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हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम्।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम्॥
—अज्ञात
“हाथ का भूषण दान है, कण्ठ का आभूषण सत्य-भाषण है, शास्त्र सुनना कानों का भूषण है। फिर दूसरे आभूषणों की क्या आवश्यकता हैं?”
वानप्रस्थ के बाद संन्यास लेकर लोक सेवा के लिए परिव्राजक व्रत धारण करने का पूर्व नियम इसीलिए था कि जीवन भर की सुसंस्कार साधना के उपरान्त व्यक्ति जब तृष्णा-वासना और पुत्रेषणा वित्तेषणा, लोकेषणा से रहित हो जाय।
पीछे तो इसका विस्तार अपरिमित क्षेत्र में होना है। अगणित व्यक्ति, संगठन, देश और समूह इस योजना को अपने-अपने ढंग से कार्यान्वित करेंगे। जिस प्रकार आध्यात्मवाद, साम्यवाद, भौतिकवाद आदि अनेक ‘वाद’ कोई संस्था नहीं वरन् विचार-धारा एवं प्रेरणा होती हैं, व्यक्ति या संगठन इन्हें अपने-अपने ढंग से कार्यान्वित करते हैं, इसी प्रकार युग-निर्माण कार्यक्रम एक प्रकाश-प्रवाह एवं प्रोत्साहन उत्पन्न करने वाला एक मार्गदर्शन बनकर विकसित होगा। आज “अखण्ड-ज्योति परिवार” उसकी प्रथम भूमिका सम्पादित करने का विनम्र प्रयत्न मात्र ही कर सकेगा। इतना कार्य कर सकने की क्षमता उसमें मौजूद है यह भली प्रकार सोच समझकर, नाप तोलकर ही कार्य आरम्भ किया गया है। ‘लोग हँसाई’ का हमें भी ध्यान है।
‘एक से दस’ योजना के अंतर्गत प्रत्येक परिजन को यह काम सौंप दिया गया है कि वह मछली पकड़ने के लिए काम में आने वाली आटे की गोली की तरह ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका को माध्यम बनाकर सुसंस्कारी लोगों की तलाश करे और जहाँ जितने व्यक्ति इस प्रकार के मिल जावें वहाँ उन्हें प्रोत्साहित करने के लिये उनके घरों पर जाकर मिलने की ‘धर्म फेरी’ प्रक्रिया और उन्हें इकट्ठे करके समय-समय पर ‘विचार गोष्ठी’ चलाने की प्रक्रियाओं द्वारा यह प्रयत्न करते रहें कि उनके सुसंस्कारों का अभिवर्धन और परिपाक नियमित रूप से होता रहे। केवल स्वाध्याय ही पर्याप्त नहीं, उसके साथ-साथ जीवित प्रेरणा जुड़ी रहे तो ही सोने-सुगन्धि का योग बनता है। ‘अखण्ड-ज्योति’ जिस विचारधारा को प्रस्तुत करती है उसकी सजीव प्रेरणा, पाठकों को देना अपने प्रबुद्ध परिजनों का काम है। अपने को, अपने परिवार को और अपने प्रभाव क्षेत्र को आवश्यक प्रकाश देने की क्षमता हममें से प्रत्येक में मौजूद है, अब समय है कि उसका उचित उपयोग आरम्भ कर दिया जाय।
दूसरा कार्यक्रम इससे भी महत्वपूर्ण है वह है—”नई प्रबुद्ध पीढ़ी का अवतरण” इस संबन्ध में दिसम्बर 62 की पत्रिका के पृष्ठ 46 पर आवश्यक संकेत किया जा चुका है। युग बदलना सुनिश्चित है। सन् 62 के अष्टग्रही योग का प्रभाव सन् 72 तक दश वर्ष तक रहने वाला है। इस अवधि में इतनी क्रान्ति-प्रतिक्रान्तियाँ होंगी कि मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणामों पर निश्चित विश्वास हो जायगा, खिन्न होकर उसे सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने और सन्मार्ग पर चलने के लिये विवश होना पड़ेगा। आज के प्रवचन और लेख कारगर न होंगे। उन्हें तो लोग अनसुना ही करते रहेंगे। समय की प्रताड़ना ही उन्हें विवश करेगी और कोई अन्य मार्ग न देखकर सबको यही सोचना और यही करना पड़ेगा कि धर्म एवं सदाचार का मार्ग ही श्रेयस्कर है। विवशता सब कुछ करा लेगी। आज तो हम उस ढाँचे को प्रस्तुत कर रहें हैं जिस पर चलने के लिए