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Magazine - Year 1963 - Version 2

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अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरनिराध्यते।

स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम्॥

—वा0रा0

“माता, पिता और गुरु—ये प्रत्यक्ष देवता हैं। इनकी अवहेलना करके अप्रत्यक्ष देवता की विविध उपचारों से आराधना करने से क्या लाभ हो सकता है?”

एक व्यक्ति सोचता है गरीबी ही सब दुखों की जननी है। इसलिए लोगों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उद्योग, उत्पादन, बाँध, बिजली, मिल, कारखाने आदि खोले जाने चाहिए, इसके लिए वह कोई कम्पनियाँ बनाता है। सरकार के द्वारा ऐसी योजनाएँ चलवाता है। कितने ही लोग काम से लगते भी हैं। तनख्वाहें भी अच्छी मिलती हैं। अनुमान था कि अब यह कर्मचारी लोग अच्छी आजीविका पाकर सुखी रहेंगे। पर बारीकी से देखने पर कुछ दूसरी ही बात दीखती है। जुआ, शराब, सिनेमा, फिजूलखर्ची, व्यसन, बदमाशी जैसे कुसंस्कार उस पैसे को देखते ही भड़क उठते हैं। अधिकाँश कमाई बुराइयों में खर्च करके वे तंगी और गरीबी में ही डूबे रहते हैं। वेतन बढ़ाने का आन्दोलन सफल होने पर बढ़ी आमदनी से जो सुख बढ़ने की सम्भावना थी वह भी सार्थक नहीं हुई। पैसा बढ़ा तो व्यसन भी बढ़े। वह लाभ नहीं ही मिला जो सोचा गया था।

इतने प्रयत्न करने के बाद देश में खुशहाली बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहने वाला सज्जन व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि आमदनी का लाभ तभी मिलेगा जब सद्गुण भी पनपें। दुर्गुणों के रहते बढ़ी हुई आमदनी चलनी में दूध दुहने की तरह कुछ भी लाभदायक न रहेगी। खुशहाली के लिए प्रवृत्तियाँ बदलने पर भी जोर देना आवश्यक है।

एक व्यक्ति सोचता है कि राजनीति में बड़ी शक्ति है। सरकारी प्रयत्नों के द्वारा—कानून के द्वारा—देश की काया पलट की जा सकती है। इसलिए चुनाव लड़ना चाहिए और सरकार में प्रवेश करना चाहिए। वह चुनाव में खड़ा होता है। पर वोटर तो जातिवाद के प्रलोभनों के चक्कर में फँसे पड़े हैं, उन्हें सिद्धान्तों और व्यक्तियों की अच्छाई बुराई का, देश और समाज का ध्यान नहीं, वे तो अपने व्यक्तिगत संपर्क और स्वार्थ की बात सोचते हैं। अपने मिलने-जुलने वालों को किसी लाभ की आशा से वोट देते हैं। बेचारा ईमानदार देशभक्त हार जाता है। पैसा लुटाने वाला, तरह-तरह के हथकण्डे काम में लाने वाला दुश्चरित्र व्यक्ति जीत जाता है।

हारने के बाद वह सोचता है कि सरकार से मनचाहे अच्छे काम कराना तब तक संभव नहीं जब तक कि वोटरों की प्रवृत्ति न बदले, अच्छे सदस्य ही अच्छी सरकार बनाते हैं, और अच्छे सदस्यों का चुना जाना, अच्छे विचारों की जनता द्वारा ही संभव है। इसलिए पहला कार्य वोट देने वाली जनता को देशभक्ति, कर्तव्य पालन और वोट को राष्ट्रीय धाती मानने की शिक्षा देना है। जनता जितनी बदलेगी उतनी ही सरकार सुधरेगी अच्छे दूध से ही तो अच्छा घी निकलेगा।

एक व्यक्ति सोचता है कि बड़ा अफसर या अधिकारी बन कर वह जनता का बड़ा हित साधन करेगा। इसके लिए वह उच्च शिक्षा प्राप्त करता है घोर श्रम करके इस योग्य बनता है कि अधिकारी नियुक्त हो सके। सफलता मिलती है और वह पूरी ईमानदारी एवं लगन से जन हित का ध्यान रखते हुए व्यवस्था बनाता है। पर कुछ ही दिन में वह अपने को असफल और लाचार पाता है। निर्धारित सरकारी कार्य पद्धति की आड़ लेकर नीचे के कर्मचारी कामचोरी और रिश्वतखोरी की गुंजाइश बनाये रहते हैं। बेईमान जनता और बेईमान अफसर की मिलीभगत से रिश्वत पकड़ी नहीं जाती। सताये हुये लोगों की शिकायत को बेकार बताने के लिए कर्मचारी अपने कानूनी दाँव-पेंच पहले से ही ठीक रखते हैं। दंड देने की व्यवस्था बहुत ही जटिल होने के कारण वह अफसर अपने नीचे वालों का कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता। सुधारवादी उत्साही अधिकारी हाथ मल कर रह जाता है।

इंजीनियर और ठेकेदार मिल कर निर्माण कार्यों में गड़बड़ी करें तो उनको कैसे पकड़ा जाय? पुलिस और डाकू मिल-जुल कर षड़यंत्र बना लें तो उनकी रोक-थाम कैसे हो? रिश्वत लेने वालों और देने वालों के पारस्परिक स्वार्थ सधे रहें तो उन पर प्रतिबंध कैसे लगे? व्यभिचारिणी और व्यभिचारी का परस्पर सहयोग रहने पर कानून क्या करे? सरकारी टैक्सों की चोरी में अधिकारी और व्यापारी दोनों ही मिल जायं तो उनकी रोक कैसे हो?

प्रकट पापों से गुप्त पापों की संख्या सैकड़ों गुनी अधिक होती है। जो पाप प्रकट भी हो जाते हैं, उनके लिए तो कानूनी पेचीदगियों के कारण अपराधियों को दण्ड कहाँ मिलता है? ऐसी दशा में यह आशा करना कि अधिकारी या मिनिस्टर बन कर कोई बड़ा काम किया जा सकेगा, निराधार और निरर्थक है। अच्छी बुरी सरकारों में अन्तर तो अवश्य होता है पर समाज में फैले हुए अगणित अनाचारों को केवल सरकारी यंत्र के आधार पर ही नहीं रोका जा सकता। इसलिए जन-मानस में नैतिकता की-कर्तव्य भावना का, प्रवृत्तियों का जागृत रहना आवश्यक है। मनुष्य आत्मा की पुकार पर ही बुराइयों से रुक सकता है, पापों से बच सकता है। अन्यथा सरकार के लिए विशेषतया आज जैसी प्रजातंत्री सरकारों के लिए अपराधों को पूर्ण रूपेण रोक सकना कठिन ही है।

स्थिति पर विचार करने से यह समझ में आता है कि कानून या प्रशासन के माध्यम से नहीं, धर्म और कर्तव्य की भावनाएँ जागृत करने से मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियाँ नियंत्रण में रह सकती हैं और तभी क्लेश, कलह, अभाव, अनाचार उत्पन्न करने वाली अनेकों बुराइयों को हटाया जा सकता है।

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