
निर्भीक किन्तु सहनशील संत
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निर्भीकता, सहनशीलता और समदर्शिता सच्चे संत के आवश्यक गुण माने गए हैं। जो किसी भय अथवा दबाव में आकर अपने पथ से विचलित हो उठे, अपने व्यक्तिगत अपमान अथवा कष्ट से उत्तेजित अथवा विक्षुण्ण हो उठे अथवा जो किसी लोभ-लालच, ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, पद-पदवी के कारण किसी के प्रति अंतर माने उसे सच्चा संत नहीं कहा जा सकता। सच्चा संत भगवान के राज्य में निर्भय विचरता और व्यवहार करता है। सुख-दुःख, मान-अपमान को उसका कौतुक मानता है और प्राणी मात्र में समान दृष्टिकोण रखता है। उसके लिए न कहीं भय होता है, न दुःख और न ऊंच-नीच। सिक्खों के आदि गुरु नानक साहब में यह सभी गुण पूरी मात्रा में मौजूद थे और वे वास्तव में एक सच्चे संत थे।गुरु नानक गांव के जमींदार दौलत खां के मोदीखाने में नौकरी करते थे। जमींदार बड़ा सख्त और जलाली आदमी था। किन्तु गुरु नानक न तो कभी उससे दबे, न डरे। बल्कि एक बार जब उन्होंने तीन दिन की विचार समाधि के बाद अपना पूर्ण परीक्षण कर यह विश्वास कर लिया कि अब उन्होंने जन-सेवा के योग्य पूर्ण संतत्व प्राप्त कर लिया है तब वे दौलत खां को यह बतलाने गए कि अब वे नौकरी नहीं करेंगे बल्कि शेष जीवन जन-सेवा में लगायेंगे।जमींदार ने उन्हें अपने बैठकखाने में बुलवाया। गुरु नानक गए और बिना सलाम किए उसके बराबर आसन पर बैठ गए। जमींदार की भौंहें तन गईं, बोला—‘‘नानक! मेरे मोदी होकर भी तुमने मुझे सलाम नहीं किया और आकर बराबर में बैठ गए। यह गुस्ताखी क्यों की।’’ नानक ने निर्भीकता से उत्तर दिया—‘‘दौलत खान! आपका मोदी नानक तो मर गया है। अब उस नये नानक का जन्म हुआ है जिसके हृदय में भगवान की ज्योति उतर आई है और अब जिसके लिए दुनियां में सब बराबर हैं और जो सबको अपना प्यारा भाई समझता है’’—कहते-कहते नानक के मुख पर एक तेज चमकने लगा। जमींदार ने कुछ देखा और कुछ समझा किन्तु फिर भी कहा—‘‘अगर आप किसी में अंतर नहीं समझते हैं तो मेरे साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने चलिए।’’ नानक ने जरा भी संकोच नहीं किया और वह एकेश्वरवादी संत उसके साथ मस्जिद चला गया।जिस समय गुरु नानक मक्का की यात्रा करने गए थे, यह दूसरी घटना उसी समय की है। निर्द्वंद्व संत दिन भर स्थान-स्थान पर सत्संग करते, मुसलमान धर्म का स्वरूप समझते और अपने धर्म का दर्शन कराते-फिरते रहे और रात में मस्ती के साथ एक मैदान में पड़कर सो रहे। संयोगवश उनके पैर काबा की ओर फैले हुए थे। उधर से कई मुसलमान निकले। वे बड़े ही संकीर्ण विचार वाले थे। उन्होंने गुरु नानक को काबे की तरफ पैर किए लेटा देखा तो आपे से बाहर हो गए। पहले तो उन्होंने उन्हें काफिर आदि कहकर बहुत सी गालियां दी और तब भी जब उनकी नींद न टूटी तो लात-घूंसों से मारने लगे। नानक जागे और नम्रता से बोले—‘‘भाई क्या गलती हो गई जो मुझ परदेशी को आप लोग मार रहे हैं।’’मुसलमान गाली देते हुए बोले—‘‘तुझे सूझता नहीं कि उधर काबा—खुदा का घर है और तू उधर ही पैर किए लेटा है।’’नानक ने कहा—‘‘अच्छा तो ऐसा करो। जिधर खुदा न हो उस ओर मेरा पैर कर दो।’’अब तो मुसलमान चकराये।तब नानक ने समझाया—‘‘उसे सब जगह और सब तरफ न मानकर किसी एक खास जगह में मानना मनुष्य की अपनी बौद्धिक संकीर्णता है। अच्छा हो कि आप लोग भी उसे मेरी ही तरह सब जगह और सब तरफ मानें। इसी में खुदा की बड़ाई है और इसी में हमारी सबकी भलाई है।’’गुरु नानक की सहनशीलता, निर्भीकता और ईश्वरीय निष्ठा देखकर मुसलमानों का अज्ञान दूर हुआ। उन्होंने उन्हें सच्चा संत समझा और अपनी भूल की माफी मांगकर उनका आदर किया।(यु. नि. यो. मार्च 1969 से संकलित)