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Magazine - Year 1963 - Version 2

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दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दीनहि लखे, दीनबंधु सम होय॥

दिव्य दीनता के रसहिं, का जानै जग अन्धु।

भली विचारी दीनता, दीन बंधु के बंधु॥

ऊँचे पानी न टिकै, नीचे ही ठहराय।

नीचा होय सो भर पिवै, ऊँचा प्यासा जाय॥

सत्त नाम कड़वा लगे, मीठा लागे दाम।

दुविधा में दोऊ गये, माया मिली न राम॥

पर रहने की उपवास प्रक्रिया को प्रचलित किया जाय। आध्यात्मिक, धार्मिक, शारीरिक, मानसिक, राष्ट्रीय हर दृष्टि से यह उपवास आवश्यक है। इस प्रक्रिया के प्रचलित होने से 7 प्रतिशत अन्न की बचत हो सकती है और बिना उत्पादन बढ़े भी सारी समस्या का तत्काल हल निकल सकता है।

कुछ लोग यह उपवास बिलकुल न करेंगे तो कुछ ऐसे भी होंगे जो पूरे दिन का साप्ताहिक उपवास रखेंगे। इस प्रकार यदि यह आन्दोलन जोर पकड़ता है तो न केवल खाद्य समस्या ही हल हो वरन् मनुष्यों में इस बहाने देश भक्ति, जनहित एवं स्वावलम्बन की भावनाएँ भी उमड़ें। उपवास का स्वास्थ्य पर जो आशाजनक प्रभाव पड़ेगा वह लाभ तो और भी अधिक उत्साहवर्धक होगा। सात्विक आहार, मसालों की उपेक्षा, कड़ी भूख लगने पर चबा-चबा कर ही भोजन करना, भगवान के अर्पण करके खाना आदि कितनी ही भोजन संबंधी सत्प्रवृत्तियाँ इसी आन्दोलन के साथ-जोड़ी जा सकती हैं और उनका शारीरिक और मानसिक दृष्टि से आशाजनक सत्परिणाम हो सकता है।

देखा देखी ही तो प्रवृत्तियाँ पनपती हैं। हम 30 हजार व्यक्तियों में से प्रत्येक का परिवार पाँच मनुष्यों का भी हो तो डेढ़ लाख व्यक्ति, कल से ही यह खाद्य बचत का, आहार शुद्धि का व्रत आन्दोलन चला सकते हैं। और प्रयत्न करें तो उसकी प्रेरणा दूसरों को भी देकर इस प्रक्रिया को देशव्यापी बना सकते हैं। निश्चय ही उसका राष्ट्र की खाद्य समस्या पर भारी असर पड़ेगा।

जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए ब्रह्मचर्य को व्यवहारिक बनाने के लिए हम अधिक निष्ठापूर्ण आचरण करें। वासना भड़काने वाले साहित्य, चित्र, फिल्म, दृश्य एवं प्रसंगों का बहिष्कार करें। वानप्रस्थ की परम्परा आरम्भ करें, बाल विवाहों को रोकें, संतति सीमा बन्ध का ध्यान रखें। इस संबंध में परिवार नियोजन विशेषज्ञों का भी परामर्श प्राप्त करें।

छोटे परिवारों का उत्तरदायित्व भी ठीक तरह निवाह सकना आज की स्थिति में कठिन पड़ता है तो उसे अधिक क्यों बढ़ाया जाय? यह विचार-धारा हम लोगों के जीवन में स्थान प्राप्त करे तो स्वास्थ्य सुधरेगा, आयु बढ़ेगी, ब्रह्मचर्य का तेज व्यक्तित्व के विकास में सहायता करेगा और आत्मबल की आशाजनक आम वृद्धि होगी। जन संख्या की बढ़ोतरी रोकने का राष्ट्रीय प्रश्न थोड़ी-सी सावधानी रखने से ही हल हो सकता है।

सामाजिक कुरीतियाँ अन्ध-परम्पराओं के रूप में ही बढ़ती हैं। उनके पीछे विवेक नहीं अनुकरण ही प्रधान होता है। यदि बुरी प्रथाओं के दुष्परिणामों को समझते हुए भी लोग देखा-देखी हानि कारक बातों को अपनाये रहते हैं तो वैसी ही अनुकरणीय आदर्श और उपयोगी परम्पराएँ हम लोग प्रस्तुत करने लगें तो निश्चय ही उनका भारी स्वागत होगा और जनता उन्हें भी एक परम्परा मान कर उत्साहपूर्वक उस मार्ग पर चलने लगेगी।

गायत्री यज्ञ आन्दोलन को आरम्भ करते हुए यज्ञ कार्यों को केवल पंडितों का ही अधिकार न मान कर प्रत्येक गायत्री-उपासक को, महिलाओं को सम्मिलित करने और गुपचुप मन्त्र न पढ़कर सस्वर उच्चारण करने की प्रक्रिया को जन्म दिया था तो आरंभ में उसका थोड़ा विरोध हुआ पर अब वह सब एक परम्परा बन गया। सर्वत्र अब इसी परम्परा को अपनाया जाता है और कोई उसका विरोध नहीं करता। कन्या भोज की प्रथा जोर पकड़ती जाती है और कच्चा भोजन सामूहिक सम्मेलनों में बिना ननुनच के स्वीकार किया जाता है। आरम्भ में जो विरोध था वह समाप्त हुआ। बड़े पैमाने पर जो भी भले-बुरे कार्य होने लगते हैं वे ही एक प्रथा बन जाते हैं। हमारे 30 हजार परिवार आसानी से उपयोगी परम्पराओं को जन्म दे सकते हैं।

दहेज की हत्यारी कुप्रथा का अन्त करने के लिए यदि हमारे 30 हजार परिवार तैयार हो जायें तो आदर्श विचारों का एक नया दौर देश भर में खड़ा हो सकता है। बिना दहेज के, बिना जेवरों के, बिना गाजे बाजे के, बहुत छोटी बरात के, परम सात्विक वातावरण में सम्पन्न होने वाले विवाहों को देखकर जन-मानस की कली खिल पड़ेगी और असंख्यों व्यक्ति उसी का अनुकरण करने लगेंगे। क्या इतना साहस दिखा सकना अपने परिवार के लिए कुछ असंभव कार्य है? हम लोग थोड़ी हिम्मत दिखावें तो आसानी से ऐसी परम्परा चल पड़ सकती है। हिन्दू जाति के मुँह पर लगी हुई एक भारी कलंक कालिमा धुल सकती है और हर सद्गृहस्थ को चिन्ता में जलाने वाली, खून के आँसुओं से रुलाने वाली उस दुष्ट पूतना का अन्त हो सकता है।

जातियों और उपजातियों का जंजाल देश में फूट फैलाने और दहेज जैसी कुप्रथाओं को जन्म देने का प्रधान कारण है। अब समय आ गया है कि जातियाँ न सही तो उपजातियों की संकीर्णता तो समाप्त करने के लिए कदम बढ़ा ही दिया जाय। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-शास्त्रों में इन चार ही जातियों का वर्णन मिलता है। उप-जातियों का जंजाल काट कर रोटी-बेटी का दायरा जाति मात्र में बढ़ा दिया जाय, तो अच्छे लड़के ढूँढ़ने में, अच्छी कन्याएँ प्राप्त करने में भारी सुविधा हो सकती है।

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