
लघु कथा-कर्तव्य-पालन सर्वोपरि है।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सरदार चूड़ावत का विवाह हुए अभी थोड़े ही दिन हुए थे। पत्नी जैसी रूपवती थी, वैसी ही गुणवती भी।
औरंगजेब के अत्याचारों का प्रतिरोध करने के लिए राजपूतों को युद्ध के लिये आए दिन तैयार रहना पड़ता था। ऐसी ही एक चुनौती फिर सामने आ गई। चूड़ावत को दूसरे ही दिन युद्ध का मोर्चा संभालने का आदेश मिला।
एक ओर कर्तव्य की पुकार दूसरी ओर नवविवाहिता पत्नी का आकर्षण। सरदार का मन दोनों ओर डोलने लगा? मोर्चे पर जाये या नहीं? पत्नी को छोड़े या नहीं? दोनों ही ओर उसका मन बढ़ने लौटने लगा।
पति को असमंजस में पड़ा हुआ देखकर रानी की चिन्ता बढ़ी। उसने कारण पूछा तो सरदार ने अपनी अन्तर्व्यथा कह सुनाई।
रानी गम्भीर हो गई। उसने सोचा मेरा आकर्षण यदि पति को कर्त्तव्यपथ से विचलित करने वाला बनता है तो मेरा न रहना ही देश-धर्म के हित में होगा। मुझे अपना बलिदान करके पतिदेव की द्विविधा मिटानी चाहिए ताकि वे एकाग्रचित्त से कर्तव्य पालन कर सकें।
एक हाथ में तलवार और दूसरे से बाल पकड़े। रानी ने पूरे बल से वार किया और सिर कटकर चूड़ावत की गोद में जा गिरा।
कर्तव्य पथ से विचलित न होने देने के लिए जहाँ नारियों में इतना आत्मबल भरा पड़ा हो वहाँ नर के लिए कायरता अपनाना सम्भव नहीं हो सकता। चूड़ावत ने घोड़ा युद्ध-क्षेत्र की ओर बढ़ाया और बिजली की तरह शत्रु दल पर टूट पड़ा।