
भगवान बुद्ध और अंगुलिमाल डाकू
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भगवान बुद्ध एक बार निबिड़ वन को पार करते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनकी भेंट अंगुलिमाल डाकू से हो गई। वह सदैव अनेक निर्दोषों का वध करके उनकी उंगलियों की माला अपने गले में धारण किया करता था। आज सामने आये हुए साधु को देखकर उसकी बाछें खिल उठीं।
“आज आप ही मेरे पहले शिकार होंगे” अँगुलिमाल ने बुद्ध से कहा और अपनी पैनी तलवार म्यान से बाहर निकाली।
तथागत मुसकराये, उनने कहा—”वत्स, तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। मैं कहीं भागने वाला नहीं हूँ। दो क्षण का विलम्ब सहन कर सको तो मेरी एक बात सुन लो।”
डाकू ठिठक गया, उसने कहा—”कहिए—क्या कहना है?”
तथागत ने कहा—”सामने वाले वृक्ष से एक पत्ता तोड़कर जमीन पर रख दो।” डाकू ने वैसा ही कर दिया। उन्होंने फिर कहा—”अब इसे पुनः पेड़ से जोड़ दो।” डाकू ने कहा—यह कैसे संभव है। तोड़ना सरल है पर उसे जोड़ा नहीं जा सकता।
बुद्ध ने गंभीर मुद्रा में कहा—वत्स, इस संसार में मार-काट तोड़-फोड़ उपद्रव और विनाश यह सभी सरल हैं। इन्हें कोई तुच्छ व्यक्ति भी कर सकता है फिर तुम इसमें अपनी क्या विशेषता सोचते हो और किस बात का अभिमान करते हो? बड़प्पन की बात निर्माण है—विनाश नहीं। तुम विनाश के तुच्छ आचरण को छोड़कर निर्माण का महान कार्यक्रम क्यों नहीं अपनाते?
अंगुलिमाल के अन्तःकरण में वे शब्द तीर की तरह घुसते गये। तलवार उसके हाथ से छूट पड़ी। कातर होकर उसने तथागत से पूछा—”इतनी देर तक पाप कर्म करने पर भी क्या मैं पुनः धर्मात्मा हो सकता हूँ?” वे बोले—”वत्स, मनुष्य अपने विचार और कार्यों को बदल कर कभी भी पाप से पुण्य की ओर मुड़ सकता है। धर्म का मार्ग किसी के लिए अवरुद्ध नहीं है। तुम अपना दृष्टिकोण बदलोगे तो सारा जीवन ही बदल जायगा।” विचार बदले तो मनुष्य बदला। अँगुलिमाल ने दस्यु कर्म छोड़कर प्रव्रज्या ले ली। वह भगवान बुद्ध के प्रख्यात शिष्यों में से एक हुआ।