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मातरं पितरं विप्रमाचार्य चावमन्य वे।
प पश्यति फलं तस्य प्रेतराजवशं मतः॥
—वाल्मीकि रामायण
“जो कोई माता, पिता, ब्राह्मण और आचार्य का अपमान करता है वह यमराज के यहाँ जाने पर उस पाप का फल भोगता है।”
उत्कृष्ट एवं प्रौढ़ विचारों को अधिकाधिक समय तक हमारे मस्तिष्क में स्थान मिलता रहे ऐसा प्रबंध यदि कर लिया जाय तो कुछ ही दिनों में अपनी इच्छा, अभिलाषा, और प्रवृत्ति उसी दिशा में ढल जायगी और बाह्य जीवन में वह सात्विक परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा। विचारों की शक्ति महान है उससे हमारा जीवन तो बदलता ही है संसार का नक्शा भी बदल सकता है।
कैसा अच्छा होता कि प्राचीन काल की तरह जीवन के प्रत्येक पहलू पर उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करने वाले साधु ब्राह्मण आज भी हमें उपलब्ध रहे होते। वे अपने उज्ज्वल चरित्र, सुलझे हुए मस्तिष्क और परिपक्व ज्ञान द्वारा सच्चा मार्गदर्शन करा सकते तो कुमार्ग पर ले जाने वाली सभी दुष्प्रवृत्तियाँ शमन होतीं। पर आज उनके दर्शन दुर्लभ हैं। जो देश काल पात्र की स्थिति का ध्यान रखते हुए आज के बुद्धिवादी एवं संघर्षमय युग के अनुरूप समाधान प्रस्तुत करके जीवन को ऊँचा उठाने वाले व्यवहारिक सुझाव दे सकें, आज ऐसे मनीषी कहाँ हैं? उनका अभाव इतना अखरा है कि चारों ओर सूना ही सूना दीखता है। ऋषियों की यह भूमि ऋषि तत्व से रहित हो गई जैसी लगती है।
दुर्भाग्य एक और भी है कि स्वाध्याय के उपयुक्त साहित्य भी कहीं-कहीं ही दृष्टिगोचर होता है। पुस्तक विक्रेताओं की दुकानें खोज मारने पर मुश्किल से ही कुछ पुस्तकें ऐसी मिलेंगी जो जीवन निर्माण के लिए आज की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए व्यवहारिक सुझाव प्रस्तुत करती हों। प्रेसों में ऐसा कूड़ा कचरा दिन रात छपता है जिसे पढ़कर लोगों के दिमाग और भी अधिक खराब हों।
आज की परिस्थितियों में जो भी संभव हो हमें ऐसा साहित्य तलाश करना चाहिये जो प्रकाश एवं प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता से सम्पन्न हो। उसे पढ़ने के लिए कम से कम घन्टा निश्चित रूप से नियत करना चाहिए। धीरे-धीरे समझ-समझ कर विचारपूर्वक उसे पढ़ना चाहिए। पढ़ने के बाद उन विचारों पर बराबर मनन करना चाहिये। जब भी मस्तिष्क खाली रहे यह सोचना आरम्भ कर देना चाहिए कि आज के स्वाध्याय में जो पढ़ा गया था, उस आदर्श तक पहुँचने के लिए हम प्रयत्न करें, जो कुछ सुधार संभव है उसे किसी न किसी रूप में जल्दी ही आरम्भ करें। श्रेष्ठ लोगों के चरित्रों को पढ़ना और वैसा ही गौरव स्वयं भी प्राप्त करने की बात सोचते रहना मनन और चिन्तन की दृष्टि से आवश्यक है।