
जाति द्रोह का प्रतिफल
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वीर शिवाजी और औरंगजेब के मध्य बीजापुर के शासक मसऊद खां के विरुद्ध सम्मिलित युद्ध अभियान की संधि हो गई। संधि की शर्तों के अनुसार शिवाजी को अपने पुत्र संभाजी को मुगल दरबार में रेहन रखना पड़ा। मराठे औरंगजेब की कूटनीति जानते थे। अतएव वे मुगल-मराठा संधि के पक्ष में नहीं थे। संभाजी का मुगल दरबार में बंधक रखना तो और भी अपमानपूर्ण लगा किन्तु शिवाजी को मराठों की वीरता पर विश्वास था इसलिए संधि शर्तों के पालन में कोई दिक्कत न आई। मुगल सल्तनत में प्रवेश के साथ ही संभाजी की पहली दृष्टि पड़ी सुरा और सुंदरियों पर। कर्म के दूरवर्ती परिणामों पर विवेकजन्य विचार न करने वालों, इन्द्रियों के आकर्षणों पर अंकुश न रख सकने वालों के समान ही संभाजी का भी इस तरह पतन प्रारंभ हुआ और उसका अंत अपने पिता के प्रति विद्रोह के रूप में आ प्रस्तुत हुआ।संभाजी को मालूम था कि दुश्चरित्रता भारतीयों में सबसे बड़ा अपराध होती है। शासक और मार्गदर्शक के लिए तो वह अक्षम्य भी होती है। एक बार स्थिति बिगड़ जाने पर सत्ता का उत्तराधिकार प्राप्त करना भी अनिश्चित था। अतएव संभा पूरी तरह पाप पंक में डूब गए। वासना के कुचक्र में ही नहीं फंसे वरन् उन्होंने राष्ट्र घात भी किया। औरंगजेब को पिता की सेना, दुर्ग, कोष के ठिकानों का सारा अता-पता दे दिया। भारतीय इतिहासज्ञों का कथन है कि यह सब औरंगजेब के संकेतों पर हुआ किन्तु दोष संभाजी को ही दिया जाना चाहिए जो बुद्धिमान होकर भी विवेक स्थिर न रख सके। यह जानते हुए भी कि वासना और राष्ट्रघात दोनों पतन के घर हैं—अपने आपको वे नियंत्रित न कर सके।औरंगजेब ने निश्चय किया कि अब बीजापुर विजय का श्रेय अकेले ही लूटना चाहिए। सो उसने संभाजी को लालच देकर लड़ने के लिए राजी कर लिया। शिवाजी के साथ हुई शर्त उसने ठुकरा दी और अपने क्रूर सेनापति दिलेर खां के साथ संभाजी को बीजापुर युद्ध में भेज दिया। शिवाजी मर्माहत हो उठे। बदला लेने के लिए उन्होंने बीजापुर नरेश का साथ दिया और अपने पुत्र व दिलेर खां के विरुद्ध मसऊद खां के साथ लड़ाई में भाग लेकर मुगल सेना को परास्त कर दिया।वे संभाजी को पकड़ना चाहते थे पर वह दिलेर खां के साथ पहले ही लड़ाई का मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ। भारतीय लड़ाइयों में यवन शासकों की अधिकांश पराजय का कारण उनकी चरित्र हीनता ही रही है जिसके कारण साहस और बल की दृष्टि से वे सदैव खोखले ही रहे और इस तरह प्रायः प्रत्येक युद्ध हारते रहे।हार का बदला क्रूरता—यह उनका दूसरा सिद्धांत था। दिलेर खां जो कभी संभाजी का बड़ा मित्र बनता था, संभाजी की सहायक मराठी सेना को नष्ट हुआ देखकर छल कर बैठा। मार्ग में तिकोटा पड़ता था। यह स्थान मराठी सल्तनत का भाग थी और संभाजी यहां के बच्चे-बच्चे से परिचित थे। इन सबके बावजूद दिलेर खां ने नृशंसता की और मुगल सैनिकों ने तिकोटा को खूब जी भर कर लूटा।संध्या हुई। संभा विचारमग्न लेटे हुए थे तभी पास के कोने से कराहने की आवाज आई। स्वयं उठकर देखने की हिम्मत नहीं थी तभी क्रूर हंसी के साथ दिलेर खां प्रविष्ट हुआ और संभाजी को उस खेमे में पकड़ ले गया जहां सैकड़ों भारतीय ललनाओं को बंदी बनाकर उनके साथ अमानुषिक अत्याचार किया जा रहा था। संभाजी अपनी ही बहनों पर अत्याचार होते देखकर सिहर उठे, हृदय चीत्कार कर उठा। पर एक राष्ट्रघाती शर्म से सिर झुका लेने के अतिरिक्त कर भी क्या सकता था।प्रायश्चित उनकी धर्म पत्नी येसुबाई ने सुझाया। उसी रात संभाजी मुगलों के चंगुल से भाग निकले। पिता ने इन्हें क्षमा भी कर दिया पर जो भूल हो चुकी थी, जिसके कारण उन्होंने अपनी आंखों से अपनी संस्कृति को अपमानित होते देखा था उसके पश्चाताप की आग में वे मृत्यु पर्यंत झुलसते रहे।(यु. नि. यो. जनवरी 1973 से संकलित)***
जब सिंह जाग उठा*******विजय राघो गढ़ के अवयस्क महाराज के लिए सभी सुख-सुविधाओं का प्रबंध था। विलासी और अकर्मण्य बनाने के सभी साधन उपलब्ध थे। अंग्रेज यही चाहते थे कि भारतीय अपने व्यक्तिगत सुख-सुविधा व विलास में डूबे रहकर देश की रक्षा और स्वतंत्रता की ओर ध्यान न दें।किशोर महाराज सरजूदास को समय की बहती हवा से बचाने के लिए न तो विजय राघोगढ़ का परकोटा ही काफी था, न तहसीलदार मीर साबित अली का काइयांपन और न राज्य का प्रबंधक जबलपुर का डिप्टी कमिश्नर कैप्टन क्लार्क ही।सन् 1857 की क्रांति का समाचार इन सब प्राचीरों को फांदकर किशोर सरजूदास के पास पहुंच चुका था। विलासिता से उसे बचपन से ही घृणा थी। वह अपने शरीर को आरामतलब नहीं कष्ट सहिष्णु बनाना चाहता था। उसने मीर साबित अली और कैप्टन क्लार्क के नहीं चाहते हुए भी घुड़सवारी तथा तलवार चलाना सीखा था। उसके भारतीय रक्त में उबाल आए बिना न रह सका।सरजूदास ने देखा कि मुझे किसी बात की कमी नहीं है। मनमाना खर्च करने को धन मिलता है तो क्या, पर उसके उद्गम का स्रोत तो यही भारतीय जनता है।हमारे ही देश में ये विदेशी अंग्रेज आज हमें अपमानित कर रहे हैं। नागपुर के मराठा साम्राज्य के रनिवास के हीरे-जवाहरात इन्होंने कलकत्ते के बाजार में कौड़ियों के मोल बेच दिए। गढ़ मंडला के राजा व उसके पुत्र को इन्होंने तोपों के मुंह पर बांधकर उड़वा दिया। क्रांतिकारियों के शव यत्र-तत्र मरे चमगादड़ की तरह वृक्षों पर टांगने वाले ये विदेशी एक दिन यहां आश्रय मांगने ही तो आए थे। हमारे व्यक्तिगत सुख की चाह और स्वार्थ ने इस स्वर्ण भूमि को श्मशान बना दिया। ऐसी अकर्मण्यता को धिक्कार है। इस राज्य से तो गरीबी भली।सत्रह वर्ष के इस किशोर ने आवेश में आकर खड्ग थाम ली। मैं इनका दमन करूंगा। आजादी के लिए अलख जगाऊंगा, न स्वयं चैन से बैठूंगा न आतताइयों को चैन से बैठने दूंगा।यों तो सन् 57 की क्रांति में कई राजाओं ने भाग लिया था। उनमें विशुद्ध देश-प्रेम से प्रेरित होकर संघर्ष करने वाले सेनानायक कम ही थे अधिकांश देश प्रेम के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर भी लड़े थे। सरजूदास तात्याटोपे की श्रेणी के क्रांतिकारी थे जो विशुद्ध देश प्रेम से प्रेरित होकर इस आग में कूद पड़े थे। उसने गढ़ के पुराने हथियारों को तेज कराना तथा नये हथियार बनवाना आरंभ कर दिया। युवकों को अपनी सेना में भर्ती होने के लिए तैयार करना आरंभ कर दिया।उन्हें अपने खर्च के लिए जबलपुर के कमिश्नर पर निर्भर रहना पड़ता था। उससे अधिक धन मांग नहीं सकते थे। अतः उन्होंने अपने वस्त्राभूषण तक बेचकर अपनी तैयारी में लगा दिए।तहसीलदार मीर साबित अली के कानों में जब यह भनक पड़ी तो वह सरजूदास को समझाने के लिए उसके पास पहुंचे। उसने कहा—‘‘कुंवर जू, आप इन खतरनाक हथियारों से क्यों खेलते हैं जबकि हमने आपके साथ खेलने के लिए अन्य कई जीते-जागते खिलौने रख छोड़े हैं।’’‘‘मीर साहब! यूं ही बिगड़ रहे हैं, थोड़ी देखभाल करनी भी तो जरूरी थी।’’ सरजूदास ने कहा। मीर ने ताड़ लिया कि अब शेर जाग चुका है। पिंजड़े में बंद कर देना ही ठीक है। नहीं तो फिर काबू में नहीं आयेगा। उसने समझाने के स्वर में कहा—‘‘कुंवर जू, जानते हो इसकी शिकायत कमिश्नर तक पहुंचे तो क्या होगा ?’’ सरजू ने देखा कि यह काइयां अब कुछ गुल खिलायेगा। उसने अपना मंतव्य उसे बता दिया, साथ ही उसे द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। कुछ ही देर में मीर का माथा जमीन चाट रहा था।आतताइयों का प्रतिकार करना मानव धर्म है। सफल होने या असफल होने की चिंता करने वाला इस धर्म का पालन नहीं कर सकता। सरजूदास ने भी इस धर्म को अंगीकार किया था।मीर की मृत्यु का संचार जब जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर क्लार्क को मिला तो उसने सैनिकों को सरजूदास को बंदी बनाने भेजा। सरजूदास से मुठभेड़ में सिपाही मारे गए, रसद लूट ली गई। इस सफलता ने उसका साहस बढ़ा दिया और उसके सहायकों की संख्या भी बढ़ गई।सरजूदास जंगलों में अपने साथियों सहित जा छिपे तथा जबलपुर-मिर्जापुर मार्ग व कलकत्ता-बंबई मार्ग पर आने-जाने वाली अंग्रेजी रसद, डाक व खजाना लूटकर अपनी शक्ति बढ़ा ली।थोड़े से साथियों के बल पर पूरे 8 वर्ष तक इस नर केसरी ने अंग्रेजों की नाकों में दम कर दिया। समय-कुसमय छावनियों पर धावा मारकर अंग्रेजी सैनिकों को मौत के घाट उतार देता तथा सरकारी रकम लूट लेता, उनके हिमायतियों को खुले आम दंड देता और वापस पहाड़ों में चला जाता।सात वर्षों तक अपने क्षेत्र का वह राजा ही बनकर रहा। अंग्रेजों के लिए वह हौवा बन गया था। सरकारी शासन व व्यवस्था उसके सामने कुछ माने ही नहीं रखती थी।जहां देश के लिए प्राण हथेली पर रखकर आतताइयों से जूझने वाले सरजूदास जैसे सर्वस्व त्यागी होते हैं, वहां देश-द्रोही भी होते हैं। सात वर्ष तक जिस वीर की छाया भी अंग्रेज न पा सके उसे एक देश-द्रोही ने धोखे से सोते समय पकड़वा दिया।सरजूदास को कुछ वर्ष तक जबलपुर की कैद में रखा गया फिर मृत्यु दंड दिया गया। कमिश्नर अर्सिकन की पुत्री ने जब इसे हथकड़ी-बेड़ी में देखा तो उसकी वीरता के सम्मान में उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े। यह देशभक्त के प्रति श्रद्धा के आंसू थे।खाने-खेलने की उम्र में अपनी सब सुख-सुविधाओं को त्यागकर अपनी आत्मा की पुकार पर मरने-जीने वाले इस वीर की कहानी जब तक इतिहास के पन्नों पर अंकित रहेगी समय की पुकार पर मरने-जीने वालों की कमी न रहेगी।(यु. नि. यो. नबंबर 1972 से संकलित)***
जब सिंह जाग उठा*******विजय राघो गढ़ के अवयस्क महाराज के लिए सभी सुख-सुविधाओं का प्रबंध था। विलासी और अकर्मण्य बनाने के सभी साधन उपलब्ध थे। अंग्रेज यही चाहते थे कि भारतीय अपने व्यक्तिगत सुख-सुविधा व विलास में डूबे रहकर देश की रक्षा और स्वतंत्रता की ओर ध्यान न दें।किशोर महाराज सरजूदास को समय की बहती हवा से बचाने के लिए न तो विजय राघोगढ़ का परकोटा ही काफी था, न तहसीलदार मीर साबित अली का काइयांपन और न राज्य का प्रबंधक जबलपुर का डिप्टी कमिश्नर कैप्टन क्लार्क ही।सन् 1857 की क्रांति का समाचार इन सब प्राचीरों को फांदकर किशोर सरजूदास के पास पहुंच चुका था। विलासिता से उसे बचपन से ही घृणा थी। वह अपने शरीर को आरामतलब नहीं कष्ट सहिष्णु बनाना चाहता था। उसने मीर साबित अली और कैप्टन क्लार्क के नहीं चाहते हुए भी घुड़सवारी तथा तलवार चलाना सीखा था। उसके भारतीय रक्त में उबाल आए बिना न रह सका।सरजूदास ने देखा कि मुझे किसी बात की कमी नहीं है। मनमाना खर्च करने को धन मिलता है तो क्या, पर उसके उद्गम का स्रोत तो यही भारतीय जनता है।हमारे ही देश में ये विदेशी अंग्रेज आज हमें अपमानित कर रहे हैं। नागपुर के मराठा साम्राज्य के रनिवास के हीरे-जवाहरात इन्होंने कलकत्ते के बाजार में कौड़ियों के मोल बेच दिए। गढ़ मंडला के राजा व उसके पुत्र को इन्होंने तोपों के मुंह पर बांधकर उड़वा दिया। क्रांतिकारियों के शव यत्र-तत्र मरे चमगादड़ की तरह वृक्षों पर टांगने वाले ये विदेशी एक दिन यहां आश्रय मांगने ही तो आए थे। हमारे व्यक्तिगत सुख की चाह और स्वार्थ ने इस स्वर्ण भूमि को श्मशान बना दिया। ऐसी अकर्मण्यता को धिक्कार है। इस राज्य से तो गरीबी भली।सत्रह वर्ष के इस किशोर ने आवेश में आकर खड्ग थाम ली। मैं इनका दमन करूंगा। आजादी के लिए अलख जगाऊंगा, न स्वयं चैन से बैठूंगा न आतताइयों को चैन से बैठने दूंगा।यों तो सन् 57 की क्रांति में कई राजाओं ने भाग लिया था। उनमें विशुद्ध देश-प्रेम से प्रेरित होकर संघर्ष करने वाले सेनानायक कम ही थे अधिकांश देश प्रेम के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर भी लड़े थे। सरजूदास तात्याटोपे की श्रेणी के क्रांतिकारी थे जो विशुद्ध देश प्रेम से प्रेरित होकर इस आग में कूद पड़े थे। उसने गढ़ के पुराने हथियारों को तेज कराना तथा नये हथियार बनवाना आरंभ कर दिया। युवकों को अपनी सेना में भर्ती होने के लिए तैयार करना आरंभ कर दिया।उन्हें अपने खर्च के लिए जबलपुर के कमिश्नर पर निर्भर रहना पड़ता था। उससे अधिक धन मांग नहीं सकते थे। अतः उन्होंने अपने वस्त्राभूषण तक बेचकर अपनी तैयारी में लगा दिए।तहसीलदार मीर साबित अली के कानों में जब यह भनक पड़ी तो वह सरजूदास को समझाने के लिए उसके पास पहुंचे। उसने कहा—‘‘कुंवर जू, आप इन खतरनाक हथियारों से क्यों खेलते हैं जबकि हमने आपके साथ खेलने के लिए अन्य कई जीते-जागते खिलौने रख छोड़े हैं।’’‘‘मीर साहब! यूं ही बिगड़ रहे हैं, थोड़ी देखभाल करनी भी तो जरूरी थी।’’ सरजूदास ने कहा। मीर ने ताड़ लिया कि अब शेर जाग चुका है। पिंजड़े में बंद कर देना ही ठीक है। नहीं तो फिर काबू में नहीं आयेगा। उसने समझाने के स्वर में कहा—‘‘कुंवर जू, जानते हो इसकी शिकायत कमिश्नर तक पहुंचे तो क्या होगा ?’’ सरजू ने देखा कि यह काइयां अब कुछ गुल खिलायेगा। उसने अपना मंतव्य उसे बता दिया, साथ ही उसे द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। कुछ ही देर में मीर का माथा जमीन चाट रहा था।आतताइयों का प्रतिकार करना मानव धर्म है। सफल होने या असफल होने की चिंता करने वाला इस धर्म का पालन नहीं कर सकता। सरजूदास ने भी इस धर्म को अंगीकार किया था।मीर की मृत्यु का संचार जब जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर क्लार्क को मिला तो उसने सैनिकों को सरजूदास को बंदी बनाने भेजा। सरजूदास से मुठभेड़ में सिपाही मारे गए, रसद लूट ली गई। इस सफलता ने उसका साहस बढ़ा दिया और उसके सहायकों की संख्या भी बढ़ गई।सरजूदास जंगलों में अपने साथियों सहित जा छिपे तथा जबलपुर-मिर्जापुर मार्ग व कलकत्ता-बंबई मार्ग पर आने-जाने वाली अंग्रेजी रसद, डाक व खजाना लूटकर अपनी शक्ति बढ़ा ली।थोड़े से साथियों के बल पर पूरे 8 वर्ष तक इस नर केसरी ने अंग्रेजों की नाकों में दम कर दिया। समय-कुसमय छावनियों पर धावा मारकर अंग्रेजी सैनिकों को मौत के घाट उतार देता तथा सरकारी रकम लूट लेता, उनके हिमायतियों को खुले आम दंड देता और वापस पहाड़ों में चला जाता।सात वर्षों तक अपने क्षेत्र का वह राजा ही बनकर रहा। अंग्रेजों के लिए वह हौवा बन गया था। सरकारी शासन व व्यवस्था उसके सामने कुछ माने ही नहीं रखती थी।जहां देश के लिए प्राण हथेली पर रखकर आतताइयों से जूझने वाले सरजूदास जैसे सर्वस्व त्यागी होते हैं, वहां देश-द्रोही भी होते हैं। सात वर्ष तक जिस वीर की छाया भी अंग्रेज न पा सके उसे एक देश-द्रोही ने धोखे से सोते समय पकड़वा दिया।सरजूदास को कुछ वर्ष तक जबलपुर की कैद में रखा गया फिर मृत्यु दंड दिया गया। कमिश्नर अर्सिकन की पुत्री ने जब इसे हथकड़ी-बेड़ी में देखा तो उसकी वीरता के सम्मान में उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े। यह देशभक्त के प्रति श्रद्धा के आंसू थे।खाने-खेलने की उम्र में अपनी सब सुख-सुविधाओं को त्यागकर अपनी आत्मा की पुकार पर मरने-जीने वाले इस वीर की कहानी जब तक इतिहास के पन्नों पर अंकित रहेगी समय की पुकार पर मरने-जीने वालों की कमी न रहेगी।(यु. नि. यो. नबंबर 1972 से संकलित)***