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यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकित।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्॥
—पंच तन्त्र
“यौवन, धन संपत्ति, प्रभुता और अविवेक इनमें से एक-एक भी अनर्थ का कारण होता है, फिर जहाँ ये चारों मौजूद हों उसके लिये क्या कहना।”
संगीत, शिल्प जैसे गुण प्रयत्न और पुरुषार्थ से मिल सकते हैं, पर समग्र विकास के लिए मानवीय सद्गुणों की ही अपेक्षा रहेगी। यदि व्यक्तित्व दोष, दूषणों से भरा हुआ है सुसंतुलित विकास कभी भी संभव न हो सकेगा। एक दिशा में थोड़ा सफल दीखते हुए भी मनुष्य अन्य सभी दिशाओं में असफल बना रहेगा। एकाँगी विकास से आनन्द एवं संतोष की परिस्थितियाँ किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकतीं।
जिस प्रकार अच्छा बीज, उर्वर जमीन और उचित खाद पानी पाकर ठीक तरह बढ़ता और फलता फूलता है, उसी तरह जीवन के खेत में सद्गुणों के बीज उचित पुरुषार्थ की अनुकूल परिस्थितियों का खाद पानी पाकर विभूतियों एवं समृद्धियों से पल्लवित, पुष्पित और फलित होते रहते हैं। दुर्गुणी व्यक्ति अनुकूल परिस्थितियों के होते हुए भी दीनता एवं हीनता से ऊपर नहीं उठ पाते। दुर्भाग्य उन्हें जीवन सहचर की तरह हर जगह घेरे-घेरे ही फिरता रहता है। इसलिए जीवन विकास की बात सोचने के साथ ही हमें यह भी सोचना चाहिए कि व्यक्तित्व का सुसंतुलित निर्माण करने की दिशा में आवश्यक प्रयत्न किये जाते रहें।
यह सोचना गलत है कि किसी भी तरीके से धन कमा लिया और मनमाना खर्च करने की सुविधा रहे तो बस फिर आनन्द ही आनन्द रहेगा। सच बात यह है कि दुर्गुणी व्यक्तियों के पास यदि धन बढ़े भी तो इससे उनके लिए अगणित समस्याएँ तथा चिन्ताएँ उत्पन्न होंगी। धन का सच्चा लाभ सदुपयोग से मिलता है और ऐसा सदुपयोग केवल सत्प्रकृति के व्यक्तियों से ही संभव होता है।
आये दिन ऐसी घटनाएँ देखने और सुनने में आती रहती हैं कि धन सम्पत्ति की छीन झपट के प्रश्न को लेकर सम्पन्न परिवारों में फौजदारी, मुकदमेबाजी, शत्रुता एवं हत्या डकैती तक की दुर्घटनाएं घटित होती हैं। लड़के कुपात्र निकल जाते हैं और जुआ, शराब, व्यभिचार एवं अनेक प्रकार के व्यसनों में पूर्वजों की कमाई को उड़ा डालते हैं। अत्यधिक कमाने की तृष्णा में संलग्न व्यक्ति समय-कुसमय का, आराम, विश्राम का ध्यान छोड़कर दिन रात बेतरह जुटे रहते हैं और अपने स्वास्थ्य को खराब कर लेते हैं। लोभवश बेईमानी करके कितने ही व्यक्ति लोक निन्दा और परलोक में पाप के भागी बनते हैं। इस प्रकार के अनेकों अनर्थ और दुःख उन लोगों को सहन करने पड़ते हैं, जिनके पास धन तो है पर उसका सदुपयोग कर सकने लायक सद्बुद्धि नहीं है।
कई व्यक्ति स्वल्प साधना की सहायता से ही अपने मधुर स्वभाव, श्रम, पुरुषार्थ, उत्साह, सूझबूझ और अध्यवसाय के द्वारा भारी उन्नति कर लेते हैं, किन्तु कितने ही ऐसे भी होते हैं जो भरपूर, साधन सुविधाओं के होते हुए भी आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, लापरवाही फिजूल खर्ची जैसे दोषों के कारण निरन्तर हानि उठाते चलते हैं और अन्त में दिवालिया हो जाते हैं। आज साधनों को बहुत महत्व दिया जाता है पर भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि साधनों का लाभ केवल उन्हें ही मिलेगा जिनमें आवश्यक मात्रा में सद्गुण रहे होंगे। बुरे लोग भी जो कुछ उन्नति कर पाते हैं उसमें भी अधिकाँश श्रेय उन अच्छाइयों का रहता है जो बुरे लोगों में भी एक सीमा तक रही होती हैं।
डाकू को जो सफलता मिलती है उसमें सारा श्रेय उसकी दुष्टता या अनैतिकता को ही नहीं मिल सकता। उसमें जो साहस, धैर्य, तितीक्षा, सतर्कता, निरोगिता, संगठन जैसे थोड़े बहुत गुण रहते हैं उन्हीं के बलबूते पर उसे लाभ मिलता है। यदि यह गुण न हों, कोई डाकू डरपोक, अधीर, चिन्तित, आरामतलब व आलसी, लापरवाह, रोगी, पृथकतावादी हो तो वह बहुत जल्दी विपत्ति में फँस जायगा। केवल अनीति पर उतारू होने से ही किसी को लाभदायक स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती। चाहे सज्जन हो या दुर्जन, भले या बुरे किसी भी कार्य को सम्पन्न करने में हर मनुष्य को सुसंतुलित व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। जिसने अपने को जितना गुणवान बना लिया होगा वह अपने लक्ष की ओर उतना ही अग्रसर बन सका होगा।
धन, शिक्षा, शिल्प, कला, कौशल, पद, यश आदि विभूतियों का उपार्जन, मन को लक्ष्य में तत्परतापूर्वक संलग्न करने, परिश्रम से प्रेम करने, समय फालतू न गंवाने, चित्त को अपने अभीष्ट विषय में लगाये रहने से ही संभव होता है। अपने अभीप्सित विषय का जिसका जितना मन लगेगा, उसके लिए जितना श्रम किया जायगा उतनी ही सफलता मिलेगी। परोपकार के श्रेष्ठ सत्कर्म कर सकना, यश और पुण्य कमाना भी उन्हीं के लिए संभव होता है जिनकी मनोभावनाएं पूरी तरह उस लक्ष में तन्मय रहती हैं।
ईश्वर प्राप्ति और आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति केवल वे लोग कर पाते हैं जो अपनी मनोभूमि को प्रयत्नपूर्वक दैवी गुणों से सुसज्जित और आसुरी वृत्तियों से रहित करने में प्राणमय से संलग्न होते हैं। जिन्होंने इस प्रकार आत्मनिग्रह की उपेक्षा की, दोष दुर्गुणों के सुधारने की उपेक्षा करके केवल थोड़ा पूजा पाठ करना ही पर्याप्त समझा—उनके लिए उस महान लक्ष की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं होती।