
मोह विजय
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पुरंदर की संधि के अनुसार औरंगजेब ने छत्रपति शिवाजी को स्वतंत्र राजा स्वीकार कर लिया था पर वह राज्यलिप्सु अधिक दिनों तक इस संधि पर आरूढ़ न रह सका। उसने अपने दक्षिण के सूबेदारों को पुनः युद्ध जारी करने का आदेश दिया। शिवाजी भी उस आक्रमण का सामना करने के लिए सन्नद्ध थे। गुरु रामदास ने उनसे यही दक्षिणा मांगी थी—‘कोंकण के किले पर भगवा ध्वज लहराओ।’ सदियों बाद किसी गृह त्यागी संन्यासी ने अपनी स्वर्ग-मुक्ति की संकीर्ण कामना से ऊपर उठकर राष्ट्रीय भावना के नव जागरण का उद्योग किया था।शिवाजी ने समर्थ रामदास की आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार किया। औरंगजेब ने हिन्दू राजाओं की आपसी फूट और अहंमन्यता से भरपूर लाभ उठाया था। उसने कोंकण के किले पर उनका मुकाबला करने के लिए राजपूत सामंत उदयभानु को नियुक्त किया। किले का रक्षक कोई भी हो, गुरुदेव को दिया वचन तो पूरा करना ही है। उन्होंने अपने सरदारों की ओर देखा—कौन आगे आता है कोंकण के किले पर फतह पाने। कोंकण के किले की विकट स्थिति को स्मरण कर कोई आगे नहीं आया। इस संदिग्ध विकट विजय यात्रा के लिए किसी सरदार को आगे आता न देख राजमाता जीजा बाई बोलीं—‘‘यदि कोई वीर इस गुरुतर दायित्व को निभाने के लिए आगे नहीं आता तो कोई बात नहीं, मेरा पुत्र मेरी बात नहीं टालेगा।’’जीजा बाई का संकेत शिवाजी के बाल्य बंधु तानाजी मालसरे की ओर था। माता जीजा बाई ने तानाजी को अपनी कोख से जन्म भले ही न दिया हो पर तानाजी के भावात्मक निर्माण में उनकी भूमिका माता की हो रही थी। तानाजी को वे अपने पुत्र शिवाजी से अधिक स्नेह देती रहीं थीं। तानाजी के मन में भी माता जीजा बाई के प्रति सगे पुत्र जैसी ही श्रद्धा थी। बड़ा सुदृढ़ था यह भावनात्मक संबंध रक्त संबंधों से भी दृढ़तर।जीजा बाई का पत्रवाहक तानाजी के पास पहुंचा। तानाजी ने पत्र पढ़ा। पत्र क्या था, मातृभूमि और माता जीजा बाई दोनों ने उनके प्राणों की दक्षिणा मांगी थी। जिस दिन जीजा बाई के पास पहुंचना था उसी दिन, माघ बदी 9 के दिन उनके पुत्र रायबा का विवाह था। विवाह की तैयारियां हो रही थी। मंगलगीतों से आकाश गूंज रहा था। बंदनवारें सजाई जा रही थीं। तोरण द्वार बन रहे थे। छत्रपति शिवाजी के बाल्य बंधु के पुत्र का ब्याह जो था।तानाजी के लिए यह विकट परीक्षा की घड़ी थी। एक ओर पुत्र के विवाह का मोह था तो दूसरी और कर्तव्य की पुकार माता जीजा बाई के पत्र के रूप में आकर बुला रही थी। किन्तु वीरवर ताना जी को निर्णय करने में अधिक समय नहीं लगा। उन्होंने पारिवारिक मोह से कहीं ऊंचा स्थान देशप्रेम को दिया।तानाजी ने विवाह का कार्य अपने सहायकों पर छोड़ अपने छोटे भाई सूर्या जी और एक हजार निर्भीक मावले वीरों को साथ ले रासगढ़ होते हुए माता जीजा बाई को चरण स्पर्श किया और कोंकण विजय के लिए निकल पड़े। देश-प्रेम के मतवाले इन वीरों के लिए एक कोंकण का किला फतह करना क्या कठिन था।रात के अंधेरे में एक मावला सरदार पालतू गोह के सहारे किले की दीवार पर चढ़ गया। उसने रस्सी बांधी, उसके सहारे पांच सौ वीर ऊपर पहुंच गए। तानाजी इनके नेता थे। सूर्या जी पांच सौ वीरों के साथ द्वार खुलने की प्रतीक्षा में थे। किले के भीतर पहुंचे वीरों ने भीतरी सैनिक सावधान हों उसके पहले ही द्वार खोल दिए। इस प्रकार सूर्या जी और उनके साथी भी भीतर प्रविष्ट हो गए। भयंकर युद्ध हुआ। विजय श्री उन्हीं वीरों के हाथ रही। किन्तु तानाजी इस मुहिम में काम आये। विकट दुर्ग कोंकण और उसमें रह रही अपने साथियों से दुगुनी सेना पर भी तानाजी ने विजय पायी। शिवाजी ने जब तानाजी के बलिदान का समाचार सुना तो वे बोल पड़े—‘‘गढ़ तो आया पर सिंह चला गया। यह किला तुम्हें समर्पित। आज से इसका नाम सिंहगढ़ होगा।’’(यु. नि. यो. दिसंबर 1974 से संकलित)