
प्राण नहीं, आदर्श बड़ा है
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बड़ी भयावह अंधेरी रात। और ऐसी ही रात में वीर मराठे एक गांव में ठहरे हुए थे। गांव का जागीरदार-यशवंत राव नरहरे शिवाजी का विश्वसनीय सेवक था। फिर भी लोगों को पता चल गया कि गांव में वीर शिवाजी का शुभागमन हुआ है। राष्ट्र भक्त के दर्शनों के लिए अपने को कोई भी न रोक सका। नदी में अपार जलराशि की भांति जन समूह भी दौड़ पड़ा उनके दर्शनों को।नरहरे के द्वार पर गांव वालों का जमघट लग गया, पर शिवाजी का कहीं पता नहीं था। तभी एक टूटी झोंपड़ी के द्वार पर स्वर सुनाई दिया—‘‘माई!’’ अर्द्धरात्रि की गहन निद्रा में वह धीमा स्वर किसी ने सुन ही नहीं पाया।फिर वही स्वर। उत्तर में अंदर से किसी ने पूछा—‘‘कौन?’’‘‘शिवा’’एक वृद्धा आंखे मलती हुई दौड़ी आई। दरवाजा खोला। सामने भारत की स्वतंत्रता का रक्षक तरुण तपस्वी शिवा खड़ा था। आगे बढ़कर उसने वृद्धा के चरणों में अपना माथा झुका दिया। उसका दांया हाथ आशीर्वाद के लिए उठा और नेत्रों से अश्रुकण ढुलक गए। इन अश्रुकणों में मां की ममता और सात्विक प्रेम की पावनता झलक रही थी।तब तक एक युवती हाथ में दीपक लेकर आई। कोने के एक ताख में दीपक उसने रख दिया और सटकर पीछे खड़ी हो गई। वृद्धा ने अपनी जर्जरित साड़ी के आंचल से अश्रु बिंदुओं को पोंछते हुए रुंधे कंठ से कहा—‘‘मेरा बेटा त्रिहरि, जो तुम्हारे संकेत पर मातृभूमि के काम आ चुका है, उसकी विधवा बहू है यह।’’युवती को समझते देर न लगी कि यह युग पुरुष शिवाजी हैं। उसने मन ही मन उनको प्रणाम किया और अपने भाग्य को सराहने लगी।शिवाजी अपने प्रत्येक परिचित व्यक्ति की चिंता रखते थे। एक क्षण को सोचने लगे—‘त्रिहरि की मृत्यु के बाद इन निरीह प्राणियों की गुजर कैसे होती होगी? बड़ी दयनीय स्थिति है इस परिवार की।’ तभी एक 18 वर्षीय तरुण के प्रवेश ने शिवाजी का ध्यान भंग किया। सुगठित शरीर, तेजस्वी चेहरा और सैनिकों जैसी वेशभूषा उस तरुण को स्वयं बता रहे थे कि मैं ही शिवा हूं जिसकी प्रतीक्षा में तुम घंटों से नरहरे की चौपाल पर बैठे थे।उस युवक ने झुक कर चरणरज ली और एक किनारे पर खड़ा हो गया। ‘‘अब यही बचा है हम दोनों के जीवन का आधार—त्रिहरि का एकमात्र पुत्र हरिहर। जब तुम्हारी सेवा में वह गया था तब इसकी आयु 6 वर्ष की ही थी। इसे तो अपने वीर पिता का अच्छी तरह स्मरण भी नहीं है। मैं ही जब कभी उसकी कहानियां सुना दिया करती हूं। और अब यह भी अपने पिता की तरह तुम्हारे चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित करना चाहता है।’’—वृद्धा ने सारी वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी।‘‘महाराज! आप मेरी वीरता पर विश्वास कीजिए। सिंह के बेटे सिंह ही हुआ करते हैं, गीदड़ नहीं। मैं देश-धर्म की रक्षा के लिए आपके साथ चलूंगा। मुझे अपने प्राणों का तनिक भी मोह नहीं है’’—हरिहर ने साथ चलने का आग्रह करते हुए कहा।‘‘हरिहर! समरभूमि में तुम्हारी सेवाओं की अभी आवश्यकता नहीं है। राष्ट्र के संकट के समय प्रत्येक नागरिक युद्ध के लिए मोर्चे पर नहीं जाता, कुछ व्यक्तियों को अपने परिवार तथा गांव की रक्षा के लिए भी रुकना पड़ता है। तुम यहीं रहो, अपनी दुखिया मां के आंसू पोंछना और दादी की इस वृद्धावस्था में सेवा करना। निराश होने की आवश्यकता नहीं। एक दिन तुम्हें यहीं अपना शौर्य प्रकट करने का अवसर प्राप्त होगा।’’हरिहर की मातृभूमि के प्रति बलिदान होने की उत्कट इच्छा शिवाजी के समझाने से शांत होने वाली न थी। उसके रक्त की उष्णता कुछ कर दिखाने के लिए आतुर हो रही थी। दादी और माता दोनों ने उस खिलते पुष्प को शिवा के चरणों में चढ़ा दिया। शिवाजी ने भी चमचमाता रत्न जटित हार अपने कंठ से उतार कर वृद्धा के चरणों में रख दिया और अश्रु पूरित नेत्रों से विदा ली।* * * * * *दुर्ग चारों ओर से मुगल सैनिकों द्वारा घेर लिया गया था। उसके अंदर शिवाजी सहित पचास सैनिक ही रह गए थे। इतने कम सैनिक बाहर घेरा डाले सैकड़ों मुगल सैनिकों से टक्कर कैसे ले सकते थे ? यह गनीमत थी कि दुर्ग पर राष्ट्रध्वज अभी भी फहरा रहा था।शिवाजी किले से सुरक्षित निकलने की युक्ति पर विचार करने लगे। तभी किसी गुप्तचर ने आकर संदेश दिया कि दुर्ग के उत्तरी-पूर्वी कोने पर धधकती हुई अग्नि की खाईं के उस पार शत्रु सेना के केवल दो ही सैनिक पहरे पर हैं।संकेत पर सारे सैनिक शिवाजी के साथ बाहर निकल पड़े, बताई गई दिशा की ओर। झाड़ियों के किनारे खड़े दो सैनिकों पर अचानक तीरों की वर्षा हुई और वे वहीं धराशायी हो गए। अब रास्ता साफ था। पर प्रज्ज्वलित अग्नि आगंतुकों को अपने में समेटने के लिए अलग बाधा बन खड़ी थी। आसमान से गिरकर खजूर में अटकने जैसी स्थिति बन चुकी थी।खाईं के किनारे खड़े शिवाजी इस प्रतीक्षा में थे कि अग्नि कुछ शांत हो जाये तब निकलने की कोशिश की जाए। इससे पहले निकलना तो जान-बूझ कर सैनिकों सहित आत्मदाह करना था। पर प्रतीक्षा के लिए समय भी कहां था? एक युवक सैनिक तपाक से आगे बढ़ा, ‘‘शीघ्रता कीजिए, अन्यथा मुगल सैनिकों के घेरे से निकलना कठिन हो जाएगा और यह कहते कहते वह अग्नि जलती खाई में लेट गया। शिवाजी सहित सारे सैनिक उस पर पैर रख कर उस पार निकल गए। आगे बढ़ते हुए शिवाजी ने फिर एक बार पीछे मुड़कर देखा। धू-धू कर हरिहर का शरीर जल रहा था। एक क्षण के लिए उनके मस्तिष्क में उस रात वाली घटना बिजली की तरह कौंध गई, पर रुकना और सोचना जानबूझ कर मृत्यु का आह्वान करना था।जान हथेली पर रखकर यह काफिला आगे बढ़ता जा रहा था और अश्वारोही मुगल सैनिक पीछा कर रहे थे। गांव के बीच से सैनिकों की यह भगदड़ देखकर वहां के निवासी भी भयभीत हो गए। किंकर्तव्यविमूढ़ जहां तहां लोग खड़े थे। एक भागती हुई प्रौढ़ा के कान में स्वर पड़ा—‘‘क्या कुछ सैनिक भागते हुए इधर से निकले हैं?’’पीछे की ओर मुड़कर बिना रुके उसने उत्तर दिया—‘‘नहीं’’।‘‘जानते हुए भी झूठ बोलने का यह प्रयास।’’ इतना कहकर एक सैनिक ने घर तक उसका पीछा किया। वह अंदर प्रवेश करने ही वाला था कि उस प्रौढ़ा ने नीचे पढ़ा गंडासा हाथ में लेकर गरजते हुए कहा—‘‘खबरदार! यदि पैर आगे बढ़ाया तो उसका दुष्परिणाम भुगतना होगा।’’तब तक तीन-चार सैनिक और आ चुके थे। म्यान में से तलवारें खींच ली गईं। प्रौढ़ा के रक्त ने एक तलवार की प्यास बुझाई। धड़ से उसका सिर अलग हो गया। उसके मुंह से केवल ‘हरिहर‘ निकला और आंखें बंद हो गईं। यह हरिहर की मां थी जिसने अपना कर्तव्य पूर्ण कर दिखाया।मुगल सैनिक अपनी जीत पर खुश हो रहे थे। पर वस्तुतः यह उनकी पराजय थी। कुछ मिनटों के इस व्यवधान ने शिवाजी की सैन्य टुकड़ी को मुगलों के कराल पंजों से दूर, बहुत दूर निकाल दिया था।(यु. नि. यो. दिसंबर 1971 से संकलित)***
चेहरे पर खिली मुस्कान*******बीजापुर की सेनाओं ने पन्हाला दुर्ग पर घेरा डाल रखा था। किले में कैद से हो गए थे छत्रपति शिवाजी जिन्होंने भारत में एक भारतीय राष्ट्र की स्थापना का वज्र संकल्प लिया था और उस संकल्प को पूरा करने में जी जान से जुटे हुए थे। बीजापुर के सुल्तान को इस बात में कोई रुचि नहीं थी कि दुर्ग पर किसका अधिकार हो? वह तो शिवाजी को अपने सामने एक बंदी के रूप में देखना चाहता था जिन्होंने उसके चुने हुए योद्धाओं को चुटकियों में खेत करके रख दिया था और इसका बदला वह शिवाजी को अपने सामने तड़पते हुए मरते देखकर लेना चाहता था तथा इसके लिए उसने अपनी सेना के शूरवीर सरदार सिद्धी जौहार तथा अफजल खां के लड़के फाजल खां को भेजा था।सिद्धी जौहार चौदह हजार पैदल सेना और दस हजार सवारों को लेकर पन्हाला दुर्ग पर पहरा डाले हुआ था और पन्हाला दुर्ग में घिरे हुए छत्रपति शिवाजी शत्रु सेनाओं की ताजीतर सूचनाओं से अवगत होते हुए अपनी रणनीति बनाते जा रहे थे। उस दिन उन्हें सूचना मिली कि दुर्ग में खाद्य सामग्री कम होने लगी है। भूखे सैनिकों का उत्साह कभी भी टूट सकता है। यह सोचकर उन्होंने अपने सरदारों को इकट्ठा कर कहा—‘‘हमें अब सिद्धी से संधि कर लेनी चाहिए। उसके पास दूत भेजो और कहलवा दो कि संधि की वार्ता के लिए मैं स्वयं उसके पास जाऊंगा। बड़े ही चतुर आदमी को भेजना और किसी भी तरह सायंकाल का समय वार्ता के लिए निश्चित करना।’’छत्रपति स्वयं जायेंगे?कई सरदार हतप्रभ देखते रह गए।कुछ ने कहा—‘‘महाराज को जान-बूझकर शेर की मांद में नहीं जाना चाहिए और फिर यह तो वर्षाकाल है। इस ऋतु में कोई कब तक घेरा डाले टिका रह सकता है।’’‘‘ठीक कहते हो। मैं भी इस बात को जानता हूं पर इसके अलावा कोई उपाय नहीं है’’—और फिर शिवाजी ने जो योजना उन सरदारों के सामने रखी उसकी सफलता के संबंध में सभी आश्वस्त हो गए। सिद्धी जौहार के पास संधि प्रस्ताव लेकर एक दूत भेजा गया जिसमें शिवाजी द्वारा स्वयं संधि के लिए आने की बात भी शामिल थी।सिद्धी जौहार को और क्या चाहिए था ? वह तो चाहता ही था कि किसी प्रकार शिवाजी पर हाथ डालने का मौका भर मिल जाये। फिर तो वह उन्हें गिरफ्तार कर सुल्तान के सामने हाजिर करने तक जरा भी गफलत नहीं करेगा। वह इसके लिए तुरंत तैयार हो गया और नियत समय पर शिवाजी अपने सैनिकों के साथ सिद्धी के डेरे में पहुंचे।सिद्धी जैसे पहले ही इसकी प्रतीक्षा कर रहा था। जब विश्वास हो जाय कि पंछी खुद जाल में आ रहा है तो शिकारी का मन आह्लाद से क्यों नहीं भर उठेगा। सिद्धी जौहार और शिवाजी दोनों आपस में बड़ा प्रेम प्रदर्शन करते हुए मिले परंतु वस्तुतः प्रेम किसी के हृदय में नहीं था। शिवाजी एकदम सतर्क और सजग होकर सिद्धी की हरकतों को देख रहे थे। कहीं अफजल खां जैसा धोखा न हो, इसलिए उन्होंने अपने वस्त्रों के नीचे लौह कवच पहन रखा था और कपड़ों में ही बघनखा भी छिपा रखा था ताकि किसी भी प्रकार की चालाकी होते देखकर वे भी अपना वार कर सकें। इधर सिद्धी भी आतंकित और सशंकित सा था।दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। शिवाजी ने अपनी व्यवहार कुशलता और वाक्चातुर्य से सिद्धी जौहार को प्रभावित कर लिया। प्रभावित ही नहीं सिद्धी के मन में यह बात भी बैठा दी कि वे संधि की सभी शर्तों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। शिवाजी ने अपनी बातों से सिद्धी का मन मोह लिया। उसकी प्रशंसा के पुल बांध कर उसे आसमान पर चढ़ा दिया।और सिद्धी इस सफलता से फूला नहीं समा रहा था। शिवाजी ने सिद्धी के साथ बीजापुर चलना स्वीकार कर लिया और सिद्धी को बेतरह प्रभावित हुआ देखकर कहा—‘‘रात बहुत बीत गयी है। आप भी थक गए होंगे। अतः कल प्रातःकाल संधि की शर्तें तय करेंगे।’’सिद्धी को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। वह घर बैठे, बिना युद्ध किए इस सिंह को कैद कर बीजापुर के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रसन्नता से सराबोर हुआ जा रहा था। उसकी आंखों के सामने वह अनागत दृश्य कौंध उठा जब वह शिवाजी के साथ बीजापुर नगर में प्रवेश करेगा। जब बीजापुर का सुल्तान, सरदार और प्रजा उसको शिवाजी के साथ देखेंगे तो उसका सम्मान कितना बढ़ जायगा। कोई आश्चर्य नहीं कि इस सफलता के कारण सुल्तान उसका पद व ओहदा भी बढ़ा दें।साथ ही उसके कानों में गूंज उठे सुल्तान के यह शब्द ‘‘शिवा को जिंदा या मुर्दा दरबार में हाजिर करो। क्या मेरी सल्तनत में ऐसा कोई जवां बहादुर नहीं रह गया जो शिवा जैसे धूर्त और मक्कार काफिर को पकड़ सके।’’उस समय सुल्तान के चेहरे से कैसी बेताबी टपक रही थी। सिद्धी जौहार की आंखों में सफलता के फलस्वरूप होने वाली भावी उन्नति, शाही सम्मान और बढ़े हुए रुतबे के मधुर स्वप्न नाचने लगे। शिवाजी के जाते ही वह उस तंबू में चला गया जहां नाचरंग हो रहे थे और जाम से जाम टकरा रहे थे। आज की महफिल का रंग कुछ और ही था। सिद्धी ने कामयाबी की खुशी में भर भर प्याले पिए और नर्तकियों की मादक चितवन और मोहक मुद्राओं का रस भीनी निगाहों से देखता रहा।महफिल तब तक जमी रही जब तक सिद्धी और फाजल नशे में पूरी तरह डूब नहीं गए। उनके सो जाने के बाद शिविर में सन्नाटा छा गया। देर तक सन्नाटा छाया रहा और सन्नाटा जब टूटा तो सिद्धी के पांव तले की जमीन ही खिसक गयी थी। कारण था कि शिवाजी अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ दुर्ग से भाग निकले थे। यह खबर सुनते ही सिद्धी ने अपने पुत्र अजीज और फाजल खां को तुरंत शिवाजी का पीछा करने का हुक्म दिया।इधर शिवाजी ने दुर्ग से निकलने के बाद विशालगढ़ का रास्ता पकड़ा था। वे रात भर चलते रहे। सुबह तक चलते रहने पर जब विशालगढ़ कुछ ही मील दूर रह गया था कि नीचे घाटी में सिद्धी की सेनायें आती दिखाई दीं। उन्हें चिंतातुर देखकर बाजी प्रभु देशपांडे ने कहा—‘‘मैं घाटी के नीचे ही शत्रुओं को रोक रखता हूं। आप सीधे विशालगढ़ पहुंचिए और पहुंचने के बाद तोप चलवाइये ताकि मैं समझ सकूं कि आप गढ़ में पहुंच गए हैं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि गढ़ में पहुंचने तक बीजापुरी सेना को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दूंगा।’’इसके सिवा कोई दूसरा मार्ग भी नहीं था। उन्होंने अश्रुपूर्ण नेत्रों से बाजी प्रभु को देखते हुए उन्हें गले से लगा लिया और आगे बढ़ गए। शिवाजी के जाते ही बाजी प्रभु ने तुरंत अपने चार-पांच सौ सैनिकों को लेकर मोर्चा बना लिया। पहाड़ी मार्ग इतना संकरा था कि उस पर दो-तीन आदमियों से अधिक व्यक्ति एक साथ नहीं चल सकते थे। इस मार्ग को भी बाजी प्रभु ने मावला वीरों को निर्देश देकर पत्थरों और शिलाखंडों से पाट दिया तथा पाढर पानी नाले के पास छुपकर शत्रु सेनाओं की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही समय में शत्रु सेनाएं घाट तक पहुंच गयीं।कहां तो चार-पांच सौ मालवा सैनिक और कहां 20-22 हजार की बीजापुरी कुमुक। लेकिन मावले सैनिकों का मनोबल आकाश को चूम रहा था। उनमें राष्ट्र, धर्म और संस्कृति के लिए लड़ने-मरने का जोश उफान खा रहा था। इसलिए शत्रुओं की संख्या बल में अधिक देखकर भी वे न घबराये न किंकर्तव्यविमूढ़ ही हुए। थोड़े ही समय में बाजी प्रभु के रणनीतिज्ञ मस्तिष्क ने ऐसी व्यूह रचना कर ली थी कि बीजापुरी जवानों का आगे बढ़ पाना टेढ़ी खीर हो गया। जब वे घाट चढ़ने लगते तो बाजी प्रभु के सैनिक उन पर ऊपर से पत्थर और शिलाखंड लुढ़का देते। पहाड़ी मार्ग ऐसा था कि आगे का व्यक्ति पीछे नहीं दिखाई देता था और पीछे वाले को आगे का पता नहीं चलता था। बीजापुरी सिपाही कुछ देर तक तो इसी प्रकार मृत्युपाश में बंधकर निष्पंद पड़ते गए किन्तु शीघ्र ही अजीज को इसका पता चल गया।अजीज ने सैनिकों को रुकने के लिए कहा। कुछ देर बाद उसने अपने जवानों को नीचे से ही बंदूक का प्रयोग करने के लिए कहा। लेकिन बंदूक का निशाना बनाएं तो किसे। सब मावले तो पत्थरों की ओट में छिपे हुए थे। अजीज ने कुछ इस तरह जाहिर करना शुरू किया जैसे उसके सैनिक आगे बढ़ रहे हैं। इस भ्रम में आकर मावले ऊपर से पत्थर लुढ़का देते। सामने का पत्थर लुढ़का देने के कारण वे दिखाई दे जाते थे और उसी समय बीजापुरी सैनिक उन्हें अपनी गोली का शिकार बना लेते।अभी तक तो एक भी मावला वीर नहीं मारा गया था? अब क्या बात हो गयी है यह जानने के लिए बाजी प्रभु ने ऊपर उठकर जैसे ही देखा वैसे ही एक गोली उनको भी आकर लगी। पर उन्होंने बजाय चीखने या कराहने के जोर से कहा—‘‘हर हर महादेव! जय भवानी माता की!’’‘‘बहादुरों! हिम्मत से काम लो। जीतोगे तो जियोगे, मरोगे तो पूजे जाओगे। साहस को मत जाने देना।’’अपने सरदार के शौर्यपूर्ण आह्वान से उत्साहित होकर मावले वीर द्विगुणित उत्साह से लड़ने लगे। अपने आपको बचाकर शत्रु सेना पर वार करने के लिए वे बड़ी सूझ-बूझ और चातुरी से काम ले रहे थे। परंतु इस संघर्ष में वे भी तो अक्षत नहीं रह सकते थे। मावले वीर मरने लगे, कई घायल भी होते जा रहे थे।पर घायल सैनिकों का मनोबल भी बहुत ऊंचा था। स्वयं बाजी प्रभु को 26 घाव लगे थे। कभी गोली रगड़ खाकर निकल जाती तो कभी पिंडलियों को छीलती हुई चली जाती। इस प्रकार उनके शरीर में 26 बार गोलियों की रगड़ लगी और कुछ अंगों में छर्रे भी घुस गए।इसके बाद जो गोली बाजी प्रभु को लगी वह उनके लिए मौत का संदेशा लायी थी। वे जमीन पर गिर पड़े किन्तु उनकी ललकार नहीं रुकी। वे अपने सैनिकों को बार-बार प्रोत्साहित करते हुए लड़ने-जूझने, मरने-मारने के लिए प्रोत्साहित करते जा रहे थे। शायद वे प्राण भी छोड़ देते परंतु उनके कान तो विशालगढ़ से तोप की आवाज सुनने के लिए आतुर प्रतीक्षा कर रहे थे और यह प्रतीक्षा पूरी होने तक वे मृत्यु को भी इंच भर दूर रहकर प्रतीक्षा करने के लिए बाध्य किए दे रहे थे। सिर चकरा रहा था, गला सूख रहा था, घावों से निरंतर हो रहे रक्त प्रवाह के कारण प्राण पानी के लिए तरस रहे थे पर कंठ से आवाज निकलने में कोई कमी नहीं आयी। वे बराबर अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाते रहे।इधर विशालगढ़ से तोप के दागे जाने की आवाज सुनी उधर बाजी प्रभु ने द्वार पर खड़े प्रतीक्षा कर रहे मृत्यु अतिथि का स्वागत किया। 27 घावों से निरंतर बहते हुए रक्त के कारण उनका शरीर सफेद हो गया था पर उनके चेहरे पर एक मुस्कान खिली हुई थी। यह मुस्कान अपने कर्तव्य को वीरता के साथ पूरा करने के संतोष से निःसृत हुई थी।‘‘अब तो उधर से तोप का इस्तेमाल किया जाने लगा है’’—अजीज ने अपने पिता सिद्धी जौहार से कहा और सिद्धी बोला—‘‘चलो वापस चलते हैं। ओहदा जान से ज्यादा प्यारा नहीं है।’’और वे लोग अपना सा मुंह लेकर लौट गए।(यु. नि. यो. जून 1978 से संकलित)
चेहरे पर खिली मुस्कान*******बीजापुर की सेनाओं ने पन्हाला दुर्ग पर घेरा डाल रखा था। किले में कैद से हो गए थे छत्रपति शिवाजी जिन्होंने भारत में एक भारतीय राष्ट्र की स्थापना का वज्र संकल्प लिया था और उस संकल्प को पूरा करने में जी जान से जुटे हुए थे। बीजापुर के सुल्तान को इस बात में कोई रुचि नहीं थी कि दुर्ग पर किसका अधिकार हो? वह तो शिवाजी को अपने सामने एक बंदी के रूप में देखना चाहता था जिन्होंने उसके चुने हुए योद्धाओं को चुटकियों में खेत करके रख दिया था और इसका बदला वह शिवाजी को अपने सामने तड़पते हुए मरते देखकर लेना चाहता था तथा इसके लिए उसने अपनी सेना के शूरवीर सरदार सिद्धी जौहार तथा अफजल खां के लड़के फाजल खां को भेजा था।सिद्धी जौहार चौदह हजार पैदल सेना और दस हजार सवारों को लेकर पन्हाला दुर्ग पर पहरा डाले हुआ था और पन्हाला दुर्ग में घिरे हुए छत्रपति शिवाजी शत्रु सेनाओं की ताजीतर सूचनाओं से अवगत होते हुए अपनी रणनीति बनाते जा रहे थे। उस दिन उन्हें सूचना मिली कि दुर्ग में खाद्य सामग्री कम होने लगी है। भूखे सैनिकों का उत्साह कभी भी टूट सकता है। यह सोचकर उन्होंने अपने सरदारों को इकट्ठा कर कहा—‘‘हमें अब सिद्धी से संधि कर लेनी चाहिए। उसके पास दूत भेजो और कहलवा दो कि संधि की वार्ता के लिए मैं स्वयं उसके पास जाऊंगा। बड़े ही चतुर आदमी को भेजना और किसी भी तरह सायंकाल का समय वार्ता के लिए निश्चित करना।’’छत्रपति स्वयं जायेंगे?कई सरदार हतप्रभ देखते रह गए।कुछ ने कहा—‘‘महाराज को जान-बूझकर शेर की मांद में नहीं जाना चाहिए और फिर यह तो वर्षाकाल है। इस ऋतु में कोई कब तक घेरा डाले टिका रह सकता है।’’‘‘ठीक कहते हो। मैं भी इस बात को जानता हूं पर इसके अलावा कोई उपाय नहीं है’’—और फिर शिवाजी ने जो योजना उन सरदारों के सामने रखी उसकी सफलता के संबंध में सभी आश्वस्त हो गए। सिद्धी जौहार के पास संधि प्रस्ताव लेकर एक दूत भेजा गया जिसमें शिवाजी द्वारा स्वयं संधि के लिए आने की बात भी शामिल थी।सिद्धी जौहार को और क्या चाहिए था ? वह तो चाहता ही था कि किसी प्रकार शिवाजी पर हाथ डालने का मौका भर मिल जाये। फिर तो वह उन्हें गिरफ्तार कर सुल्तान के सामने हाजिर करने तक जरा भी गफलत नहीं करेगा। वह इसके लिए तुरंत तैयार हो गया और नियत समय पर शिवाजी अपने सैनिकों के साथ सिद्धी के डेरे में पहुंचे।सिद्धी जैसे पहले ही इसकी प्रतीक्षा कर रहा था। जब विश्वास हो जाय कि पंछी खुद जाल में आ रहा है तो शिकारी का मन आह्लाद से क्यों नहीं भर उठेगा। सिद्धी जौहार और शिवाजी दोनों आपस में बड़ा प्रेम प्रदर्शन करते हुए मिले परंतु वस्तुतः प्रेम किसी के हृदय में नहीं था। शिवाजी एकदम सतर्क और सजग होकर सिद्धी की हरकतों को देख रहे थे। कहीं अफजल खां जैसा धोखा न हो, इसलिए उन्होंने अपने वस्त्रों के नीचे लौह कवच पहन रखा था और कपड़ों में ही बघनखा भी छिपा रखा था ताकि किसी भी प्रकार की चालाकी होते देखकर वे भी अपना वार कर सकें। इधर सिद्धी भी आतंकित और सशंकित सा था।दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। शिवाजी ने अपनी व्यवहार कुशलता और वाक्चातुर्य से सिद्धी जौहार को प्रभावित कर लिया। प्रभावित ही नहीं सिद्धी के मन में यह बात भी बैठा दी कि वे संधि की सभी शर्तों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। शिवाजी ने अपनी बातों से सिद्धी का मन मोह लिया। उसकी प्रशंसा के पुल बांध कर उसे आसमान पर चढ़ा दिया।और सिद्धी इस सफलता से फूला नहीं समा रहा था। शिवाजी ने सिद्धी के साथ बीजापुर चलना स्वीकार कर लिया और सिद्धी को बेतरह प्रभावित हुआ देखकर कहा—‘‘रात बहुत बीत गयी है। आप भी थक गए होंगे। अतः कल प्रातःकाल संधि की शर्तें तय करेंगे।’’सिद्धी को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। वह घर बैठे, बिना युद्ध किए इस सिंह को कैद कर बीजापुर के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रसन्नता से सराबोर हुआ जा रहा था। उसकी आंखों के सामने वह अनागत दृश्य कौंध उठा जब वह शिवाजी के साथ बीजापुर नगर में प्रवेश करेगा। जब बीजापुर का सुल्तान, सरदार और प्रजा उसको शिवाजी के साथ देखेंगे तो उसका सम्मान कितना बढ़ जायगा। कोई आश्चर्य नहीं कि इस सफलता के कारण सुल्तान उसका पद व ओहदा भी बढ़ा दें।साथ ही उसके कानों में गूंज उठे सुल्तान के यह शब्द ‘‘शिवा को जिंदा या मुर्दा दरबार में हाजिर करो। क्या मेरी सल्तनत में ऐसा कोई जवां बहादुर नहीं रह गया जो शिवा जैसे धूर्त और मक्कार काफिर को पकड़ सके।’’उस समय सुल्तान के चेहरे से कैसी बेताबी टपक रही थी। सिद्धी जौहार की आंखों में सफलता के फलस्वरूप होने वाली भावी उन्नति, शाही सम्मान और बढ़े हुए रुतबे के मधुर स्वप्न नाचने लगे। शिवाजी के जाते ही वह उस तंबू में चला गया जहां नाचरंग हो रहे थे और जाम से जाम टकरा रहे थे। आज की महफिल का रंग कुछ और ही था। सिद्धी ने कामयाबी की खुशी में भर भर प्याले पिए और नर्तकियों की मादक चितवन और मोहक मुद्राओं का रस भीनी निगाहों से देखता रहा।महफिल तब तक जमी रही जब तक सिद्धी और फाजल नशे में पूरी तरह डूब नहीं गए। उनके सो जाने के बाद शिविर में सन्नाटा छा गया। देर तक सन्नाटा छाया रहा और सन्नाटा जब टूटा तो सिद्धी के पांव तले की जमीन ही खिसक गयी थी। कारण था कि शिवाजी अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ दुर्ग से भाग निकले थे। यह खबर सुनते ही सिद्धी ने अपने पुत्र अजीज और फाजल खां को तुरंत शिवाजी का पीछा करने का हुक्म दिया।इधर शिवाजी ने दुर्ग से निकलने के बाद विशालगढ़ का रास्ता पकड़ा था। वे रात भर चलते रहे। सुबह तक चलते रहने पर जब विशालगढ़ कुछ ही मील दूर रह गया था कि नीचे घाटी में सिद्धी की सेनायें आती दिखाई दीं। उन्हें चिंतातुर देखकर बाजी प्रभु देशपांडे ने कहा—‘‘मैं घाटी के नीचे ही शत्रुओं को रोक रखता हूं। आप सीधे विशालगढ़ पहुंचिए और पहुंचने के बाद तोप चलवाइये ताकि मैं समझ सकूं कि आप गढ़ में पहुंच गए हैं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि गढ़ में पहुंचने तक बीजापुरी सेना को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दूंगा।’’इसके सिवा कोई दूसरा मार्ग भी नहीं था। उन्होंने अश्रुपूर्ण नेत्रों से बाजी प्रभु को देखते हुए उन्हें गले से लगा लिया और आगे बढ़ गए। शिवाजी के जाते ही बाजी प्रभु ने तुरंत अपने चार-पांच सौ सैनिकों को लेकर मोर्चा बना लिया। पहाड़ी मार्ग इतना संकरा था कि उस पर दो-तीन आदमियों से अधिक व्यक्ति एक साथ नहीं चल सकते थे। इस मार्ग को भी बाजी प्रभु ने मावला वीरों को निर्देश देकर पत्थरों और शिलाखंडों से पाट दिया तथा पाढर पानी नाले के पास छुपकर शत्रु सेनाओं की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही समय में शत्रु सेनाएं घाट तक पहुंच गयीं।कहां तो चार-पांच सौ मालवा सैनिक और कहां 20-22 हजार की बीजापुरी कुमुक। लेकिन मावले सैनिकों का मनोबल आकाश को चूम रहा था। उनमें राष्ट्र, धर्म और संस्कृति के लिए लड़ने-मरने का जोश उफान खा रहा था। इसलिए शत्रुओं की संख्या बल में अधिक देखकर भी वे न घबराये न किंकर्तव्यविमूढ़ ही हुए। थोड़े ही समय में बाजी प्रभु के रणनीतिज्ञ मस्तिष्क ने ऐसी व्यूह रचना कर ली थी कि बीजापुरी जवानों का आगे बढ़ पाना टेढ़ी खीर हो गया। जब वे घाट चढ़ने लगते तो बाजी प्रभु के सैनिक उन पर ऊपर से पत्थर और शिलाखंड लुढ़का देते। पहाड़ी मार्ग ऐसा था कि आगे का व्यक्ति पीछे नहीं दिखाई देता था और पीछे वाले को आगे का पता नहीं चलता था। बीजापुरी सिपाही कुछ देर तक तो इसी प्रकार मृत्युपाश में बंधकर निष्पंद पड़ते गए किन्तु शीघ्र ही अजीज को इसका पता चल गया।अजीज ने सैनिकों को रुकने के लिए कहा। कुछ देर बाद उसने अपने जवानों को नीचे से ही बंदूक का प्रयोग करने के लिए कहा। लेकिन बंदूक का निशाना बनाएं तो किसे। सब मावले तो पत्थरों की ओट में छिपे हुए थे। अजीज ने कुछ इस तरह जाहिर करना शुरू किया जैसे उसके सैनिक आगे बढ़ रहे हैं। इस भ्रम में आकर मावले ऊपर से पत्थर लुढ़का देते। सामने का पत्थर लुढ़का देने के कारण वे दिखाई दे जाते थे और उसी समय बीजापुरी सैनिक उन्हें अपनी गोली का शिकार बना लेते।अभी तक तो एक भी मावला वीर नहीं मारा गया था? अब क्या बात हो गयी है यह जानने के लिए बाजी प्रभु ने ऊपर उठकर जैसे ही देखा वैसे ही एक गोली उनको भी आकर लगी। पर उन्होंने बजाय चीखने या कराहने के जोर से कहा—‘‘हर हर महादेव! जय भवानी माता की!’’‘‘बहादुरों! हिम्मत से काम लो। जीतोगे तो जियोगे, मरोगे तो पूजे जाओगे। साहस को मत जाने देना।’’अपने सरदार के शौर्यपूर्ण आह्वान से उत्साहित होकर मावले वीर द्विगुणित उत्साह से लड़ने लगे। अपने आपको बचाकर शत्रु सेना पर वार करने के लिए वे बड़ी सूझ-बूझ और चातुरी से काम ले रहे थे। परंतु इस संघर्ष में वे भी तो अक्षत नहीं रह सकते थे। मावले वीर मरने लगे, कई घायल भी होते जा रहे थे।पर घायल सैनिकों का मनोबल भी बहुत ऊंचा था। स्वयं बाजी प्रभु को 26 घाव लगे थे। कभी गोली रगड़ खाकर निकल जाती तो कभी पिंडलियों को छीलती हुई चली जाती। इस प्रकार उनके शरीर में 26 बार गोलियों की रगड़ लगी और कुछ अंगों में छर्रे भी घुस गए।इसके बाद जो गोली बाजी प्रभु को लगी वह उनके लिए मौत का संदेशा लायी थी। वे जमीन पर गिर पड़े किन्तु उनकी ललकार नहीं रुकी। वे अपने सैनिकों को बार-बार प्रोत्साहित करते हुए लड़ने-जूझने, मरने-मारने के लिए प्रोत्साहित करते जा रहे थे। शायद वे प्राण भी छोड़ देते परंतु उनके कान तो विशालगढ़ से तोप की आवाज सुनने के लिए आतुर प्रतीक्षा कर रहे थे और यह प्रतीक्षा पूरी होने तक वे मृत्यु को भी इंच भर दूर रहकर प्रतीक्षा करने के लिए बाध्य किए दे रहे थे। सिर चकरा रहा था, गला सूख रहा था, घावों से निरंतर हो रहे रक्त प्रवाह के कारण प्राण पानी के लिए तरस रहे थे पर कंठ से आवाज निकलने में कोई कमी नहीं आयी। वे बराबर अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाते रहे।इधर विशालगढ़ से तोप के दागे जाने की आवाज सुनी उधर बाजी प्रभु ने द्वार पर खड़े प्रतीक्षा कर रहे मृत्यु अतिथि का स्वागत किया। 27 घावों से निरंतर बहते हुए रक्त के कारण उनका शरीर सफेद हो गया था पर उनके चेहरे पर एक मुस्कान खिली हुई थी। यह मुस्कान अपने कर्तव्य को वीरता के साथ पूरा करने के संतोष से निःसृत हुई थी।‘‘अब तो उधर से तोप का इस्तेमाल किया जाने लगा है’’—अजीज ने अपने पिता सिद्धी जौहार से कहा और सिद्धी बोला—‘‘चलो वापस चलते हैं। ओहदा जान से ज्यादा प्यारा नहीं है।’’और वे लोग अपना सा मुंह लेकर लौट गए।(यु. नि. यो. जून 1978 से संकलित)