
दिग्विजयी शंकराचार्य की पराजय
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‘‘तुम्हारे शरीर का स्पर्श होने से मैं अपवित्र हो जाऊंगा। रास्ता छोड़ दो। मैं स्नान कर चुका हूं’’—तरुण संन्यासी जगद्गुरु शंकराचार्य ने रोब और आदेश के स्वर में कहा।रास्ता रोककर खड़े उस व्यक्ति ने पूछा—‘‘क्यों महाराज ऐसा क्यों? मुझे स्पर्श करने से आप अपवित्र क्यों हो जायेंगे? क्या मैंने स्नान नहीं किया, क्या मेरे वस्त्र अस्वच्छ हैं?’’‘‘नहीं भाई! यह बात नहीं, तुम जानते हो मैं ब्राह्मण हूं और तुम स्वपच (भंगी)। ब्राह्मण के लिए हरिजन को स्पर्श वर्जित है’’—शंकराचार्य ने उसी आदेशात्मक स्वर में उत्तर दिया किन्तु स्वपच आगे से हटा नहीं। लगता था आज वह स्वपच भी यह निर्णय कराने के लिए ही वहां आकर खड़ा हुआ था कि क्या सचमुच हरिजन कुल में जन्मा व्यक्ति अस्पृश्य होता है और ब्राह्मण के घर में जन्मा पूर्ण पवित्र।सदियों से चली आ रही इस भ्रांति का एक बार हिन्दू जनता शास्त्रीय आधार पर विवेचन कर डालती, आर्ष मान्यताओं को मूढ़ हठ त्यागकर स्वीकार कर लेती, तो आज हिन्दू जाति ऐसी विशृंखलित न होती। बाह्य आक्रमणकारी छूत-अछूत का लाभ लेकर ही विजयी हुए। करोड़ों हिन्दू ईसाई और मुसलमान बनते चले गए, सारे विश्व में फैली हिन्दू जाति आज अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनकर रह गई। छुआछूत के कारण ही सवर्णों ने धर्म-कर्तव्य की अवहेलना की अन्यथा शुद्ध वर्णाश्रम संस्कृति का कभी ह्रास न होता।जगद्गुरु के ऐसा कहते ही स्वपच पूछ बैठा—‘‘महात्मन! सुना है आप शास्त्रज्ञ हैं, आपने ‘अद्वैतवाद’ का सारे देश में प्रचार किया है। क्या आप अद्वैत शब्द की व्याख्या कर सकते हैं?’’ हरिजन-स्वपच की वाणी में ओज था पर माधुर्य भी था, विनय थी और सत्याग्रह भी। शंकराचार्य के शिष्य और स्वयं शंकराचार्य भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सके।‘एकोब्रह्म द्वितीयोनास्ति’ अद्वैत इस सूक्त से ही प्रादुर्भूत सत्य है तात्, जिसका अर्थ है संसार में जो कुछ चेतना है वह ब्रह्म ही है। वह एक ब्रह्म ही विराट् जगत में छाया है। उसके अतिरिक्त और सब माया है’’—शंकराचार्य ने उत्तर दिया।स्वपच अब हंसकर रास्ता छोड़कर एक ओर खड़ा हो गया और मुस्कराते हुए बोला—‘‘यदि वर्ण विभेद स्वाभाविक और शास्त्रीय विधान है तो क्या वज्र सूचिकोपनिषद का शास्त्रकार झूठा है, जिसमें कहा गया है—‘ब्राह्मण चेतना नहीं हो सकती क्योंकि चेतना तो सर्प, बिच्छू, गाय, बैल, भैंस में भी है। देह ब्राह्मण नहीं क्योंकि सम्पूर्ण चेतन सृष्टि पंचभौतिक पदार्थों से बनी है। ऐसा होता तो शव दाह से ब्रह्म हत्या का दोष न लगता? ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं क्योंकि वेद-शास्त्रों का पारंगत तो कोई क्षत्रिय भी हो सकता है। महात्मन! उपनिषदकार का यह कथन कि ‘मनुष्य चाहे कितने ही उच्च सवर्ण कुल में पैदा हुआ हो यदि वह सद्गुणी और सत्कर्म करने वाला नहीं, अष्टांग धर्म कर्तव्यों का पालन करने वाला नहीं तो वह ब्राह्मण नहीं। शास्त्रकार की इस मान्यता के विरुद्ध हरिजन कुल में जन्मे को हरिजन मानना क्या उचित है और क्या सभी ब्राह्मण ब्राह्मण हो सकते हैं? यदि ऐसा नहीं तो मुझ धर्म में, आचरण में निष्ठा रखने वाले को आप अस्पृश्य कैसे कह सकते हैं।’’ शंकराचार्य स्तब्ध रह गए। उन्होंने स्वपच के चरण स्पर्श करते हुए कहा—‘‘महापुरुष! समदर्शी हुए बिना कोई पंडित नहीं हो सकता। अपनी पराजय स्वीकार करता हूं। तुमने मेरी भूल सुधार दी, इसके लिए तुम्हारा ऋणी हूं।’’ तत्काल ही भगवान शंकर स्वपच का कलेवर त्याग अपना असली स्वरूप दर्शाते हुए अंतर्धान हो गए। उस दिन से जगद्गुरु शंकराचार्य ने छूत-अछूत का भेद-भाव त्याग दिया।(यु. नि. यो. अक्टूबर 1969 से संकलित)