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कुरंग, मातंग, पतंग, भृंग, मीना
हताः पंच भिरेव पंच।
एकः प्रमादी स कथँ न हन्यते
यस्सेवते पंचभिरेव पंच॥
“हिरन गाने से, हाथी कामोपभोग से, पतंग रूप पर मोहित होने से, भ्रमर गंध से और मछलियाँ जिह्वा के स्वाद में आसक्त होकर अपने प्राण खोते हैं। फिर जिन्हें, पाँच इन्द्रियाँ हैं और जो उन सबों के विषय में फँसे रहते हैं तो वे मृत्यु-संकट से कैसे रक्षित रह सकते हैं?”
रात को सोते समय दिन भर के कार्यों का लेखा जोखा लेना चाहिये। जिस प्रकार प्रातः या दिन में कोई समय स्वाध्याय के लिये नियम किया गया है उसी प्रकार रात को सोते समय कुछ मिनट अपने दिन भर के कामों पर समीक्षक की कठोर दृष्टि से आवश्यक विवेचन करने में लगाये जायँ। शरीर से प्रायः कम ही दुष्कर्म होते हैं पर मन में यह बुरी लत पड़ी रहती है कि छोटे कारणों को लेकर बुरी-बुरी बातें सोचने लगे। किसी का रूप यौवन देखकर उसकी ओर अनैतिक भाव उठते हैं, कोई हमारी थोड़ी-सी हानि कर दे तो उसके प्रति मारने मरने तक की प्रतिहिंसा जगती है, किसी की बढ़ती को देखकर ईर्ष्या होना, कहीं स्वार्थ सधता दीखे तो चोरी की इच्छा होना जैसे अनेकों दुर्भाव मन में उठते रहते हैं। यद्यपि वह दुर्भाव कार्यान्वित नहीं हो सके, किसी पर प्रकट भी नहीं हुए, पर उनसे अपनी जो हानि होनी थी वह तो हुई ही। मनोभूमि अपवित्र हुई, अनीति को प्रश्रय मिला और पाप का बीजाँकुर उत्पन्न हुआ। यदि कभी ऐसा अवसर आवे कि बाहरी रोक-थाम न हो तो उठने वाले कुविचार आसानी से चरितार्थ भी हो सकते हैं।
जो चोरी करने की बात सोचता रहता है उसके लिये अवसर पाते ही वैसा कर बैठना क्या कठिन होगा? शरीर से ब्रह्मचारी और मन से व्यभिचारी बना हुआ व्यक्ति वस्तुतः व्यभिचारी ही माना जायगा। मजबूरी के प्रतिबन्धों से शारीरिक क्रिया भले ही न हुई, पर वह पाप सूक्ष्म रूप से मन में तो मौजूद था। मौका मिलता तो वह कुकर्म भी हो ही जाता।
कई बार सदाचारी समझे जाने वाले लोग आश्चर्यजनक दुष्कर्म करते पाये जाते हैं । उसका कारण यही है कि उनके भीतर-ही-भीतर वह दुष्प्रवृत्ति जड़ जमाये बैठी रहती है। उसे जब भी अवसर मिलता है नग्न रूप में प्रकट हो जाती है। इसलिये प्रयत्न यह होना चाहिये कि मनोभूमि में भीतर ही भीतर छिपे रहने वाले दुर्भावों का उन्मूलन करते रहा जाय।
रात को सोते समय आत्म-निरीक्षण करके यह देखना चाहिये कि आज कब-कब, किस-किस घटना को लेकर क्या-क्या दुर्भाव हुए? फिर सोचना चाहिए कि इन भावों के स्थान पर किन-किन भावों का आना उचित था। आगे जब कभी ऐसे अवसर आवें तो इस प्रकार सोचने की बजाय हम इस प्रकार सोचा करेंगे, इस प्रकार की विचारणा करनी चाहिए और मन को वैसी ही सलाह देनी चाहिये। इसके लिये कोई कठोर व्रत लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन एक दिन का काम नहीं है। रोज ही यह प्रयत्न चलता रहे तो दृष्टिकोण स्वयं ही बदलने लगता है। दुष्प्रवृत्तियां वहीं पनपती रहती हैं जहाँ उनकी रोक-थाम नहीं होती। चोरों की घात अँधेरे में ही लगती है, मच्छर सीलन के स्थान पर अण्डे देते हैं, इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियाँ वहीं पनपेंगी जहाँ उन पर कड़ी नजर न रक्खी जायगी। जहाँ चौकीदारी का, जाँच पड़ताल का, ठीक प्रबन्ध रहता है वहाँ चोरों की घात नहीं लगती। दुर्भाव भी एक प्रकार के चोर ही हैं जो वहाँ ठहरते हैं जहाँ निरीक्षण न होता हो। चौकसी और निगरानी को देखकर उन्हें वह स्थान छोड़ने को ही विवश होना पड़ता है।
अगले दिन क्या कार्य करने हैं और उनमें क्या-क्या ऐसे अवसर आ सकते हैं जिनमें दुर्भावनाएं उठने की संभावना है। यदि आशंका के अनुरूप परिस्थिति आये तो उस समय मन में क्या-क्या प्रतिक्रिया उठे? क्या दृष्टिकोण रहे? आदि बातों को पहले से ही सोच रखना चाहिए और अवसर आने पर वैसी ही भावनाएँ मन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए।
इस प्रकार दिन में सद्विचारों का अभ्यास करना और रात को उनकी विवेचना करना उचित है। आज की समीक्षा और कल की तैयारी करने से कुविचारों पर नियंत्रण प्राप्त करते चलना सहज होता जाता है। उसी प्रकार जो सद्गुण अपने में नहीं थे, उन्हें किस प्रकार धीरे-धीरे अपने स्वभाव में शामिल किया जाय, इसकी नित्य विवेचना होती रहे तो उनका भी अभ्यास में सम्मिलित हो जाना कुछ कठिन नहीं रहता।
दिन में किसी समय कम से कम एक घण्टे का जीवन-निर्माता स्वाध्याय, रात को एक या आधा घण्टा आत्म-निरीक्षण एवं निर्माण की विवेचना का यदि नित्य नियम रहे और दिनभर अपने विचारों और आचरणों पर कड़ी निगरानी रखी जाय तो हमारी आन्तरिक गतिविधियों में भारी परिवर्तन हो सकता है। दैनिक जीवन में क्या परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर आमतौर से क्या विचार उठा करते हैं उन्हें समझना चाहिए और यह विचार करना चाहिये कि उनमें कितना औचित्य एवं कितना अनौचित्य रहता है। जो अनुचित हो उसे छोड़कर उसके स्थान पर उचित दृष्टिकोण अपनाने की बात सोची जाय तो यह विचारणा कार्य रूप में भी परिणत होने लगती है।