
Quotation
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजा।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता वार्यते,
क्षीयन्तेऽखिल भूषणानि सतत बाग्भूषणं भूषणम्॥
—भर्तृहरि
“बाजूबन्द अथवा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार मनुष्य को विभूषित नहीं करते, न स्नान से, न सुगन्धित उबटन से, न फूलों से और न सँवारे हुये केशों से उसकी शोभा वृद्धि होती है। एक मात्र संस्कारित वाणी ही मनुष्य का सच्चा आभूषण है जिसके सन्मुख अन्य सब आभूषण फीके पड़ जाते हैं।”
स्कूली पढ़ाई जिसमें गणित, भूगोल, इतिहास, साहित्य आदि की जानकारी कराई जाती है शिक्षा कहलाती है और जीवन का स्वरूप-उसका लक्ष, कर्तव्य एवं दृष्टिकोण निर्धारित करने संबंधी विवेचना को ‘ज्ञान’ कहते हैं। ज्ञान को ही अमृत कहते हैं। आत्मा का स्वरूप समझ कर तदनुरूप गतिविधियाँ अपनाने से मनुष्य महापुरुष ऋषि, दृष्टा और अवतार बन जाता है। आत्मोत्कर्ष की सीढ़ी ज्ञात ही तो है।
ज्ञान की आराधना इस विश्व का सबसे श्रेष्ठ सत्कर्म है। इसीलिए ब्रह्म-दान एवं ब्रह्म-भोज की महत्ता अत्यधिक मानी जाती है। अन्न से शरीर की भूख बुझती है, ज्ञान की आत्मा की क्षुधा शान्त की जाती है, अन्न से शरीर पुष्ट होता है और ज्ञान से आत्मबल बढ़ता है। इसलिए अन्न, वस्त्र, आदि के दानों की अपेक्षा ज्ञान-दान का पुण्य असंख्यों गुना अधिक माना गया है। अन्न आदि के दान का प्रतिफल जीव को अन्य योनियों में भी मिल सकता है। अच्छा भोजन तो पशु पक्षी भी कर लेते हैं, पर ज्ञान का प्रतिफल मनुष्य योनि में ही प्राप्त हो सकता है, इस लिए ज्ञान-दान करने वालों को अपने पुण्यों का प्रतिफल इसी रूप में प्राप्त करने के लिए मनुष्य योनि में ही अगला जन्म लेने का अधिकार तो मिल ही जाता है।
अन्न, जल, धन आदि से शरीर की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। कुछ समय के लिए शारीरिक असुविधाएँ ही दूर होती हैं, इसलिए उनका पुण्य फल भी उतना ही सीमित माना गया है। ज्ञान-दान से आत्मविकास होता है, तथा संसार में प्रेम, पुण्य, शान्ति और समृद्धि की बढ़ोत्तरी होने की व्यवस्था बनती है। इतने महत्वपूर्ण कार्य का प्रतिफल भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। इसीलिए सब दानों से ‘ब्रह्मा दान’ की गरिमा अधिक है। सब दानियों में ब्रह्मदानी की अधिक प्रशंसा होती है। ब्राह्मण लोग निर्धन होते हुए भी निरन्तर ब्रह्मदान में लगे रहने के कारण ‘भूसुर’—पृथ्वी के देवता—जैसी गौरवास्पद पदवी प्राप्त करते थे। इस ब्रह्मकर्म में रत रहने वाले ब्राह्मणों को भोजन कराने का भी पुण्य इसीलिए था कि उस अन्न से निर्वाह होने पर वे शरीर से अधिक ब्रह्म-कर्म कर सकते थे ब्रह्म-का अर्थ ‘ज्ञान’ भी है। ज्ञान की उपासना ‘ब्रह्म’ की उपासना के रूप में ही की जाती है। आत्मा में ज्ञान का प्रकार बन कर ही ब्रह्म का अवतरण होता है।
जिस प्रकार दैनिक जीवन में लौकिक और पारलौकिक दृष्टि से हम अनेकों कार्य नियमित रूप से करते हैं उसी प्रकार ज्ञान-यज्ञ के लिए भी कुछ समय निर्धारित करना चाहिए। उत्कृष्ट जीवन के लिए प्रेरणा देने वाले सद्ज्ञान को स्वयं पढ़ना समझना और मनन चिन्तन करना आत्म कल्याण की दृष्टि से आवश्यक है। सद्भावनाओं की शिक्षा दूसरों को देना परोपकार की सबसे पुनीत प्रक्रिया है। इन दोनों का समावेश ज्ञान यज्ञ में होता है। प्रेरणाप्रद सद् विचारों की सम्पत्ति अपने लिए जमा करना और उस श्रेय-साधन से दूसरों को लाभान्वित बनाना इतना श्रेष्ठ सत्कर्म है कि उसकी तुलना और किसी शुभ कार्य से नहीं हो सकती। ज्ञान यज्ञ की तुलना में अन्य सब यज्ञ तुच्छ ही माने जा सकते हैं।
ज्ञान-यज्ञ में समय-रूपी घृत की आहुतियाँ देनी पड़ती हैं। जिस प्रकार बिना घृत होमे अग्निहोत्र सम्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार समय-दान दिये बिना कोई ज्ञान-यज्ञ का होता भी नहीं हो सकता। अग्निहोत्र में कुछ न कुछ धन खर्च करना ही पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान-यज्ञ में समय लगाये बिना काम नहीं चल सकता। फुरसत न मिलने का बहाना करके इस सत्कर्म के लाभ से वंचित ही रहना पड़ता है। स्वाध्याय के लिए, मनन चिन्तन के लिए कोई तो समय चाहिए ही। दूसरों को प्रेरणा देने के लिए उनके पास जाना, बैठना, चर्चा करना समय लगाने पर ही संभव होगा। इसलिए शरीर के लिए, कमाने-खाने की ही तरह ही आत्मा के लिए ज्ञान यज्ञ में कुछ समय लगाना भी हमें आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य समझना चाहिए।
फुरसत न मिलने का शाब्दिक अर्थ कुछ भी हो, वास्तविक अर्थ यह है कि उस कार्य को दूसरे कर्मों की अपेक्षा कम महत्व का समझा गया है। जो काम जरूरी प्रतीत होता है उसे अन्य सब काम छोड़ कर प्राथमिकता दी जाती है। बच्चा बीमार हो जाय, मुकदमे की तारीख हो, या व्यापार संबंधी कोई जरूरी काम आ जाय तो अन्य कामों को छोड़ कर भी पहले उसे करते हैं। शरीर में रोग उठ खड़ा हो तो सबसे पहले उसी की चिन्ता करते हैं। जो सबसे जरूरी काम समझा जाता है उसके लिए सबसे अधिक समय दिया जाता है जो अनावश्यक, महत्वहीन और उपेक्षणीय समझे जाते हैं। ज्ञान-या की पुण्य-प्रक्रिया को उतना महत्वहीन न समझा जाना चाहिए कि फुरसत न मिलने का बहाना बना कर उससे पिण्ड छुड़ाने का उपक्रम करना पड़े। स्नान, भोजन, शयन, नित्यकर्म जैसे आवश्यक कार्यों में ही हमें इस पुण्य-प्रक्रिया को भी अपने दैनिक कार्यों में प्रमुख स्थान देने का प्रयत्न करना चाहिए।
अन्य शुभ कार्य धन देने से भी हो सकते हैं। धर्मशाला, मंदिर, कुआँ, तालाब, सदावर्त, प्याऊ,