
धन नहीं भाव बड़ा है
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गुरु गोविंद सिंह निविड़ वन में बैठे एकांत चिंतन, ध्यान और स्वाध्याय में लीन थे। नीचे वेगवती यमुना कल-कल करती बह रही थी और ऊपर चट्टान। चारों ओर पर्वतीय उपत्यिकाओं से घिरे उस स्थान पर प्राणी के नाम पर केवल चिड़ियां और वन्य पशु थे तथा थे गुरु गोविंद सिंह। चिड़ियों की चहचहाहट और वन्य पशुओं की आवाजें उस प्राकृतिक स्थल को एक मनोहारिता प्रदान कर रही थीं।तभी गुरु ने देखा यमुना को पार कर उनका एक शिष्य उनकी ही ओर आ रहा था। निकट आने पर उसे पहचाना, उस शिष्य का नाम था रघुनाथ। काफी सम्पन्न और ऐश्वर्यशाली। उसे अपनी धन-सम्पदा का भी बड़ा अभिमान था। वह निकट आकर गुरु के पास बैठ गया। गुरु ने कहा—‘‘आओ रघु, कैसे आए हो!’’रघुनाथ ने गुरु के चरणों में विनम्र प्रणाम किया और बोला—‘‘सुना था कि आप हम भक्तों को छोड़कर इस एकांत वन में आ गए हैं। सोचा आपकी कुशल क्षेम ही पूछ आऊं।’’‘‘मेरी कुशल क्या जानना है रे रघु’’—गुरु ने बड़ी आत्मीयता से संबोधित करते हुए कहा—‘‘कुशल तो मेरे उन बंदों को पूछ जाकर जो ग्रंथ साहिब का संदेश तमाम कष्ट-कठिनाइयां सहकर भी लोगों तक पहुंचाने में लगे हुए हैं।’’इतना कहकर गुरु गोविंद ने अपने पास की रूखी रोटियां रघुनाथ की ओर करते हुए कहा—‘‘इस निर्जन वन में तो मैं तुम्हारा स्वागत इन्हीं से कर सकता हूं।’’रघु ने उन्हें देखा और तुरंत कहा—‘‘अरे गुरुजी! आप इन सूखे टुकड़ों पर अपना निर्वाह कर रहे हैं।’’‘‘सूखे टुकड़े नहीं, ये प्रेम के पकवान हैं’’—गुरुजी बोले—‘‘इन्हें एक भाई दे गया था।’’‘‘तो मैं आपकी सेवा में एक तुच्छ भेंट अर्पित करता हूं’’—रघु ने कहा और उसने अपने हाथों से दोनों हीरे जड़े कड़े उतारे तथा गुरु के समक्ष रख दिए। फिर कहा—‘‘इन्हें स्वीकार कीजिए।’’रघु यह कहकर गर्व से देखने लगा। गुरु ने उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को देखा और एक कड़ा अंगुली में पहन लिया। अंगुली में पहनकर उसे चौगिर्द चक्र की भांति घुमाने लगे। हीरे के कण सूर्य के प्रकाश में चमक उठे और उनसे किरणें बिखरने लगीं।तभी कड़ा उंगली पर से उछला और चट्टान पर से लुढ़कता हुआ यमुना में गिर गया। रघुनाथ ने समझा कि गुरु के हाथों से वह कड़ा असावधानीवश छूट गया है। तत्क्षण उसके मुंह से ‘हाय’ निकल गयी और वह दौड़ा हुआ गया तथा नदी में कूदकर कड़ा खोजने लगा।गुरु पुनः स्वाध्याय में तन्मय हो गए। कड़ा खोजते-खोजते जब कुछ देर हो गयी तो उन्होंने रघु को पुकारा। रघुनाथ ने नदी में से ही कहा—‘‘गुरुजी! कड़ा नहीं मिल रहा है। यह पता नहीं चल रहा है कि वह कहां गिरा है। आप इतना बता दें तो मैं वह कड़ा निकाल कर अभी लाता हूं।’’रघुनाथ की आवाज सुनकर गुरु गोविंद ने दूसरा कड़ा भी उठाया और उसे पहले की तरह उंगली में पहनकर घुमाया तथा उछाल दिया। वह कड़ा भी यमुना में जा गिरा। ‘छपाक्’ की आवाज हुई और गुरु गोविंद सिंह ने कहा—‘‘पहला वाला कड़ा भी वहीं पर गिरा है।’’
अब जैसे रघुनाथ को यथार्थ-बोध हुआ। वह नदी में से निकलकर गुरु के सामने खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर आए जिज्ञासा के भावों को देखकर गुरु बोले—‘‘जिस समय तुम रोटियां देखकर कड़ा दे रहे थे उस समय तुम्हारे चेहरे पर धन का मद खेल रहा था। जहां मद होता है वहां सेवा नहीं हो सकती। सेवा कोई धन से नहीं होती। उसके लिए तो हृदय में भाव होने चाहिए।’’ रघुनाथ का समाधान हो चुका था। उसने अपनी भूल का अनुभव किया और अपने मन का परिष्कार किया।(यु. नि. यो. मार्च 1977 से संकलित)
अब जैसे रघुनाथ को यथार्थ-बोध हुआ। वह नदी में से निकलकर गुरु के सामने खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर आए जिज्ञासा के भावों को देखकर गुरु बोले—‘‘जिस समय तुम रोटियां देखकर कड़ा दे रहे थे उस समय तुम्हारे चेहरे पर धन का मद खेल रहा था। जहां मद होता है वहां सेवा नहीं हो सकती। सेवा कोई धन से नहीं होती। उसके लिए तो हृदय में भाव होने चाहिए।’’ रघुनाथ का समाधान हो चुका था। उसने अपनी भूल का अनुभव किया और अपने मन का परिष्कार किया।(यु. नि. यो. मार्च 1977 से संकलित)