
परिवर्तन कठिन नहीं—सरल है
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हम ऐसे समाज में रहना चाहते हैं जहाँ सब लोग एक दूसरे को प्यार करें, सद्भाव रखें, और परस्पर उदारता एवं सहायता का मधुर व्यवहार किया करें। हर व्यक्ति परिश्रमी और सन्तोषी हो। ईमानदारी और सचाई की नीति अपनाते हुए सादगी का जीवन उच्च आदर्शों के साथ बितावे। कोई किसी का न अनहित चाहे न द्वेष करे और न अनधिकार चेष्टा करके किसी के स्वत्वों का अपहरण किया जाय।
सुख और दुख को मिल बाँट कर भोगें, अपना ही नहीं दूसरों का सुख दुख भी सब लोग अपना ही मानें। जितनी इच्छा अपनी उन्नति एवं सुविधा की रहती है उतनी ही दूसरों की भी रहे। नर-नारियों के बीच पवित्र भावनाओं की गंगा जैसी निर्मल धारा बहती रहे। दाम्पत्य-जीवन की मर्यादाओं से बाहर कोई किसी को विकार की दृष्टि से न देखे। तृष्णा और वासना को, ख्याति और पदवी को तुच्छता की दृष्टि से देखा जाय। कर्तव्य पालन के आत्मसन्तोष में परिपूर्ण तृप्ति अनुभव हो। अपराध कहीं देखने-सुनने को भी न मिलें। कोई किसी का अहित न चाहे, कोई किसी को दुखी न करे। संयम और व्यवस्था का जीवन बिताते हुए लोग निरोग रहें और दीर्घ काल तक सूखपूर्वक जिएँ।
जब मनुष्य इस प्रकार की जीवन नीति अपना लेंगे तो रोक-शोक भय, क्लेश, अभाव, युद्ध, दुर्भिक्ष, प्रकृति प्रकोप जैसे उत्पात भी कहीं देखने को न मिलेंगे। ऐसा समय ही सतयुग कहलाता है। जो विपत्तियाँ आज चारों ओर से उमड़ती घुमड़ती रहती हैं, जो समस्याएँ सारे संसार को चिन्तित किये रहती हैं वे दैवी नहीं मनुष्यकृत हैं। वह यदि अपने को संभाले, सुधारे तो परिस्थितियाँ सुधरने में देर ही कितनी लगे? प्राचीन काल में जब नीति और धर्म को जन मानस में समुचित स्थान प्राप्त था तो इस धरती पर ही स्वर्ग बिखरा पड़ा रहता था। आज के जैसी आकृति वाले मनुष्य ही तब उच्च प्रकृति के कारण देव बने हुए विचरण करते थे। ऐसा स्वर्णिम युग यदि पूर्व काल में रह चुका है तो प्रयत्न करने पर अब वैसा ही फिर क्यों नहीं हो सकता?
मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है। प्रयत्न करने पर वह यह सोच और समझ सकता है कि उसका वास्तविक कल्याण किस में है। कुविचारों और कुकर्मों को अपना कर सुख प्राप्त करने की उसकी आकाँक्षा पूर्ण नहीं हुई। इतिहास भी उसकी व्यर्थता सिद्ध करता है और प्रत्यक्ष अनुभवों से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि ‘पाप करने और सुख पाने’ की नीति गलत है उससे किसी अच्छे परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। सादगी और सचाई का जीवन चाहे देखने में साधारण ही क्यों न प्रतीत हो, चमक दमक के आकर्षणों से रहित ही क्यों न