
सर्वांगीण विकास और उसका आधार
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जीवन का विकास सभी दिशाओं में सन्तुलित रूप में होता रहे तो ही उसकी शोभा, प्रतिष्ठा बनती है। धन का महत्व कितना ही अधिक क्यों न हो केवल उसी का उपार्जन आनन्दमय परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं कर सकता। शिक्षा की महत्ता कितनी ही बड़ी क्यों न मानी जाय अन्य दिशा में यदि पिछड़ापन बना रहे तो वह पढ़ाई भी किस काम की?
स्वास्थ्य की गणना उत्तम सुखों में की जाती है, पर सब गुणों में शून्य हो, केवल भैंसे की तरह शरीर ही हृष्ट पुष्ट बना रहे तो भी उससे कितना प्रयोजन साधेगा? किसी पेड़ की सारी शाखाएँ एक ही ओर झुकी रहें तो उसके टूट गिरने का खतरा रहेगा और कुरूपता भी दिखेगी। सुन्दर वृक्ष वे ही लगते हैं जो सब ओर सामान्य रूप से फैले फूटे होते हैं। जीवन विकास के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है।
एक दिशा में विकसित जीवन किसी कला कौशल के सीखने से, विशेष मनोयोग लगने से, संगति से, संयोग से, दूसरों की सहायता से या अन्य कारणों से भी हो सकता है। चिकित्सा, कला,