
चतुर्थ अध्याय— युग शिल्पी प्रशिक्षण का संक्षिप्त पाठ्यक्रम
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प्रगतिशील जीवन और उज्ज्वल भविष्य के लिए अभीष्ट मार्गदर्शन एवम् व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करने की सुविधा प्राचीनकाल के आरण्यक आश्रमों में थी। पर लगता है कि वह परम्परा मध्यकाल के अन्धकार युग में विलुप्त हो गई और अद्यावधि पुनर्जीवित न हो सकी। इस युग प्रभात को एक स्वर्णिम किरण ही कहना चाहिए कि उस आर्ष व्यवस्था का पुनर्जीवन सम्भव हो सका। आरम्भिक स्वरूप बीजांकुर की तरह छोटा होने पर भी सन्निहित उद्देश्य और प्रयास की वरिष्ठता देखकर हर दूरदर्शी यह अनुमान लगा सकता है कि आज नहीं तो कल इस प्रयास के महान परिणाम उत्पन्न होंगे और समूचे विश्व समाज को मानवी गरिमा से अनुप्राणित करके रहेंगे।
नवयुग की तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए शान्तिकुंज में समय-समय पर विभिन्न प्रयोजनों के लिए छोटी-छोटी अवधि के सत्र लगते रहते हैं। इनमें आये दिन उलट-पुलट करनी पड़ती है। आज तो रसोई के चूल्हे पर ही तवा उतार कर पुल्टिस बनाने, नहाने का पानी गरम करने, कपड़े रंगने, साबुन बनाने आदि के बर्तन चढ़ाने पड़ते हैं। सत्रों का विषय परिवर्तन इसी विवशता में करना पड़ता है और कार्यक्रम इसी कारण प्रायः एक साल के ही बनाने बदलने पड़ते हैं।
इस वर्ष 1 जून गायत्री जयन्ती से तीन सत्र आरम्भ किये जा रहे हैं। वे एक साल तो विधिवत् चलेंगे ही, आशा यह भी की जा रही है कि सुविधा रही तो इन्हें स्थायित्व भी मिल सकेगा और वे भविष्य में भी यथावत् चलते रहेंगे। जिन सत्रों के इस वर्ष निर्धारण किये गये हैं वे तीन हैं
(1) उच्चस्तरीय अध्यात्म साधनाओं के लिए एक मास के कल्प साधना सत्र
(2) युग शिल्पियों के लिए अभीष्ट कौशल की प्रखरता देने वाले एक-एक महीने के सृजन सत्र
(3) तीर्थ यात्रा, षोडश संस्कार एवम् समस्याओं का समाधान बताने वाले संगम सत्र ।
इन तीनों की विस्तृत जानकारी इस प्रकार है—
(1) कल्प साधना सत्र— पिछले दिनों शान्तिकुंज में एक मास के चान्द्रायण सत्र ब्रह्मवर्चस् साधना सत्र चलते रहते हैं। उन्हीं का परिष्कृत रूप अब कल्प साधना सत्रों के रूप में विकसित हुआ है। अब वे पूर्णिमा से पूर्णिमा तक नहीं वरन् अंग्रेजी महीने की पहली तारीख से तीस तक चला करेंगे। इससे तिथियों की घट बढ़ में छुट्टी लेने में, रिजर्वेशन कराने में झंझट न पड़ा करेगा। दूसरा परिवर्तन यह हुआ है कि पन्द्रह दिन आहार घटाने और पन्द्रह दिन बढ़ाने के स्थान पर पूरे महीने का एक ही उपवास निर्धारण कर दिया जायगा और वह पूरे महीने एक समान चलेगा। इसे कल्प चिकित्सा के समतुल्य समझा जा सकता है। दूध कल्प, छाछ कल्प, आम्र कल्प, खरबूजा कल्प, शाक कल्प, और न्यूनतम खिचड़ी कल्प तक के उपवासों की व्यवस्था रहेगी। साथ-साथ साधकों की शारीरिक मानसिक स्थिति के अनुरूप चिकित्सा स्तर पर तुलसी कल्प, आंवला कल्प, ब्राह्मी कल्प, अश्वगन्धा कल्प इत्यादि जैसे उपचार भी जुड़े रहेंगे। तीसरा परिवर्तन यह हुआ है कि हर साधक के लिए एक महीने में सवालक्ष अनुष्ठान अनिवार्य न रहेगा वरन् हरेक की विशेष स्थिति एवम् आवश्यकता को रखते हुए प्रथक-प्रथक साधना क्रम निर्धारित किया जायगा।
आहार का साधना की सफलता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पिप्पलाद, कणाद, की आहार साधना प्रसिद्ध है। स्वयं परम पू. गुरुदेव को जौ की रोटी छाछ पर चौबीस वर्ष रहकर चौबीस पुरश्चरण करने की बात सामने है। इसी प्रकार प्रस्तुत कल्पना साधना सत्रों में साधना उपासना की प्रक्रिया निर्धारित करने के साथ-साथ ही आहार कल्प का प्रावधान रखा गया है।
आहार पद्धति में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन वाष्प शक्ति से भोजन पकाने का किया गया है। ऐसे ब्वायलर लगाये गये हैं, जो मात्र 10 मिनट में साधकों के लिये उपयुक्त अमृताशन पका कर दे देते हैं। यह आहार साधना के सर्वथा उपयुक्त सुपाच्य स्वादिष्ट तो होता ही है, पौष्टिक भी होता है क्योंकि उसकी शक्ति जलने से बच जाती है।
सभी साधकों को साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चारों उपक्रम किस प्रकार पूरे करने चाहिए। यह निर्धारण अब हर साधक की विशेष स्थिति का पर्यवेक्षण करके प्रथक-प्रथक ही किया जाया करेगा और उस उपक्रम का क्या प्रभाव हुआ इसकी जांच पड़ताल ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की अनुसंधान शाला में निष्णात नेतृत्व द्वारा नियमित की जाती रहेगी। जिन पापों का स्मरण हो उनके प्रायश्चित के सम्बन्ध में भी इन्हीं दिनों परामर्श दिया और सम्भव हो तो उसे कराया भी जायेगा।
(2) युग शिल्पी सत्र (सृजन सत्र)— यह भी एक-एक महीने के होंगे और अंग्रेजी महीने की पहली तारीख से लेकर तीस तक निरन्तर चलेंगे। प्रज्ञा संस्थानों में नियुक्त कार्यकर्त्ताओं के लिए तो यह प्रशिक्षण अनिवार्य है ही। साथ ही प्रज्ञा संस्थानों के संचालकों, प्रज्ञा पुत्रों, वानप्रस्थों परिव्राजकों एवम् वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के लिए भी इनमें सम्मिलित होना आवश्यक है। भले ही पिछले दिनों कई सत्रों में सम्मिलित हो चुके हों।
इस वर्ष प्रज्ञा संस्थानों को सामूहिक रूप से तथा जहां वैसा सम्भव न हो वहां प्रज्ञा पुत्रों को सर्वत्र पंच सूत्री योजना हाथ में लेने पर अत्यधिक जोर दिया गया है। इस वर्ष दो और विशेष कार्यक्रम नये सिरे से बढ़े हैं। प्रज्ञा पुराण के आयोजन तथा उनके लिए कथा शैली, प्रवचन प्रक्रिया तथा सम्भाषण कुशलता की समुचित जानकारी (2) हर प्रज्ञापीठ में घरेलू चिकित्सा की तरह जड़ी बूटी उपचार का समावेश। इन्हीं दिनों ऐसी बीस चुनी हुई जड़ी-बूटियों का निर्धारण हुआ है जिनके सहारे सामान्य रोगों का उपचार साधारण शिक्षित व्यक्ति भी भली प्रकार कर सके। इन जड़ी बूटियों को सभी संस्थान अपने-अपने यहां उगायेंगी ताकि खर्च से बचा जा सके। जब तक वैसी व्यवस्था न बने तब तक इन बूटियों को पिसे रूप में शान्तिकुंज से भी लागत मात्र पर प्राप्त किया जा सकेगा।
आसनों की अभिनव पद्धति शारीरिक रोगों के लिए और प्राणायामों के विशेष निर्धारण मानसिक रोगों के निवारण तथा दोनों ही क्षेत्रों की बलिष्ठता संवर्धन के लिए इन्हीं दिनों आविष्कृत हुए है। प्राथमिक सहायता, गृह परिचर्या का शिक्षण भी साथ चलेगा। अगले दिनों स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकॉर्डर, लाउडस्पीकर उपकरण सभी संस्थानों के पास होंगे। उनका सही प्रयोग एवम् रख रखाव भी प्रयोक्ताओं को आना चाहिए अन्यथा उन्हें उपकरणों के बिगड़ जाने का भय रहेगा।
युग शिल्पियों के लिए सरल संगीत के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी बनाई गई है। ढपली जंजीर तिकोना आदि का इतना प्रशिक्षण दिया जाता है। जिससे वे स्ट्रीट सिंगर की भूमिका सहज निभा सकें।
एक हजार जीवन दानियों की मांग की गई है। आशा है प्रज्ञा परिवार से ही उसकी पूर्ति होगी। इनमें से प्रत्येक को एक महीने के प्रशिक्षण में सम्मिलित होना पड़ेगा। इसके उपरान्त ही इस निष्कर्ष पर पहुंचना सम्भव होगा कि उनका जीवन दान उत्साह कारगर भी है या नहीं।
एक महीने की सामान्य शिक्षा में कल्प साधना वाले, युग सृजन वाले तथा जीवनदानी तीनों ही सम्मिलित रहेंगे और उनका प्रसंग भिन्न होने पर भी लक्ष्य एक रहने के कारण प्रशिक्षण से सभी को समान रूप से सम्मिलित होना होगा। साधनाएं भर प्रथक-प्रथक रहेंगी। सामूहिक शिक्षण का स्वरूप सभी के लिए एक जैसा है। उसमें सभी को समान रूप से सम्मिलित होने का अवसर मिलेगा।
(3) दस दिवसीय प्रज्ञा परिजन सत्र— जिन्हें अवकाश मिलने की दिक्कत होती है। उनके लिये 10-10 दिवसीय शिविरों का लघु संस्करण चलता है। जिसमें उन्हें उस साधना का अभ्यास करा दिया जाता है। जिसे वे घर रहकर विकसित करते रह सकते हैं। तीर्थ सेवन, प्रायश्चित्त विधान, मंत्र दीक्षा, यज्ञोपवीत संस्कार आदि का लाभ भी मिलता है। युग शिल्पी के दायित्वों का संक्षेप में बोध भी करा दिया जाता है। यह सत्र 1 से 10, 11-20 तथा 21 से 30 के अनुक्रम में चलते रहते हैं। आवेदन पत्र भेज कर उनमें आया जा सकता है।
इन तीन प्रकार के शिविरों के बावजूद शांतिकुंज में उतने परिजनों को ही स्वीकृति मिल पाती है, जितना आवास उपलब्ध है। इस तरह 500 व्यक्ति प्रतिमाह भी यदि आते रहें तो भी एक वर्ष में कुल छः हजार परिजन आ सकते हैं। डेढ़ लाख अखण्ड ज्योति के सदस्य, इतने ही लगभग शेष सभी पत्रिकाओं के सदस्य, कुल 3 लाख नियमित सदस्य, इतने ही उनसे सम्बद्ध 6 लाख परिजनों को शांतिकुंज बुलाना हो तो 100 वर्ष लग जायेंगे फिर अनेक परिजन साधनों के अभाव में शान्तिकुंज आना भी चाहें तो नहीं आ सकते इसी कारण इन सप्त दिवसीय क्षेत्रीय शिविरों के रूप रेखा बनाई गई। इनका महत्व शान्तिकुंज में चलने वाले शिविरों जैसा है। कम समय के कारण परिपूर्ण लाभ नहीं मिल सकता पर उपयोगिता समझ में आ जाने से देर सवेर आगे कभी भी शान्तिकुंज आकर शिक्षण प्राप्त किया जा सकता है। इतने शिक्षण से भी प्रज्ञा आलोक विस्तार का कारवां तेजी से आगे बढ़ने लगेगा।
सात दिनों से इस प्रशिक्षण के
(1) प्रज्ञायोग
(2) आसन प्राणायाम से रोग निवारण
(3) जड़ी-बूटी उपचार
(4) कर्मकाण्ड और उसके साथ जुड़ी देवदक्षिणा
(5) युग संगीत
(6) प्रज्ञा पुराण कथा और (7) प्रज्ञा आयोजनों
की तैयारी सम्बन्धी जानकारी दी जायेगी जो किसी भी युग शिल्पी की प्रतिभा निखारने में असाधारण योगदान करेगी।