
हम बदलेंगे तो जमाना भी बदलेगा
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नये समाज की, सभ्य समाज की, नवयुग की, रचना करने के लिए एक ही प्रक्रिया पूर्ण करनी होगी और वह है—”भाव परिवर्तन”। इसके लिए ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जो इस पुण्य प्रक्रिया की महत्ता और श्रेष्ठता को सच्चे मन से अनुभव करें, उसके लिए कुछ समय देने और श्रम करने को भी तत्पर हों।
राष्ट्र के भावनात्मक निर्माण के लिए अनेकों प्रवृत्तियों को अग्रसर करने की आवश्यकता अनुभव होती है। पर लोक-सेवकों के अभाव में वे सबकी सब कागजी कल्पना जैसी बन कर रह जाती हैं। इस युग में निरक्षरता सबसे बड़ा अभिशाप है। आवश्यकता इस बात की है कि देश में एक भी नर-नारी अपढ़ न रहें। यह कार्य सरकारी स्कूलों के द्वारा संभव नहीं। जो लोग दिन भर काम में लगे रहते हैं वे स्कूल कैसे जावें? और यदि वे जाने भी लगें तो इन करोड़ों लोगों को पढ़ाने का खर्च सरकार कहाँ से लावे?
यह कार्य केवल इस प्रकार हो सकता है कि प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति सेवा बुद्धि से कम-से-कम पाँच व्यक्तियों को साक्षर बनाने की प्रतिज्ञा ले। अपने घर वालों में से, पड़ौसियों में से पाँच व्यक्तियों को शिक्षा की उपयोगिता समझा कर उन्हें एक घंटा प्रतिदिन पढ़ने के लिए तैयार कर लेना कुछ कठिन तो अवश्य है पर असंभव नहीं। शिक्षा का महत्व न समझने वाले इसे बेकार की बात समझेंगे, उपहास करेंगे, असमर्थता प्रकट करेंगे और निराशा की बात कहेंगे। पर प्रयत्न करने वाले में यदि कुछ विशेषता हो और वह लगा ही रहे तो अन्ततः उसे सफलता मिलेगी। प्रौढ़ शिक्षा की दिशा में वह भारी काम कर सकेगा।
“अखण्ड ज्योति परिवार” के 30 हजार सदस्य यदि इसी वर्ष यह कार्य आरम्भ कर दें तो सवा लाख व्यक्तियों को वे शिक्षित कर सकते हैं। आगामी दश वर्षों में 15 लाख का शिक्षण इन दिनों जो हम लोग हैं वे ही कर सकते हैं। यदि अपना परिवार बढ़ता रहे और उसका प्रत्येक सदस्य हर वर्ष एक नया शिक्षित व्यक्ति ऐसा और तैयार कर ले जो हमारी ही तरह प्रौढ़ शिक्षा के लिए समय देने लगे तो आगामी दश वर्ष में वह शृंखला चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती हुई साक्षरता की देश व्यापी आवश्यकता को सहज ही पूरा कर सकती है। हम लोग थोड़े से हैं, पर व्रतशील बनकर इस एक कार्य को ही हाथ में ले लें तो प्रौढ़ शिक्षा को पूरी तरह सुनिश्चित रूप से हमारा अपना परिवार ही पूरा कर सकता है। इतनी बड़ी बात का पूरा होना क्या कोई कम महत्व की बात है?