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कुलोनमकुलीन वा वीरं पुरु षमानिनम्।
चारित्र्यमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाशुचिम॥
—वाल्मीकि रामायण
“मनुष्य का आचरण ही यह बतलाता है कि यह कुलीन है या अकुलीन, वीर है या कायर, पवित्र है या अपवित्र।”
शराबी अपने विचारों में पक्का होता है। बदनामी, धनहीनता और स्वास्थ्य नाश की परवा न करके भी वह शराब पीता है। मन और कर्म की इस एकता से जो दृढ़ता उसमें रहती है उसके फलस्वरूप कई अन्य कमजोर प्रकृति के मनुष्य भी उसके प्रभाव में आकर शराब पीना सीख जाते हैं। चरित्र शिक्षण की यही पद्धति सफल होती है। बुरे स्तर के व्यक्ति अपनी बुराइयों में तन्मय रहकर दूसरे अनेकों को अपना साथी बनाते और बुराई सिखाते हैं।
बुराई की ही भाँति अच्छाई में भी अपनी शक्ति एवं विशेषता होती है पर वह प्रभावशाली तभी बनती है जब मन वचन और कर्म में एकता हो। यदि प्रौढ़ और परिपक्व आचरण के श्रेष्ठ व्यक्ति कभी प्रकाश में आते हैं तो उनसे भी अगणित लोग प्रेरणा प्राप्त करते हैं। गान्धीजी का प्रभाव अभी पिछले ही दिनों हम लोगों ने आँखों से देखा है। उनकी प्रेरणा से अगणित व्यक्तियों की भावनाएँ बदलीं और लाखों व्यक्तियों ने हँसते-हँसते भारी बलिदान की जोखिम उठाई।
अच्छाई इसीलिए पनप नहीं पाती कि उसका शिक्षण करने वाले ऐसे लोग नहीं निकल पाते जो अपनी एक निष्ठा के द्वारा दूसरों की अन्तरात्मा पर अपनी छाप छोड़ सकें। अपने अवगुणों को छिपाने के लिए या सस्ती प्रशंसा प्राप्त करने के लिए धर्म का आडम्बर मात्र ओढ़ लेते हैं। पर उपदेश कुशल बहुत हे पर जो आदर्शों को दैनिक जीवन में कार्यान्वित करें ऐसे लोग कम हैं। यही कारण है कि अच्छाई बढ़ नहीं पाती, फैल नहीं पाती। यदि सज्जनतापूर्ण सच्चे व्यक्तित्व प्रकाश में आने लगें तो उनके प्रभाव से अच्छाइयाँ भी तेजी से फैलें। बुराई का स्थान अच्छाई को मिल जाय और युग परिवर्तन की बात कुछ भी कठिन दिखाई न दे।