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Books - देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर (चतुर्थ भाग)

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राष्ट्र का सच्चा प्रहरी

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First 6 8 Last
दशाब्दियों पूर्व देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। छोटे-छोटे प्रदेशों के राजा आपस में आए दिन लड़ते रहते थे। अकारण भी उनमें युद्ध छिड़ जाते तथा अगणित व्यक्तियों को अहंप्रेरित उस संघर्ष के कारण जान से हाथ धोना पड़ता था। उन दिनों तमिल प्रदेश भी दो राज्यों में विभाजित था। एक का राजा था विल्लवलवन तथा दूसरे का मलयमान। दोनों एक दूसरे के कट्टर शत्रु बन गए थे। अचानक युद्ध छिड़ा जिसमें मलयमान हारकर भाग निकला। पर बदले की आग में विल्लवलवन बुरी तरह जल रहा था। विदग्ध अंतःकरण की संवेदनाएं उस आतप से जलकर समाप्त हो गयीं। स्थानापन्न बनीं निष्ठुरता और बर्बरता।विल्लवलवन ने शत्रु प्रदेश के नर-नारियों, बच्चों को मरवाना शुरू किया। उन मासूमों को हाथियों के पैरों तले कुचलवा दिया जाता था। नित्य ही यह अमानवीय कृत्य चलने लगी। उनके बीच उस राजा का क्रूर अट्टहास गूंजता था। सर्वत्र भय का, आतंक का, निराशा का वातावरण बन गया। कब, किस बेगुनाह की बारी आ जाय, यह किसी को नहीं मालूम था। विल्लवलवन की प्रजा भी मूक दर्शक की भांति वह आसुरी लीला देखती रहती पर किसी में साहस न था कि वह उस अमानवीय कृत्य का विरोध कर सके। शत्रुता तो मलयमान से थी, निरीह, निरपराध लोगों को मारने से क्या लाभ, इस बात की पीड़ा तो हर व्यक्ति के मन में उठती थी, पर उनमें से किसी में साहस नहीं उभर रहा था कि उसे व्यक्त कर सकें।उस दिन मलयमान के तीन छोटे बच्चे शत्रु सैनिकों के हाथ पड़ गए। राजा के सामने लाए गए। ‘इन्हें मस्त पागल हाथी के पांवों तले कुचलवा दिया जाय’—उसने सैनिकों को आदेश दिया। बच्चे उस आदेश को सुनकर फूट-फूट कर रोने लगे पर उसे थोड़ी-सी भी दया नहीं आयी।एक विशाल मैदान में भारी भीड़ उस हृदय विदारक दृश्य को देखने के लिए एकत्रित थी। उन मासूमों को देखकर सैनिकों का हृदय भी द्रवित हो उठा पर उनके सामने विवशता थी। चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकते थे।पागल हाथी को अब छोड़ा जा रहा था। सैनिक बच्चों को खींचकर मैदान में ले आए थे। बड़े की आयु बारह वर्ष, मध्य की दस व छोटे की छः वर्ष थी। दर्शक सांस रोके वह दृश्य देख रहे थे। अनेक ने भयभीत होकर आंखें बंद कर लीं थीं।सैनिक अब हाथी का रस्सा खोलने वाले ही थे। इतने में ही एक कड़कदार आवाज गूंजी—‘‘ठहरो!’’सैनिक रुक गए। जिधर से आवाज गूंजी थी, सबकी निगाह उस दिशा में घूम गयी। सबने देखा वे राजकवि कोबूरे किलाट थे। उनका चेहरा तमतमाया हुआ था। उस समय वे साक्षात् दुर्वासा की प्रतिमूर्ति दिखाई पड़ रहे थे। दरबार में उनकी प्रतिष्ठा थी, साथ ही प्रभाव भी।तेज चाल से चलते हुए वे राजा के सिंहासन तक पहुंचे। सम्मान में राजा उठ खड़े हुए। अभिवादन किया तथा पूछा—‘‘राजकवि! आप नाराज दिख रहे हैं। मेरा अपराध क्या है?’’कवि ने थोड़ा संयत स्वर में कहा—‘‘राजन! निरीह लोगों, मासूम बच्चों को व्यक्तिगत ईर्ष्यावश मरवा देना, इससे बढ़कर और कौन सा अपराध हो सकता है। बहुत हो चुका यह नर संहार। अब तो अपने को संभालिए। मारना ही है तो पहले हाथी के पैरों के नीचे मुझे आने दीजिए।’’ राजकवि के ओज भरे शब्दों ने राजा को अपनी गलती का बोध कराया। उन्होंने कवि से क्षमा मांगी। बच्चों की जान बची तथा जनता को राहत मिली। पर यह सब संभव हुआ महाकवि के सत्साहस के फलस्वरूप।(यु. नि. यो. सितंबर 1983 से संकलित)
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