
पर दारेषु मातृवत्
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उन दिनों शिवाजी मुगल छावनियों पर छापामार पद्धति से धावा बोलते थे। ऐसे ही एक समय की बात है। शिवाजी ने एक मुगल छावनी पर धावा बोला। विजय मराठी सेना के वीर जवानों की हुई। प्रतिपक्षी सैनिक घर, स्त्री, परिवार और बच्चों को छोड़कर भाग निकले। मुगल सेनापति बहलोल खां भी अपनी जान बचाकर भाग गया।संध्या समय शिवाजी अपने युद्ध शिविर में बैठे हुए थे। सैनिक और सेनानायक लूट में अर्जित किया गया धन और स्वर्ण मुद्राएं ला लाकर शिवाजी के सामने ढेर लगाने लगे। आततायी मुगलों ने जो सम्पत्ति हिन्दू राजाओं और धनपतियों से लूटकर अर्जित की थी उसे वापस छीनना अनुचित नहीं था। विषधर सर्प को ठीक करने का इससे अच्छा और सम्भव तरीका दूसरा नहीं हो सकता।शिवाजी लूट में लाई गयी धन-दौलत का निरीक्षण कर रहे थे। इसी दौरान एक सेनानायक ने तंबू में प्रवेश किया। उसके पीछे सिर से पैर तक बुर्के से लदी एक स्त्री थी, भय से थर-थर कांपती हुई।उन्होंने स्त्री को देखा और उसे लाने वाले सरदार की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि की। सरदार ने आगे बढ़कर स्त्री का बुर्का उलट दिया। अप्रतिम सुंदरी स्त्री के चेहरे पर भय की रेखाएं खिंच गयीं। मुगल सरदारों ने अनेकानेक हिन्दू स्त्रियों का शील हरण किया था। अपने ही साथ के लोगों द्वारा यह अनाचार होते देखकर तो उसका हृदय भी एक बारगी सिहर उठता था। परंतु लाचार और परवश स्थिति में क्या किया जा सकता था। अपने सजातीय प्राणी पर होने वाले कुकृत्यों की मर्म वेदना को जब अपने साथ तौलती तो उसके हृदय से कराह निकल जाती। परंतु वह तो निरी कल्पना थी। आज उस कल्पना के साक्षात् होने का भय उसे सूखे पत्ते की तरह थर-थर कंपा रहा था।शिवाजी ने स्त्री की ओर बिना देखे ही सरदार से पूछा—‘‘क्या बात है?’’सरदार ने कहा—‘‘यह मुगल सेनानायक बहलोल खां की पत्नी है। इन म्लेच्छों ने असंख्य हिन्दू माताओं का शील हरण किया है। उसका प्रतिशोध चुकाया जा सके इसीलिए मैंने यह काम किया।’’शिवाजी ने अब पीली पड़ी हुई स्त्री की ओर देखा, फिर बोले—‘‘काश, मैं तुम्हारी कोख से जन्म लेता तो मैं भी इतना ही सुंदर होता। देवी! तुम डरो मत। शिवा ने पर स्त्री को माता माना है, वह अपनी बहनों पर होने वाले अनाचार का उसी प्रकार प्रतिकार नहीं करेगा।’’फिर वे सरदार की ओर उन्मुख होकर बोले—‘‘तुम वीरता को अभी तक नहीं समझ सके हो। अभी तक तुमने मुझे भी नहीं पहचाना है।’’मुगल सेनापति की बेगम को शिवाजी ने उदारतापूर्वक लौटा दिया। इससे वह स्त्री और मुगल सेनाधिकारी बहुत प्रभावित हुए। सरदार ने दिल्ली लौटने से पूर्व शिवाजी के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की। विशेष दूत द्वारा यह समाचार भेजा गया। शिवाजी ने भेंट करना स्वीकार कर लिया और निःशस्त्र आने की बात तय हुई। बहलोल खां जब शिवाजी से मिलने आया तो उनके तेजोद्दीप्त मुख मंडल के आगे उसे स्वयं का अस्तित्व झींगुर के समान लग। उसके मुंह से अनायास ही यह संबोधन निकला—‘फरिश्ता’।हजारों निरपराध प्राणियों के रक्तपात और स्त्रियों के सतीत्व लूटने के अनाचारों को स्मरण कर उसका हृदय ग्लानि से भर आया। शिवाजी से उसने अपनी मनोव्यथा कही।शिवाजी ने पश्चाताप से पवित्र हुए हृदय को सांत्वना दी और बहलोल खां को गले से लगा लिया। बहलोल ने इसके बाद मुगल-शासन की सेवा छोड़ दी।(यु. नि. यो. अगस्त 1973 से संकलित)