
दिग्भ्रान्त-साधक (kavita)
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जब पत्रकार की कलम कहीं बिक जाती है,
तब बुझ जाती है उसकी सारी तेज आग।
बेजान खोखले हो जाते हैं शब्द सभी,
वे जगा नहीं पाते फिर सोया हुआ भाग
जब गायक के दो अधर स्वर्ण से मढ़ जाते,
सब सातों स्वर हो जाते हैं नाराज बहुत।
वह गाने लगता है संकेत इशारों पर
करने लगते हैं किन्तु बगावत साज बहुत॥
जब फर्माइश पर लिखने लगता कविता कवि,
तब सरस्वती पछताती है सिर धुनती है।
शब्दों की तब शक्तियाँ सभी संन्यासिन हो,
कविता के चरम पतन की गाथा सुनती हैं॥
जब राह दिखाने वाले कदम भटक जाते,
तब जन जीवन की प्रगति सभी रुक जाती है।
तब देश समूचा अन्धकार में खो जाता,
मंजिल पर पहुँचे बिना दृष्टि थक जाती है॥
जब विद्रोही खुद कर सकता है सलाम,
तब बेखटके अन्याय जुल्म होने लगता।
शूली पर चढ़ने वाले करते समझौता,
तब राष्ट्र शहीदों की गरिमा खोने लगता।
जब पूर्वाग्रहों में कैद समीक्षा हो जाती ।
तब नीर क्षीर पिक काक भेद ही मिट जाता।
सब की है अलग कसौटी और अलग निर्णय,
निस्पृह साधक इस भीड़ भाड़ में लुट जाता॥
—दिनकर सोनवलक
*समाप्त*