
द्वितीय अध्याय— प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण और उनके उत्तरदायित्व
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प्रज्ञा युग का श्रीगणेश प्रज्ञासंस्थानों के निर्माण के साथ हुआ है। आरम्भ में 24 प्रमुख तीर्थों में उनके निर्माण से और वहां पहुंचने वाले धर्म प्रेमी लोगों के माध्यम से देश भर में नवयुग का सन्देश पहुंचाने की बात सोची गई थी। पर बात इतनी आगे बढ़ जाएगी इसकी कल्पना तक नहीं की गई थी। दो वर्ष जितनी स्वल्प अवधि में 2400 छोटे-बड़े प्रज्ञा संस्थानों का बना जाना और निकट भविष्य में इससे भी कई गुनी संख्या संभावित दीखना एक आश्चर्य ही समझा जा सकता है। वैसा आश्चर्य, जैसा कि पौराणिक मत्स्यावतार के कथा प्रसंग में आता है। कहा जाता है कि ब्रह्माजी को अपने कमण्डलु में एक छोटी सी चींटी दिखाई दी। उसे उन्होंने सुरक्षा की दृष्टि से घड़े में डाल दिया। देखते-देखते वह चींटी एक बड़ी मछली की तरह पूरे घड़े में भर गई। बाद में ब्रह्माजी ने उसे तालाब में पहुंचाया, फिर सरोवर में, अन्ततः समुद्र में। विकास क्रम रुका नहीं। पूरे समुद्र में वह फैल गई तो ब्रह्माजी ने उन्हें भगवान का अवतार माना और नतमस्तक होकर उनके आदेशानुसार अपना सामयिक कार्यक्रम बना लिया। प्रज्ञापीठों के विकास क्रम को मत्स्यावतार और आश्चर्य चकित कर देने वाला विस्तार कहा जा सकता है। इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा, प्रेरणा एवं सहायता का दर्शन जो करना चाहें—वैसा प्रसन्नतापूर्वक कर सकते हैं।
अवांछनीयता उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की भावी योजना विश्वव्यापी है। उसे भारत में आरम्भ भर किया जा रहा है। निकट भविष्य में वह विश्वव्यापी बनेगी। अभी उसे धर्मतन्त्र के माध्यम से हिन्दू सम्प्रदाय से शुभारम्भ किया जा रहा है पर वह दिन दूर नहीं जब समस्त धर्मों और देशों में वहां की परिस्थिति के अनुरूप उसे स्थानीय एवं सामयिक हेर-फेर के साथ कार्यान्वित किया जाएगा। अभियान के सूत्र संचालक संयोगवश भारत में हिन्दू परिवार में जन्मे हैं। इसलिए उन्हें अपना कार्य सम्पर्क क्षेत्र के परिचित लोगों से ही आरम्भ करना पड़ा है। सूर्य पूर्व में उगा अवश्य है पर वह उसी दिशा तक सीमित न रहेगा उसका लाभ सभी दिशाओं को सभी क्षेत्रों को मिलने जा रहा है। सुधार एवं सृजन के असंख्यों कार्य इन्हीं दिनों आरम्भ करने हैं इनमें कितनी जनशक्ति और कितनी साधन शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। इसकी विशालता का आज तो अनुमान लगा सकना भी कठिन है। इसकी पूर्ति के लिए जागृत लोकशक्ति का भावभरा सहयोग यदि मुट्ठी मुट्ठी भी मिलने लगे तो काम चल जाएगा। दबाव भरी टैक्स व्यवस्था के आधार पर सरकारें चल रही हैं तो कोई कारण नहीं कि भाव श्रद्धा के सहारे उमड़े हुए स्वेच्छा सहयोग के आधार पर वे कार्य पूरे नहीं हो सकें तो आज गोवर्धन उठाने या समुद्र पर पुल बांधने जैसे कठिन व जटिल प्रतीत हो रहे हैं।
राजतन्त्र की सामर्थ्य सर्वविदित है। उसी की तुलना में दूसरी शक्ति है धर्मतन्त्र। शासन की सुरक्षा उपार्जन, वितरण, सुविधा-संवर्धन, व्यवस्था-नियंत्रण जैसे भौतिक प्रयोजनों को संभालने की जिम्मेदारी है। ठीक इसी प्रकार धर्मतन्त्र का आधिपत्य लोकमानस को उच्चस्तरीय बनाये रहने का है। चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता बनाये रहना धर्म का कार्यक्षेत्र एवं उत्तरदायित्व है। जब धर्म जीवन्त था तब उसने मनुष्य को सुसंस्कृत और समाज को समुन्नत बनाये रहने की भूमिका सफलतापूर्वक निभाई। आज तो वह स्वयं मृतक-मूर्छित की तरह सड़ी-गली दुर्दशा से घिरा पड़ा है। ऐसी दशा में वह यदि उपहासास्पद बनता और तिरस्कृत होता है तो यह सहज स्वाभाविक है। किन्तु इस स्थिति को यथावत् नहीं रहने दिया जा सकता। राजतन्त्र अस्त-व्यस्त ही चले तो अराजकता फैलेगी और फिर सुरक्षा तथा व्यवस्था के न रहने पर सर्वत्र हाहाकार उठ खड़ा होगा। ठीक इसी प्रकार धर्मतन्त्र दुर्दशाग्रस्त रहे तो नीति-सदाचार का परमार्थ-सहकार को तत्वदर्शन ही नष्ट हो जाएगा और फिर उस आदर्शवादिता के दर्शन दुर्लभ हो जायेंगे जो व्यक्ति की गरिमा और समाज की समर्थ-सम्पन्नता बनाये रहने के लिए आवश्यक है।
प्रज्ञा अभियान द्वारा धर्मतन्त्र के माध्यम से जन-जन के मन में उत्कृष्ट आदर्शवादिता की प्रतिष्ठापना के लिए प्रबल प्रयत्न किये जा रहे हैं। प्रज्ञा संस्थानों का विश्वव्यापी निर्माण कार्य इसी प्रयोजन के लिए हो रहा है। शुभारम्भ की दृष्टि से यही नितान्त आवश्यक भी था। छोटे-बड़े सभी महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए सर्वप्रथम स्थान की आवश्यकता पड़ती है, उसके बिना किसी प्रयोजन को कार्यान्वित करने की बात ही नहीं बन पड़ती। लोकमानस का भावनात्मक परिष्कार करने की दृष्टि से धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित एवं क्रियाशील बनाने की इन्हीं दिनों आवश्यकता पड़ी और उसके लिए सर्वप्रथम स्थान निर्माण की बात सोची गई। छोटे-बड़े प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किया जा रहा है।
प्राचीन काल में देवालयों, धर्मशालाओं अन्न तथा क्षेत्रों का निर्माण मात्र इसी उद्देश्य से किया गया था कि इन आच्छादनों के नीचे धर्मतन्त्र का आलोक जन-जन तक पहुंचाने का कार्य सुविधापूर्वक सम्पन्न होता रहे। इन संस्थानों में वे सभी सुविधा-साधन एकत्रित किये गये थे जिनसे धर्म सेवा में निरत कार्यकर्त्ताओं का निवास निर्वाह सरलतापूर्वक सम्पन्न होता रहे और वे शासन तन्त्र की ही तरह धर्मतन्त्र की ही तरह धर्मतन्त्र का सुनिश्चित लाभ जन-जन को उपलब्ध कराने में निश्चिन्ततापूर्वक संलग्न रह सकें।
धर्म संस्थानों में विशालकाय कलेवर तो अभी भी यथास्थान अवस्थित हैं। उनका विस्तार भी तेजी से हो रहा है। आकार-प्रकार में वे कागजी रावण की तरह विशाल कलेवर में नित नये बनते भी जा रहे हैं। किन्तु यह देखकर घोर निराशा होती है कि उनके अन्तराल में लोक जीवन को उत्कृष्टता के अनुप्राणित करने वाला प्राण कहीं दृष्टिगोचर ही नहीं होता। पूजा-आरती का कुहराम—भोग-प्रसाद का राजसी अपव्यय—सज्जा-श्रृंगार का आकर्षण तो इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का विषय बना हुआ है, पर उन योजनाओं के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं जिसकी पूर्ति को ध्यान में रखते हुए तत्त्वदर्शियों ने इस श्रमसाध्य, व्ययसाध्य और कष्ट साध्य प्रक्रिया को विचारशीलों पर थोपा और उसकी पूर्ति के लिए आकर्षित उत्तेजित ही नहीं बाधित भी किया था।
बहुत समय तक यह प्रयत्न किया जाता रह कि वर्तमान देवालयों को ही इस प्रकार परिवर्तित किया जा सके कि उसकी इमारतों को उपयोग धर्मतन्त्र की आत्मा को पुनर्जीवित करने के लिए हो सके। उनके स्वामियों संचालकों से लगातार सम्पर्क साधन पर भी कोई कहने लायक सफलता नहीं मिली। यहां तक कि अस्त-व्यस्त अव्यवस्थित देवालयों को हस्तगत करके उनकी मरम्मत कराने से काम चलता हो तो चलाया जाए। इस प्रयत्न में भी कुछ हाथ न लगा। जो मिले, इनमें ऐसे लोग आड़े आ गये जो कुछ अच्छा न करने और न करने देने की प्रकृति लेकर ही अवतरित हुए हैं ऐसे लोग निजी क्षेत्र में तो आए दिन विग्रह करते ही रहते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में भी किस प्रकार प्रवेश मिल सके तो वहां भी विग्रह खड़ा किये बिना चूकते नहीं। इन परिस्थितियों में पुराने देवालयों की ओर से निराश रहने पर नये प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण कार्य हाथ में लेना पड़ा।
पिछले दिनों नये आकार के शक्तिपीठ, मंझोले प्रज्ञापीठ बन चुके हैं। जब उस प्रयास को अधिक व्यापक बनाने की दृष्टि से सोचा गया है कि सन् 62 के मॉडल कें प्रज्ञा संस्थान आकार में छोटे ही बनाये जाएं ताकि उन्हें स्वल्प प्रयास, कम लागत एवं कम समय में बनाया जा सके। बड़ी इमारत के लिये लम्बे समय तक प्रतीक्षा करते रहने की अब तनिक भी गुंजाइश नहीं हैं। युगसन्धि का एक-एक दिन हीरे मोतियों से तौलने जितना महत्वपूर्ण है।
जहां नये बन सकते हों वहां उन्हें इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए बनाया जाना चाहिए कि बड़े साधनों की प्रतीक्षा में देर तक बैठा न रहना पड़े। जहां साधनों के अभाव में अधूरे पड़े हैं वहां जितना कुछ बन चुका है उसी को समेट कर काम चलाऊ बना लिया जाए। जहां वैसा सम्भव नहीं वहां किराये के या मांगे के एक कमरे में चौकी पर गायत्री माता का चित्र स्थापित करके काम चलाऊ प्रज्ञा मन्दिर बना लिया जाए और वे सभी रचनात्मक कार्यक्रम तत्काल आरम्भ कर दिए जायें, जिनके लिए इस आपत्ति काल में भी भवन निर्माण जैसे उलझन भरे काम को हाथ में लिया गया है। आकार छोटे होने में तक कोई हेठी नहीं है जब उनके द्वारा महान् कार्य सम्पन्न किये जा रहे हों।
गांधीजी ने साबरमती और वर्धा दोनों जगह झोंपड़े जैसे आश्रम बनाये थे। विनोबा का—सूरदास का आश्रम झोंपड़ा भर था। जबकि उसकी महत्ता इतनी रही जिस पर सोने-चांदी जड़े भव्य भवनों और विशालकाय किलों को निछावर किया जा सके। जो बना सकें उनकी बात दूसरी है। वे अपनी प्रतिभा और उदारता का उपयुक्त परिचय देने वाले इस अवसर को न चूकें और जितनी भव्यता ला सकें उसके लिए पूरा प्रयत्न करें। पर कहना उनसे भी यही है कि उस कार्य को बहुत लम्बा न खींचें।
समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी के नेतृत्व में देश का स्वतन्त्र कराने का अभियान चलाया था। इसके लिए लोक समर्थन एवं सहयोग अर्जित करने के लिए उनने महाराष्ट्र के हर गांव में महावीर मन्दिर बनाए थे। वे लागत की दृष्टि से अत्यंत सस्ते थे पर दिन में शौर्य साहस जगाने वाली व्यायाम शाला और रात्रि को उच्च उद्देश्यों के लिए त्याग बलिदान की प्रेरणा उभारने वाली रामकथा को देवालयों की अविच्छिन्न प्रक्रिया बनाया गया था। सभी जानते हैं कि वह प्रयास हर दृष्टि से सफल रहा। प्रज्ञा अभियान भी उसी की अनुकृति समझा जा सकता है। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक कुरीतियों को गुलामी से मुक्ति दिलाने और व्यक्ति, परिवार एवं समाज का नव निर्माण विनिर्मित करने के लिए प्रज्ञा संस्थानों का बड़ी संख्या में बनना आवश्यक है। अभी 2400 बने हैं तो अगले दिनों उनके 24000 की संख्या तक जा पहुंचना सम्भव हैं। देश के सात लाख गांवों को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए चाहिए तो एक लाख पर तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए उनकी संख्या 24000 जितनी तो होनी ही चाहिये। इसकी सम्भावनायें बन रही हैं।
इतने पर भी सामयिक परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है प्रमुख प्रश्न दो हैं। एक यह कि युगसंधि की तात्कालिक मांगों को देखते हुए यह कार्य जल्दी सम्पन्न हो, दूसरे महंगाई एवं निर्माण सामग्री सम्बन्धी कठिनाई को ध्यान में रखा जाय। इमारती सामान पिछले दो वर्षों में प्रायः दूनी कीमत का हो चला। सीमेन्ट के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं। प्रज्ञा परिजनों में से अधिकांश निचले मध्य वर्ग के हैं। उन्हें इस घोर महंगाई के जमाने में अपना जीवन निर्वाह कठिन पड़ रहा है। चन्दे में बड़ी राशि देने की इच्छा होते हुए भी उनकी परिस्थितियां वैसी हैं नहीं। धार्मिकों से किसी बड़े सहयोग के सम्बन्ध में अब तक भी निराशा रही है। भविष्य में भी उस वर्ग से कोई बड़ी उपेक्षा नहीं की जा सकती ऐसी दशा में जहां भी निर्माण होंगे उनमें प्रज्ञा परिजनों को निजी अनुदान या प्रभाव ही प्रमुख भूमिका सम्पादित करेगा।
इन तथ्यों पर विचार करने में इसी निर्णय पर पहुंचना होता है कि भावी निर्माणों की रूपरेखा ऐसी ही हो जो सरलतापूर्वक क्रियान्वित की जा सके। अतएव अब निर्माणों को सस्ता, सरल बनाने की नीति अपनाई गई है। भव्यता के लिए बड़े सहयोग की प्रतीक्षा में देर लगना या जहां-तहां गिड़गिड़ाना ठीक नहीं लगा। इन परिस्थितियों में आगामी दो वर्षों में विनिर्मित होने वाले सभी संस्थान सरल, सस्ते बनेंगे और सन् 62 मॉडल कहलायेंगे।
इतने पर भी उन प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी ही होगी जिनकी किसी प्रज्ञा संस्थान को अपनी गतिविधियां खड़ी करने के लिये हर हालत में जरूरत पड़ेगी ही।
(1) देवालय
(2) बहुउद्देशीय हाल
(3) पुस्तकालय
(4) दफ्तर
(5) कार्यकर्ता निवास।
यह पांचों आवश्यकतायें ऐसी हैं जिनके लिये छोटे से छोटे प्रज्ञा संस्थान में भी किसी न किसी प्रकार गुंजाइश निकालनी पड़ेगी।
नई योजनानुसार अगले दिनों बनने वाले संस्थानों की तीन श्रेणियां सोची गई हैं।
(1) पचास-साठ हजार में बन सकने वाली
(2) पच्चीस-तीस हजार लागत की
(3) बारह-पन्द्रह हजार की।
इन तीनों की जमीन में तो न्यूनाधिकता रहेगी पर चुनाई चूना-गारे की तथा आच्छादन खपरैलों का रहने की बात सोची गई है। प्रतिमा सबमें एक ही रहेगी। चारों ओर हरियाली की बाउन्ड्री। खाली जगह में फूल-पौधे। पानी के लिए नल कुएं या हैण्डपम्प का प्रबन्ध। यह साधन उतने टिकाऊ तो नहीं हैं पर हैं सर्वसुलभ और सस्ते। सोचा यह जाना चाहिए कि सन् 2000 समाप्त होते ही यह सभी सस्ते संस्थान अपनी उपयोगिता एवं भूमिका के कारण उच्चस्तरीय लोकश्रद्धा अर्जित कर चुके होंगे और सोने-चांदी के न सही बढ़िया निर्माण सामग्री के स्वयमेव बनकर रहेंगे। तब तक इन 18 वर्षों के लिए काम चलाऊ आच्छादन खड़े कर लेने में हर्ज नहीं। हाथ न रुके इन दिनों यही सस्तेपन की नीति उपयुक्त है।
भविष्य में बनने वाले सन् 82 मॉडल के प्रथम श्रेणी के संस्थान वे कहलायेंगे जिनमें।
(1) देवालय अलग होगा। बरामदे में एक कुंडीय यज्ञशाला।
(2) कार्यकर्त्ता निवास का क्वार्टर अलग।
(3) सत्संग भवन के साथ जुड़ा हुआ कार्यालय का कमरा।
तीनों के बीच तथा आस-पास हरियाली के लिए खुली जगह इसमें 50×60 फुट भूमि की जरूरत पड़ेगी।
ऊपर इन इमारतों में लगने वाली जमीन का ही उल्लेख है। इसके चारों ओर जितनी अधिक जमीन खाली मिल सके उतनी ही उत्तम है। अपने सभी देवालयों में हरियाली लगाने तथा व्यायाम आदि के लिए अधिक खाली जगह की आवश्यकता पड़ेगी। सो जहां जितनी मिल सके उसे लेने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
इन सभी छोटे-बड़े संस्थानों के लिए रजिस्टर्ड ट्रस्ट बनने चाहिए। जिनके तीन या पांच सदस्य हों। यह हरिद्वार के सरकारी रजिस्ट्री ऑफिस से रजिस्ट्री कराये जायेंगे। नाम सभी का गायत्री परिवार ट्रस्ट होगा। भूमि प्राप्त करने एवं स्थायी इमारत बनाने के लिए रजिस्टर्ड ट्रस्ट बनाने की कानूनी आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में शान्तिकुंज हरिद्वार के पत्र व्यवहार कर लेना चाहिए।
चन्दा इमारती समान के रूप में मांगा जाय तो देने वाले को भी सन्तोष रहेगा और कम लोगों से अधिक साधन मिल जायेंगे। इसी प्रकार श्रमदान के लिए लोगों से कहा जाय तो निर्माण कार्य में अनेकों लोग तैयार हो सकते हैं और उतने भर में ईंट थापने, पकाने, ईंट-गारा ढोने मिट्टी तोड़ने जैसे काम बिना पैसा खर्च किए भी हो सकते हैं। दान के रूप में कारीगर मजूर की मजूरी का पैसा मांगा जाय तो श्रमदान न कर सकने वाले व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक वह राशि देकर अधिक पुण्य कमाने की अनुभूति कर सकते हैं। सामग्री या मजूरी के निमित्त पैसा मांगने और देने में प्रसन्नता होती और सफलता मिलती देखी गई है।
ऐसे मन्दिर बना देने से लाभ नहीं जिनमें जन जागृति के केन्द्र बनने के लिए स्थान या साधन नहीं हैं, जहां मात्र अर्चा-आरती भर होती है। चरण पीठें तो आदिवासी वर्ग के लिये ही ठीक पड़ती हैं। अपने सभी संस्थान ऐसे होने चाहिए तथा उनके संचालक परिव्राजक ऐसे होने चाहिए जिन्हें सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के कार्यक्रमों में—जनमानस के परिष्कार प्रयत्नों में सच्ची ईश्वर आराधना की भावभरी अनुभूति होती हो। इस श्रद्धा सद्भावना को जगाना ही विश्वमानव के उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित आधार हो सकता है। हमारे संस्थान भव्यता की दृष्टि से छोटे रहें तो कोई हर्ज नहीं, उनकी दिव्यता ऐसी होनी चाहिए जिससे आलोक से भरा मानव समुदाय निहाल हो सके।
शक्तिपीठ का कलेवर छोटा होते हुए भी उनके द्वारा मानवी गरिमा के पुनर्जीवन का जो महान कार्य सम्पादित होने जा रहा है। उसे चमत्कार ही समझना चाहिये। कई बार छोटे प्रारम्भ महानता में परिणत होते देखे गये हैं। अंकुरों को विशालकाय वृक्ष बनते देखकर आश्चर्य तो किया जा सकता है, पर इसमें असम्भव जैसा कुछ भी नहीं है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना में निरत युग चेतना के इन नगण्य से दीखने वाले प्रयत्नों के पीछे जिस दृष्टि और उमंग का समावेश है उसके सत्परिणाम की कल्पना और सम्भावना के पीछे भी सुनिश्चित वास्तविकता को झांकते देखा जा सकता है। वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण कर सकने वाली मनःस्थिति एवं परिस्थिति की प्रौढ़ परिपक्वता को इन्हीं हाथों में परखा जा सकेगा।