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लोकेषु निर्धनों दुःखी ऋणग्रस्ततोऽधिकम्।
ताम्याँ रोगयुतो दुःखी तेम्यो दुःखी कुभार्यंकः॥
—विदुर
“संसार में सबसे पहला दुःखी निर्धन है। इससे अधिक दुःखी वह है जो ऋणी है। इन दोनों से अधिक वह है जो सदैव रोगी रहता है सबसे अधिक वह है जिसकी स्त्री दुष्ट है।”
आत्म-कल्याण के लिए साधन, वैराग्य एवं त्याग का मार्ग अपनाने की आकाँक्षा बलवती होती है तो मार्गदर्शन के लिए किन्हीं, सन्त, धर्मात्मा समझे जाने वालों के पास पहुँचते हैं। पर यदि वे सच्चे नहीं हैं और अपना सम्प्रदाय बढ़ाने, चेले मूँड़ने, प्रतिष्ठा बढ़ाने और धन एकत्रित करने में लगे हैं, तो ऐसी दशा में वे जो कुछ सिखावेंगे, बतावेंगे वह उसी दृष्टि से होगा, जिससे उनके स्वार्थों की पूर्ति होती हो। ऐसी दशा में यह बहुत ही कठिन है कि बेचारे सत्यान्वेषी मुमुक्षु को कोई सही मार्ग मिल सके।
अपनी कन्या को हम पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं, अच्छा घर-वर ढूँढ़ने के लिए जी जान एक करते हैं, और पेट पर पट्टी बाँध कर विवाह का भारी खर्च भी जुटाते हैं। पर जब कन्या ससुराल जाती है और वहाँ घर से लेकर सास-ननद तक सब को अहंकारी, निष्ठुर, स्वार्थी, हृदयहीन अनुभव करती है तो उसे वहाँ जेल या नरक जैसा अनुभव होता है। लौट कर पिता के घर आती है तो आठ-आठ आँसू उसकी आँखों से बरसते हैं। माता-पिता का हृदय टूक-टूक होने लगता है। जिस बच्ची के सुख सपनों के लिए जीवन भर इतने कष्ट सहे उसे इतनी व्यथा सहनी पड़ रही है यह देखकर उनकी छाती फटने लगती है। वे सोचते हैं, काश किसी निर्धन मजबूर या अशिक्षित ऐसे परिवार में कन्या जा पहुँचती जहाँ स्नेह सौजन्य की उदारता, आत्मीयता की गंगा बहती तो हमारी बच्ची उस अभावग्रस्त स्थिति में भी कितनी सुखी रह सकती।
अपना लड़का बड़ा हो जाता है—विवाह करते हैं। बहू सुन्दर सुशिक्षित ढूँढ़ते हैं। बड़ी आशा और उत्साह से जेवर कपड़ा बनवाते हैं, धूम धाम से विवाह करते हैं। सोचते हैं बहूरानी गृहलक्ष्मी की तरह आवेगी और अव्यवस्थित घर में अपने सद्गुणों से आशा और उत्साह का वातावरण उत्पन्न करेगी। पर विवाह होकर जब बहू घर आती है तो उसका स्वभाव दूसरे ही साँचे में ढला मिलता है। कर्कश, आलसी, अशिष्ट, स्वार्थी, छिद्रान्वेषी स्वभाव के कारण वह सब की शिकायत करती है, सब से लड़ती है और अन्त में अपने पति को लेकर कुटुम्ब से अलग रहने लगती है। परिवार की आशाओं पर पानी फिर जाता है। लड़का बड़ा होकर पिता के उत्तरदायित्वों में हाथ बंटायेगा, बहू अपनी सास का भार हल्का करेगी, यह सोचा गया था। पर निकला उल्टा। लड़के से कुछ आशाएँ थीं वह भी हाथ से चला गया। विवाह बहुत महंगा पड़ा। सारा परिवार दुःख मानता है और सोचता है कि यदि सद्गुणी, उदार दृष्टिकोण की, सेवाभावी, श्रमशील स्वभाव की बहू घर में आती तो कितना अच्छा होता। ऐसी बहू यदि काली, कलूटी, अशिक्षित, गरीब घर की होती तो भी क्या हर्ज था।
मित्रों से मित्रता कायम रखने में बहुत धन और समय खर्च किया, उनकी प्रसन्नता के लिए बहुत त्याग किये, बुराइयाँ भी सहीं, पर अवसर आने पर वे ही मित्र जब धोखा दे जाते हैं, विश्वासघात करके हमें उल्लू बनाते हुए अपने वास्तविक रूप में प्रकट होते हैं तो मन को बड़ा धक्का लगता है और सोचते हैं—हे भगवान्, क्या तेरी इस दुनिया में से मित्रता और सचाई सचमुच ही उठ गई। यदि प्रेम और प्रेमी का वास्तविक स्वरूप इस संसार में बना रहता तो यहाँ कितनी मंगलमय परिस्थितियाँ रहतीं, सब लोग कितने हँसते-खेलते रहते।
जिधर भी दृष्टि पसार कर देखते हैं, इस सुन्दर सुसज्जित दुनिया में एक ही कमी दीखती है—उच्च भावनाओं, उदारता, आत्मीयता एवं कर्तव्यनिष्ठा की। इस अभाव के कारण परमात्मा की यह सुन्दर कृति, वसुधा—मरघट-सी डरावनी और नरक-सी वीभत्स दीखती है। अविश्वास सन्देह, आशंका और विपत्ति की घटाएं ही चारों ओर घुमड़ती दीखती हैं। यहाँ सब कुछ विकसित और गतिशील दीखता है पर एक ही वस्तु मूर्छित, निर्जीव, पतनोन्मुख एवं मुरझाई दीखती है, वह है—मनुष्य की अन्तरात्मा। इसी की उपेक्षा सब से अधिक हो रही है। सब कुछ बढ़ाने की योजनाएँ बन रही हैं पर मनुष्यत्व का, चरित्र और आदर्शवाद का भी उत्कर्ष हो इसकी न तो आवश्यकता समझी जाती है और न चेष्टा की जाती है। कहने सुनने की, लिखने बाँचने की परिधि में जहाँ-तहाँ कुछ किया भी जा रहा है, पर उसके पीछे कोई ठोस पृष्ठभूमि न होने से वह भी एक मनोविनोद मात्र बनकर रह जाता है।
दुख इसी बात का है कि इस संसार की—इस मानव-जीवन की—सबसे प्रमुख, सबसे महत्वपूर्ण, सबसे आवश्यक सबसे उपयोगी समस्या—सद्भावनाओं की अभिवृद्धि के लिए हम कोई ठोस आधार क्यों नहीं ढूंढ़ते? उसके लिए ठोस प्रयत्न क्यों नहीं करते?