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Magazine - Year 1963 - Version 2

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दानामिज्या तपःशौचं तीर्थसेवा श्रुतं तथा।

पर्वाज्येतान्य तीर्थानि यदि भावों न निर्मलः॥

निगृही तेन्द्रियग्रामों यत्रैव च बसेन्नरः।

तत्र तस्य कुरुक्षेत्र नैमिषं पुष्कराणि च॥

—महर्षि अगस्त्य

“मन का भाव यदि शुद्ध न हो तो दान, यज्ञ, तप, शौच तीर्थ सेवन, शास्त्र श्रवण एवं स्वाध्याय ये सभी अतीर्थ हो जाते हैं। पर जिस व्यक्ति ने अपनी इन्द्रियों को-वासनाओं को वश में कर लिया है, वह जहाँ कहीं निवास करता है, वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ हो जाते हैं।”

युग-निर्माण की—आत्म-निर्माण की पुण्य-प्रक्रिया का श्रीगणेश हमें आज से ही, अभी से ही आरम्भ करना चाहिए। इसका प्रथम चरण है ज्ञान-यज्ञ का आयोजन। भोजन की तरह ही सद्विचारों की धारणा को एक अनिवार्य आध्यात्मिक आवश्यकता समझा जाय और उसकी उपेक्षा किसी भी बहानेबाजी का सहारा लेकर न की जाय। यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि समय का उपयोग पेट के धंधे करते रहने में ही नहीं है। भौतिक सम्पत्ति से सद्ज्ञान की दैवी-सम्पत्ति का महत्व तनिक भी कम नहीं है। पैसे की कमाई ही दौलत नहीं कहलाती। सच्ची दौलत तो आन्तरिक सद्वृत्तियों का बढ़ना ही है। नश्वर सम्पत्ति की तुलना में शाश्वत विभूतियों का मूल्यांकन कम नहीं किया जाना चाहिए।

अपने आपको सद्विचारों की दैवी-सम्पत्ति से समृद्ध बनाने के लिए, अपने परिवार को सुसंस्कृत एवं सुविकसित बनाने के लिए, समाज में सभ्यता, सदाचार, विवेकशीलता जागृत करके स्नेह और सदाचार का वातावरण उत्पन्न करने के लिए एक ही उपाय हो सकता है और वह है-”सद्भावनाओं की वृद्धि।” जिस प्रकार प्रयत्न करने से खेतों और कारखानों में पैदावार पढ़ाई जा सकती है उसी प्रकार मनुष्यों के मस्तिष्कों और अन्तःकरणों में भी सद्विचारों और सद्भावों का उत्पादन विशाल परिमाण में किया जा सकता है। सच्ची लगन वाले मनुष्य निष्ठापूर्वक इस कार्य को अपने हाथ में लें तो आज की स्थिति बदल सकती है और स्वार्थ-परता का शुष्क श्मशान परमार्थ की सुरम्य हरियाली से भरा उद्यान बन सकता है।

ज्ञान-यज्ञ का आयोजन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए होना चाहिए। सर्वश्रेष्ठ सत्कर्म के रूप में हममें से प्रत्येक को इसे एक अत्यन्त आवश्यक धर्म कर्तव्य के रूप में अपनाना चाहिए। ‘अखण्ड ज्योति” के प्रत्येक सदस्य को ज्ञान-यज्ञ का होता बनना चाहिए। कुछ नियत निर्धारित समय नियमित रूप से हमें इस कार्य के लिए निकालना ही चाहिए और उसका उपयोग अपने प्रभाव क्षेत्र में सद्भावनाएं उत्पन्न करने के लिए करना चाहिए। युगारंभ का श्रीगणेश हमारे इसी शुभ संकल्प के साथ होना चाहिए। प्रत्येक सत्कार्य के आरंभ में जिस प्रकार हवन-पूजन आवश्यक होता है, युग-परिवर्तन का शुभारंभ करते हुए हम ज्ञान-यज्ञ का आयोजन करें और उसमें सक्रिय रूप से भाग लें तो ही काम चलेगा।

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