
आत्म-विश्लेषण से सुधार
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पारस से लोहे का स्पर्श करने से सोना बनने की उक्ति की पृष्ठभूमि में कदाचित् यही तथ्य निहित होगा कि दुष्ट हृदय, समाज विरोधी व्यक्ति यदि अच्छे व्यक्तियों के संसर्ग-सान्निध्य में आ जायं तो उसकी जीवन धारा ही बदल जाय, उसका जीवन स्वयं के लिए भी व समाज के लिए भी बड़ा उपयोगी बन जाय।श्री नानक देव इसी प्रकार के एक अत्यंत ही उच्च कोटि के संत थे। उनके पास जो भी आता वह उनसे कुछ न कुछ प्रेरणा लेकर अवश्य ही जाता।भीखम डाकू के जीवन को भी नानक देव ने स्पर्श कर सोना बना दिया। घटना इस प्रकार घटित हुई। एक दिन संत एक सभा को संबोधित कर रहे थे। प्रवचन का विषय था—‘अस्तेय व अहिंसा।’ सभा खचाखच भरी थी। अपने प्रवचन में गुरु नानक ने कहा—‘‘भगवान ने जिसे जितना दिया है उसी में वह संतोष करे। मनुष्य को इस प्रकार के अपने विचार व क्रिया-पद्धति बनानी चाहिए कि अपने स्वयं के परिश्रम से नैतिकता पूर्वक जो अर्जन हो उसी के अनुरूप अपना जीवन स्तर बनावें। अपनी योग्यता व परिश्रम से अर्जित धन से अधिक व्यय करना स्तेय है। इससे मनुष्य में अनैतिक अर्जन की कामना घर करती है तथा अनैतिक अर्जन ही स्तेय है। अंधाधुंध अर्जन के लिए मनुष्य फिर अन्याय-अत्याचारपूर्ण कार्य करता है, दूसरों के साधनों-सुविधाओं का अपहरण करता है व अपने लिए उनका उपयोग करता है। अपना पेट भरने एवं अपने इस नश्वर शरीर के लिए मनुष्य मनुष्य का अपहरण करे, निर्दोष-निहत्थे प्राणियों से उनकी सुख सुविधाएं छीनकर और उन्हें अपनी अधिकारपूर्ण सम्पत्ति से विहीन कर उन्हें शारीरिक व मानसिक क्षति पहुंचाये इससे बड़ा कुकर्म और क्या हो सकता है। एक दिन मरना सभी को है। जब इस तरह के मनुष्य मरकर भगवान् के सम्मुख उपस्थित होंगे तो क्या उत्तर देंगे। हमें चाहिए हम किसी की हिंसा न करें, जहां तक बने दूसरों की सेवा ही करें और यदि इस शरीर से हम किसी को कोई सुख न दें, न सही, पर दुःख भी न दें।’’इस सभा में भीखम डाकू भी उपस्थित था। इन विचारों का उस पर बड़ा प्रभाव हुआ। उसको आत्मा उसे विचलित करने लगी, धिक्कारने लगी कि वह कितना नीच व घृणित काम करता है। वह डाकू तुरंत ही संत के पास गया, उनके चरणों में नतमस्तक हो उसने कहा—‘‘महाराज! मुझे अपने कर्मों पर पश्चाताप हो रहा है। आप मुझे कोई ऐसा रास्ता बतायें कि मेरी कुकर्म करने की, लूटपाट करने, डाका डालने की आदत छुट जाय।’’ गुरु नानक ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा—‘‘वत्स! तुम जो बुरा काम करते हो उसे छोड़ दो।’’ भीखम डाकू ने कहा—‘‘स्वामी जी! यदि मैं यह काम छोड़ दूंगा तो मेरी जीविका कैसे चलेगी?’’ नानक ने मार्ग बताया—‘‘अच्छा, तुम यह मत छोड़ो परंतु एक काम करो—तुम नित्य ही सोने के पहले मेरे पास आकर बताया करो कि तुमने क्या-क्या काम किए हैं।’’ भीखम तैयार हो गया।परंतु भीखम डाकू तीन दिन तक नानक के पास नहीं आया। वह इन दिनों बराबर यही सोचता रहा कि उसके द्वारा किए जाने वाले कुकृत्य इतने घृणित हैं कि उसे संत को बताने में लज्जा होती है। भीखम डाकू के मन में उभरने वाले ये ही विचार उसके परिष्कार का प्रारंभ था। उसने संकल्प किया कि इस तरह के लज्जाप्रद काम वह भविष्य में कदापि नहीं करेगा। यह निश्चय कर वह नानक देव के पास गया व उसने अपने पूरे कुकृत्यों का विवरण प्रस्तुत कर दिया। साथ ही उसने वचन दिया कि वह अब कदापि ऐसे कार्य नहीं करेगा।भीखम के व्यक्तित्व में इस परिवर्तन के पीछे थी तो उसके अंतर्मन द्वारा किए गए आत्म-विश्लेषण के पश्चात उत्पन्न उसकी दृढ़ संकल्पशीलता ही। परंतु सहारा उसे था एक संत के संसर्ग से प्राप्त आत्म-शक्ति का। इसे चाहे किसी की कृपा माना जाय अथवा अनुदान परंतु थी वह सशक्त प्रेरणा ही जो किसी जीवंत अंतःकरण, संत हृदय और उदार मन से ही प्रस्फुटित हो सकती है, हर किसी से नहीं।