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Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


कार्यकर्ताओं की नियुक्ति को अनिवार्य प्राथमिकता दी जाए

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First 9 11 Last

प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना की बात जागृत देवालयों की कल्पना के साथ अस्तित्व में आई। जन समुदाय ने उस आवश्यकता को पूरी तरह उचित और आवश्यक माना। तभी अत्यन्त थोड़े समय में 2400 प्रज्ञा संस्थानों का सूत्रपात प्रारम्भ हुआ और उसमें से अधिकांश अब तक पूरे हो गये या अपने अन्तिम चरण में हैं।
जन श्रद्धा ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिखाया। जब यदि उनके निर्माता उन आदर्शों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तत्पर नहीं होते जिनके लिए यह स्थापनायें पूरी की जा रही हैं तो उसे लोक श्रद्धा का अपमान समझा जायेगा, संचालकों पर प्रताड़ना बरसेगी, मिशन लांछित होगा।
प्रत्येक छोटे-बड़े प्रज्ञा-संस्थान के लिए सुनिश्चित कार्य पद्धति निर्धारित है

   (1)  प्रातः सायं, प्रतिमा की पूजा आरती
   (2)  रात्रि को कथा-सत्संग
   (3)  दिन में प्रौढ़ों की, महिलाओं की, बच्चों की दो-दो घंटों की पाठशालायें
   (4)  सायंकाल आसन, प्राणायाम, व्यायाम, खेलकूद, जड़ी-बूटी, उपचार, बागवानी शाक-वाटिका का विस्तार
   (5)  पुस्तकालय एवं चल पुस्तकालय (ज्ञानरथ)

इन पांचों में अधिक लोग सम्मिलित होते रहें। सब कार्य सुचारु रूप से चलते रहें। इसके लिए प्रयत्नशील रहना। सम्पर्क साधना एक आदमी का पूरा काम है। चौकीदारी आगन्तुकों का स्वागत एवं विचार विनियम जैसे निर्धारित कार्यों के लिए एक आदमी स्थायी न रहेगा तो देवालयों का ताला पड़ा रहेगा और कबूतर घोंसले बनाने लगेंगे।
दूसरा कार्यकर्ता जन सम्पर्क के लिए चाहिए। हर प्रज्ञा संस्थान का एक निर्धारित कार्यक्षेत्र होना चाहिए एक दिन में एक या समीप हो तो ही गांव हाथ में लिए जायें। शहरों में इसे मुहल्ले समझा जा सकता है। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी मानकर शेष छः दिनों में बारह गांव या बारह मुहल्लों में युगान्तरीय चेतना का आलोक घर-घर जन-जन तक पहुंचाने का कार्य हाथ में ले लिया जाना चाहिये। इसके लिये एक व्यक्ति की नितान्त आवश्यकता है।
प्रज्ञा संस्थानों के लिये निर्धारित कार्यक्रम ऐसे हैं जिनके लिये एक पूरे समय का आदमी चाहिए। यदि इसका प्रबन्ध न हो सका तो लोक जागरण का कार्य बनेगा ही नहीं। जन सहयोग उपलब्ध करने के लिए यह सम्पर्क कार्यक्रम नितान्त आवश्यक है। इसके बिना प्रज्ञासंस्थान भी अन्यान्य देवालयों की तरह पूजा आरती की लकीर पीटते और अपनी निरर्थकता का प्रदर्शन करते रहेंगे।
प्रज्ञा संस्थानों का सारा खर्च पुरुषों के ज्ञान घटों की दस-दस पैसे राशि से एवं महिलाओं द्वारा एक-एक मुट्ठी अनाज से चलने वाला है। इन देवालयों के अर्थ संतुलन का यही मेरुदण्ड है। स्थापित ज्ञान घटों को रखना और जन्मदिन आदि के अवसर पर नये बढ़ाते चलना तभी संभव है जब सम्पर्क साधने एवं घर-घर पहुंचने की प्रक्रिया नियमित रूप से चलती रहे। दो कार्यकर्ताओं की नियुक्ति हुए बिना एक भी प्रज्ञा संस्थान अपनी गणना जीवन्त देवालयों में न करा सकेगा। इसलिए जहां भी यह निर्माण कार्य हुए हों या होने जा रहे हों, वहां हजार बार सोचना चाहिए कि दो कार्य कर्ताओं की नियुक्ति का खर्च हर हालत में उठाया जाना है और उसके लिए ज्ञानघटों धर्मघटों की स्थापना का कार्य आरम्भ करके सम्पर्क क्षेत्र अधिकाधिक विस्तृत बनाया जाना है। साथ ही अर्थ व्यवस्था के दूसरे स्रोत भी ढूंढ़े जाने चाहिए।
प्रज्ञा संस्थानों की जन-मानस को झकझोर देने वाली—जन-मानस को नव सृजन के लिए अनुप्राणित, तत्पर, कटिबद्ध करने वाली योजना को व्यापक एवं सफल बनाने के लिए प्रतिभावान लोगों का सहयोग नितान्त आवश्यक है। वे अपना भावभरा सहयोग—समयदान, अंशदान देंगे तभी बात बनेगी। प्रज्ञा संस्थानों की स्थानीय एवं प्रज्ञा अभियान की व्यापक योजनाओं को अग्रगामी बनाने के लिए संस्थानों के ट्रस्टीगण, वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र, सम्भ्रान्त प्रज्ञा परिजन, वानप्रस्थ, परिव्राजक आदि सभी का भाव भरा एवं अनवरत सहयोग अपेक्षित होगा। उसे जुटाने में संचालकों का प्रयास निरन्तर अग्रसर रहना चाहिए। किन्तु साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दो कार्यकर्त्ताओं की नियुक्ति वाली बात की अपेक्षा नहीं हो सकती है। सूत्र संचालकों का सहयोग कितना ही बढ़ा चढ़ा क्यों न हो वे इस प्रयोजन को पूरा कर सकेंगे जो दो स्थायी नियुक्ति होने पर ही संभव है। जहां दो सम्भव न हों वहां कम से कम एक के बिना किसी प्रकार भी काम न चल सकेगा। आधे समय देवालयों में और आधे समय संपर्क साधने में लगाने पर भी किसी प्रकार आधी अधूरी गाड़ी तो लुढ़क सकती है पर जहां ऐसा सोचा जा रहा हो कि मन्दिर बन गया, किसी प्रकार पूजा आरती का ढर्रा भी चला दिया जायेगा। जिनका चिन्तन इतना सीमित हो उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि उनके उद्देश्य को बिना समझे ही अन्य भावुकों की तरह व्यर्थ ही इतना परिश्रम किया और पैसा लगाया। जो प्रज्ञा संस्थान निर्धारित गतिविधियों की ओर ध्यान नहीं देंगे, उनके लिए प्रयत्नरत नहीं होंगे, उनके निर्माण की प्रसन्नता को सन्तोष का नहीं, दुर्भाग्य का चिह्न ही माना जायेगा।
यह सोचना भी व्यर्थ है कि हरिद्वार से महन्त लोग आवेंगे और यहां का कार्य संचालन अपने हाथ में लेकर निर्माणकर्ताओं का सारा उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठा लेंगे। यह बात तब सोची गई थी, जब मात्र चौबीस निर्माणों की योजना थी। अतः 2400 के लिए 4800 कार्यकर्त्ता केन्द्र से भेजना न तो संभव है और न व्यावहारिक। बाहर का आदमी उस क्षेत्र के व्यक्तियों का परिचय प्राप्त करने में ही महीनों लगा लेगा फिर अपरिचित स्थानों में काम करना कितना कठिन होता है यह भी किसी से छिपा नहीं है। नियुक्तियां वही सफल हो सकती हैं जो स्थानीय क्षेत्र से की गई है व्यक्ति का इतिहास और स्वभाव भी तो समीपवर्ती होने पर भी विदित रहता है। बाहर के आदमी तो थोड़े समय कुछ से कुछ दृष्टिगोचर हो सकते हैं और ऐसा कदम भी उठा सकते हैं जिससे पूरा मिशन बदनाम हो।
नियुक्त कार्यकर्त्ताओं की योग्यता तत्परता एवं प्रतिभा में जो कमी पड़ी हैं। उसे संस्था के मूर्धन्य संचालक स्वयं पूरी करते रहेंगे, पर उनके पूरे समय काम करने की आशा नहीं की जा सकती। कई स्थानों में समयदान के माध्यम से संचालकों ने स्थानीय गतिविधियां संचालित करने में सफलता पायी है। वहां उपरोक्त गतिविधियां चल पड़ी हैं उनके आज्ञा जनक सत्परिणाम भी सामने आये हैं, पर बाहर का जन सम्पर्क तो स्थायी नियुक्ति से ही सम्भव है अतएव कार्यकर्ता की नियुक्ति को अनिवार्य प्राथमिकता दी जानी चाहिये उतने से कम में काम चलेगा नहीं। जहां यह आवश्यकता पूरी कर ली गई है वहां सहयोग और साधनों की प्रचुरता आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रही है।
अपने समीपवर्ती क्षेत्र में दृष्टि दौड़ायी जाये तो रिटायर्ड अध्यापक या पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त ऐसे कई भावनाशील लोग सुविधा पूर्वक तलाश किये जा सकते हैं जो धर्मतन्त्र की इस पावन प्रव्रज्या में काम करने के लिए सहर्ष तैयार हो जायें योग्यता कम हो तो कोई हर्ज नहीं। मिलिटरी की एमरजेंसी भर्ती में रंगरूटों की सक्षमता में कमी से भी काम चलाया जाता है पर सैनिक हों ही नहीं तो युद्ध मोर्चे पर जाये कौन? ऐसी भर्ती को अब अनिवार्य माना जाए और बिना कोई हीला हवाला किए उस ओर तत्पर होकर भावनाशील कार्यकर्ता को खोज निकाला जाए। उनकी सेवा की शर्तें पहले से ही निर्धारित करली जायें। ब्राह्मणोचित निर्वाह देना पड़े तो उसे भी स्वीकार किया जाए पर इस आवश्यकता की उपेक्षा को सहन न किया जाए। प्रमुख संचालक ध्यान से देते हों तो सहयोगियों को चाहिए कि वे उन्हें बार-बार टोकें और कार्यकर्ता तलाशने में पूरी तत्परता के साथ सहायता करें।
First 9 11 Last


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