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Books - देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर (चतुर्थ भाग)

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साहस असंभव को संभव बना देता है

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बौद्ध मत राज्याश्रय मिलने तथा समर्थ प्रचारकों के कारण भारत भूमि से उत्पन्न होकर देश-देशांतरों में फैल गया। जापान, चीन और रूस तक उसका सीमा विस्तार हो गया। इस विस्तार के साथ ही उसके कुछ अनुयायियों में संकीर्णता पनपने लगी। वे दूसरे मतों का सम्मान करना भूलकर उन पर अत्याचार करने लगे। प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ बद्रीनाथ के मुख्य मंदिर की देव मूर्ति उन्होंने नारद कुंड में फेंक दी जिससे वहां वैशाख से कार्तिक तक होने वाली मानवी पूजा ही बंद हो गयी।भगवान् बुद्ध ने प्रचलित तत्कालीन भारतीय धर्म में उत्पन्न हुए गतिरोध व मूढ़ मान्यताओं को दूर करने के लिए बौद्ध धर्म चलाया था। उसे एक सामयिक सुधार-बीमारी की स्थिति में दी जाने वाली दवा व पथ्य के रूप में ही गिना जाना चाहिए था किन्तु उसी को सब कुछ मानकर बौद्ध मतावलंबी हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित करने लगे। तब स्वामी शंकराचार्य ने दिग्विजय का महान् संकल्प लेकर उसे पूरा किया और वैदिक धर्म को पुनर्जीवित किया।जब वे बद्रीनाथ धाम पहुंचे तो वहां के निवासियों ने वहां के देवालय की दुर्दशा का वर्णन किया। वे उसकी पुनर्प्रतिष्ठा करने के लिए मंदिर पर पहुंचे। वे पूजा आरंभ करवाना चाहते थे। किन्तु मूर्ति के अभाव में कुछ हो नहीं पा रहा था। वहां के मंदिर के पुजारी तथा संबंधित विद्वज्जन नयी मूर्ति बनवाने का विचार कर रहे थे।इस पर उन्होंने पूछा—‘‘पहले की मूर्ति कहां है?’’‘‘उसे तो बौद्धों ने नारद कुंड में फेंक दिया है।’’‘‘तो उसे ही क्यों न निकाला जाय?’’स्वामी जी के इस कथन पर सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे। एकत्रित शताधिक मनुष्यों के चेहरों पर ‘यह असंभव है’ का भाव तैर आया। स्वामी शंकराचार्य ने उन सबसे पूछा—‘‘आपमें से कोई देवमूर्ति को निकालने के लिए तैयार है।’’इतने गहरे कुंड से मूर्ति को निकालने का प्रयास करना प्राणों से खेलना था। अतः कोई तैयार नहीं हुआ। सबको इस प्रकार पस्त देख वे स्वयं अपना उत्तरीय फेंककर कुंड में जा कूदे। लोगों के मुंह से दीर्घ निःश्वास निकल गई। यह संन्यासी या तो अपने प्राण गंवायेगा या अपने वचन-ऐसा ही लोग सोचने लगे।बड़ी देर बाद वे खाली हाथ बाहर निकले। कुछ देर सांस लेने के बाद फिर कूदे। लोगों ने मना किया पर वे माने नहीं। दूसरी बार भी वे खाली हाथ बाहर आये। तीसरे व अंतिम प्रयास में जब वे ऊपर आये तो मूर्ति उनके हाथ में थी।विग्रह का एक पांव खंडित था। उसे जोड़कर पुनः उसकी प्रतिष्ठा की गयी। पंडितों ने खंडित विग्रह की स्थापना का विरोध किया पर शंकराचार्य के तर्कों व प्रमाणों के आगे उन्हें निरुत्तर होना पड़ा।स्वामी शंकराचार्य ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर और बद्रीनाथ के विग्रह को नारद कुंड से निकाल कर यह प्रमाणित कर दिया कि वे पांडित्य और धर्म ज्ञान में ही शीर्षस्थ नहीं हैं वरन् उन शाश्वत सिद्धांतों पर दृढ़ निष्ठा रखते हुए उन्हें जीवन में उतार कर दिखा भी सकते हैं। यह अध्यात्म ज्ञान की ही शक्ति थी कि जिसके द्वारा उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया। उनका यह शौर्य व साहस ही उनके दिग्विजय का आधार बना था। एक नवयुवक द्वारा इस दुष्कर एवं महत्त कर्म को सम्पादित कर देना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। उनके जीवन के साथ ऐसी कई सत्य घटनाएं जुड़ी हुई हैं जिनमें उन्होंने मृत्यु और जीवन को समभाव से स्वीकार करने की तत्परता दिखायी थी।स्वामी जी के इस साहस की गाथा आज भी असंभव को संभव कर दिखाने की उमंगें सत्साहसियों के हृदय में उत्पन्न करती रहती हैं। इन्हीं के चरण चिह्नों पर चलकर सामान्य मानव महामानव बना करते हैं।(यु. नि. यो. फरवरी 1974 से संकलित)
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