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Books - देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर (चतुर्थ भाग)

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परिश्रम की कमाई में आस्थावान रैदास

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भक्त रैदास के बारे में एक किंवदंती इस प्रकार है। रैदास फटे जूते की सिलाई में ऐसे तल्लीन थे कि सामने कौन खड़ा है—इसका उन्हें पता न चला। आगंतुक भी कब तक प्रतीक्षा करता, उसने खांसकर रैदास का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। रैदास ने दृष्टि ऊपर उठाई। सामने एक भद्र पुरुष को प्रतीक्षारत देख वह हड़बड़ा कर खड़े हो गए और विनम्र शब्दों में बोले—‘‘क्षमा कीजिए। मेरा ध्यान काम में था। मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’’क्षमा की बात सुनते ही आगंतुक को हंसी आ गई—‘‘मैं तो अपने ही काम से आया हूं अतः क्षमा का प्रश्न ही क्या? मेरे पास पारस है। मैं आगे कुछ आवश्यक कार्य से जा रहा हूं। कहीं खो न जाये इसलिए इसे अपने पास रख लो। मैं शाम तक लौटूंगा तब वापस ले लूंगा। हां, एक बात और। इतना तो तुम जानते ही हो कि पारस के स्पर्श से लौह धातु स्वर्ण में बदल जाती है। यदि तुम चाहो तो अपनी रांपी को स्पर्श कराकर सोने का बना सकते हो। इसमें मुझे कोई आपत्ति न होगी।’’‘‘पारस आप शौक से छोड़ जाइये और जब लौटकर आवें तब साथ लेते जाइये। इतना कार्य तो मैं आपका कर सकता हूं पर दूसरी आज्ञा मानने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। मैं ठहरा चमार। मरे पशुओं की खाल को साफ करता हूं, फिर उसे काटकर जूते बनाता हूं। इस काम में कड़ी धातु के औजार की ही आवश्यकता पड़ती है। सोना नरम होता है। यदि उसकी रांपी बनाऊंगा तो एक ही झटके में मुड़ जायेगी और दिन भर की मजदूरी से वंचित रह जाऊंगा।’’‘‘सोने को बेचकर तो तुम दैनिक जीवन के उपयोग की अनेक वस्तुएं खरीद सकते हो। फिर सड़क के किनारे बैठकर इस धंधे को करने की भी आवश्यकता न रहेगी। कोई भी इज्जतदार व्यवसाय की शुरूआत कर सकते हो’’—आगंतुक ने पुनः अपने आग्रह को दुहराया।यह आगंतुक कोई साधारण व्यक्ति नहीं वरन् देवराज इंद्र थे। दीर्घकाल से वह रैदास की आदर्श भक्ति और निर्लोभी स्वभाव के संबंध में अनेक चर्चाएं सुनते आ रहे थे। आज उनकी इच्छा हुई कि ऐसे भक्त के दर्शन करने का सुअवसर प्राप्त किया जाये। वे वेष बदलकर उनकी परीक्षा करने ही आए थे।रैदास ने पारस लौटाते हुए स्पष्ट शब्दों में कह दिया—‘‘महोदय! मैं ईमानदारी और परिश्रम की कमाई में ही विश्वास करता हूं। सुबह से शाम तक किए गए कर्मों के बदले जो पारिश्रमिक मिलता है वही मेरे लिए पर्याप्त है। इस प्रकार अनुदान में मिली कोई वस्तु मुझे स्वीकार नहीं।’’अब इंद्र क्या कहते? पारस वापस ले लिया और मन ही मन भक्त के निर्लोभी स्वभाव की सराहना करते हुए लौट गए। भक्ति और आस्तिकता ईश्वर पर निर्भरता तो लाती है परंतु व्यक्ति की परिश्रम और पुरुषार्थ में निष्ठा छीनती नहीं, उसे सुदृढ़ ही बनाती है। प्रायः देखा जाता है कि आलसी और अकर्मण्य लोग ईश्वर भक्ति का बाना पहनकर अपने भोजन और निर्वाह की आवश्यकतायें भी ईश्वर से पूरी होने की आशा करते हैं। स्पष्ट ही यह स्वयं को ईश्वर का सेवक बनाना नहीं है वरन् आशय यही है कि ईश्वर हमारा, सेवक बन जाय। ऐसे व्यक्तियों को ईश्वर का प्रवंचक ही कहा जायगा। ईश्वर के प्रति विश्वास तो लौकिक जीवन में भी पुरुषार्थवादी और श्रमशील बनाता है। दूसरे निर्लिप्त भक्ति भी रैदास के आदर्श द्वारा व्यक्त होती है जो यह प्रतिपादित करती है कि सच्चे ईश्वर भक्त को अपने प्रयत्न और पुरुषार्थ के बल पर जो मिले उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। मुफ्त के, बिना परिश्रम से अनायास ही आ उपस्थित हुए लाभों की उसे न आवश्यकता होती है और न अपेक्षा रहती है।(यु. नि. यो. फरवरी 1975 से संकलित)
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