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तावद्भयेन भेतव्यं यावद्भयमनागत्।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशंकया॥
—चाणक्य
“तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक वह पास नहीं आता, परन्तु भय को अपने निकट आता देखकर निस्संकोच भाव से उस पर प्रहार करके नष्ट कर देना चाहिये।”
पुण्य-फल के अभाव में मनुष्य नाना प्रकार की आधि−व्याधियों से घिरे हुए पड़े हैं। एक तपस्वी सोचता है मैं कठोर तप करके आत्म-बल उपार्जित करूं, और उसका लाभ आशीर्वाद रूप से इन दीन दुखियों को प्रदान करूं। वह ऐसा ही करता भी है। निरन्तर कठोर तप में लगता है और कुछ पुण्य-पूँजी जमा करता है। जो दुखिया सामने आते हैं उनके लिए अपनी कमाई दान करता है। कुछ का भला होता है। तप थोड़ा, आशीर्वाद माँगने वाले बहुत, कुछ ही दिन में यह सारी पूँजी समाप्त हो जाती है। पहले जिनका दुख दूर किया था वे अब और नये कष्टों की शिकायत लेकर फिर सामने आते हैं—उनसे प्रशंसा सुनकर और भी नये दुखियों की भीड़ जमा होती है। अब क्या किया जाय? तप की पूँजी तो समाप्त हो चुकी। कष्ट तो पुण्य की पूँजी से दूर होते हैं। तप समाप्त हो गया उसे बाँटना सम्भव न रहा तो आशीर्वाद कैसे फलित हो? दुनिया की भीड़ जमा, तपस्वी खाली हाथ। जीवन भर की कठोर कमाई समाप्त हो गई पर एक भी दुखिया का कष्ट दूर न हुआ।
तपस्वी सोचता है यह तरीका गलत है। इन
दुखियों को स्वयं ही तप करने और पुण्य उपार्जित करने की प्रेरणा देनी चाहिए ताकि अपने बल-बूते पर ही यह लोग सुखी बन सकें। इनकी सच्ची सहायता प्रवृत्तियों के बदलने से ही हो सकती है। अपने ही पुण्य से कोई व्यक्ति सुखी और समुन्नत हो सकता है, अपनी मनोभूमि बदलने से ही तो दुख दारिद्र की स्थिति पलटती है।