब कहो तो निष्कर्ष बताऊँ? नहीं स्वामी! शुकी बोली मैं समझ गई जिनके जीवन में क्रियाशीलता होती है, एकता और पौरुष में विश्वास होता है, लक्ष्मी उनका वरण अपने आप करती है।
अब तब उनके बच्चे भी जग चुके थे और रात भी बीत चुकी थी। पक्षी कोटर से निकले और चहचहाते हुये भोजन की तलाश में निकल पड़े।