
युग गायक संसद— वाणी के कलाकार एक कदम आगे आयें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विभूतियां भगवान किसी-किसी पुण्यात्मा को देते हैं। सर्वसाधारण को पेट प्रजनन की पशुप्रवृत्तियों का समाधान कर सकने जितनी कुशलता ही प्राप्त है। इसके अतिरिक्त कितनी ही ऐसी विशेषतायें हैं जिनके लिए आम आदमी तरसता ही रहता है और इच्छा रहते हुए प्रयत्न करते हुए भी उन्हें प्राप्त कर नहीं पाता।
(1) सम्पदा
(2) प्रतिभा
(3) बुद्धिमत्ता
(4) बलिष्ठता
(5) कलाकारिता
की गणना इन्हीं विभूतियों में होती है।
यों मनुष्य शरीर ही ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है पर जिन्हें विभूतियों के हीरक हारों से सुसज्जित किया गया है उन्हें तो बड़भागी ही समझा जाना चाहिए। साथ ही जिन्हें वे प्राप्त हैं उन्हें तो बड़भागी ही समझा जाना चाहिए। साथ ही जिन्हें वे प्राप्त हैं उन्हें अनुभव करना चाहिए कि इन्हें दूसरों को ललचाने, अपना दर्प बढ़ाने, दुष्ट परम्परा चलाने एवं वैभववान बनकर आतंक उत्पन्न करने में इनका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। विशेष वैभव मिलने का प्रयोजन इतना ही है कि उनके द्वारा अधिक सेवा साधना बन पड़े और अधिक श्रेय उपार्जित करने का सुअवसर मिले। इस प्रकार जो अपनी पात्रता, प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं वे पदोन्नति के अधिकारी बनते अधिक ऊंचे उपहार प्राप्त करते और कृत-कृत्य बनते हैं।
इन पंक्तियों में कलावानों की चर्चा विशेष रूप से की जा रही है। कला के अनेक पक्षों में वाणी के धनी लोगों तक युग देवता का विशेष निमंत्रण पहुंचाया जा रहा है। इन दिनों युग परिवर्तन के पुण्य प्रयोजनों से प्रतिभा के इसी पक्ष की सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक आवश्यकता पड़ रही है। जन जागरण में जन सम्पर्क प्रमुख है और वह पुण्य प्रयोजन प्रमुखतया वाणी के माध्यम से ही सधता है। जो मुखर हैं वे ही अपने वाक् चातुर्य से दूसरों के चिन्तन मोड़ने में समर्थ हो सकते हैं। जिनकी जीभ खुलती ही नहीं, जिनके कंठ-तालु से कुछ कहने योग्य निकलता ही नहीं वे अपना गुजारा भर कर सकते हैं। दूसरों को विचार सम्पदा देकर निहाल करने और जीवन्तों की दिशाधारा मोड़ने-मरोड़ने में उन्हीं की भूमिका प्रधान रहती है। इसलिए वाणी के कलाकारों को समय ने ऊंची आवाज में पुकारा है कि वे अपनी इस विभूति को न तो निरर्थक जाने दें और न अनर्थ के लिए प्रयुक्त करें।
वाणी के दो पक्ष हैं एक भाषण-संभाषण, दूसरा गायन-वादन। एक से प्रवचन होते हैं दूसरे से संगीत का भाव प्रवाह उमंगता है। यह विशेषतायें हर किसी में नहीं पाई जाती हैं। कुछ में प्रयत्नपूर्वक उगाई, उभारी भी जा सकती हैं। पर कुछ की बनावट ही ऐसी है कि वे काम चलाऊ कुछ बक-झक भले ही कर लें उतनी प्रवीणता नहीं पा सकते कि जन प्रवाह को सम्बोधित, आन्दोलित, अनुप्राणित भाव विभोर करके उसे भगीरथ की तरह अपने पीछे-पीछे चलने के लिए विवश कर सकें। यहां चर्चा उन्हीं की की जा रही है जिनकी वाणी की मुखरता के साथ कंठ में स्वरलहरी का बीजांकुर विद्यमान है। उन्हें इस सौभाग्य अनुदान के साथ-साथ अपना विशेष उत्तरदायित्व भी अनुभव करना चाहिए। इन विभूतियों के माध्यम से युग प्रवाह उलटने की सामयिक आवश्यकता को पूरा करने की दृष्टि से बिना असमंजसों में उलझे आगे ही आगे चलना चाहिए। प्रज्ञा अभियान में लोक-मानस का परिष्कार आवश्यक है। इसके लिए यों लेखनी का भी प्रयोग होता है और जिनकी शिक्षा तथा प्रतिभा इसके लिए उपयुक्त है वे ब्रह्मवर्चस के माध्यम से चल रहे साहित्य सृजन के महान अभियान के अंग बनकर अपने स्तर का काम भी कर सकते हैं। उनके लिए ढूंढ़ने लिखने अनुवाद करने जैसे हजार काम मौजूद हैं। पर वे प्रायः उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिनकी पूर्ति के लिए शान्तिकुंज रहे बिना बनते नहीं। घर बैठे तो कोई-कोई कुछ-कुछ ही सहयोग कर सकते हैं। जिनका वैसा स्तर है वे अपने ज्ञान एवं अनुभव का उल्लेख करते हुए सहयोग की संभावना का स्वरूप एवं समयदान सदुपयोग के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष वार्ता एवं पत्र व्यवहार कर सकते हैं।
यहां विशेष रूप से उनसे अनुरोध किया जा रहा है जो प्रवचन प्रतिभा के अपने में बीजांकुर देखते हैं। वैसा कुछ अपने छोटे सम्पर्क क्षेत्र में करते भी रहते हैं। इसी प्रकार आग्रह उनसे भी किया जा रहा है जिनका कंठ मीठा है, जो भावनायें तरंगित कर सकने जैसा कुछ गा भी सकते हैं। वादन का अभ्यास गौण है। बाजा बजाना आना दूसरी बात है। वह श्रृंगार है। मूल बात कंठ का माधुर्य है। स्वर ताल का ज्ञान होने से बात बन जाती है और हीरे को खरादने में, सोने को ढालने में कुछ विशेष कठिनाई नहीं होती। बिना बाजे के भी वे काम चला सकते हैं। वादन भी साथ हो तो सोने में सुगंध की कहावत चरितार्थ होने लगेगी। यही बात भाषण कला के सम्बन्ध में भी है। दैनिक जीवन में खुले जी से बिना भय संकोच के सामान्य वार्ता बेधड़क रूप से कर सकते हैं। समझना चाहिए उन्हें व्यवस्थित भाषण कला का अभ्यास करने में विशेष कठिनाई नहीं पड़ेगी। भाषण न बन पड़े तो संभाषण वार्तालाप का महत्व भी कम नहीं। उसे भाषण की तुलना में कहीं अधिक महत्व मिला है। भाषण तो तोता रटने की तरह ही अनेकों को याद हो जाता है और वे ग्रामोफोन रिकार्ड दुहराते रहते हैं किन्तु संभाषण पग-पग पर व्यक्तित्व की सुसंस्कारिता प्रकट करती है। साथ ही जिससे वार्ता चल रही है उसके स्तर, रुझान और प्रसंग के सन्दर्भ में उत्पन्न हो रहे उतार चढ़ावों पर बारीकी से नजर रखनी होती है। इससे कम में महत्वपूर्ण वार्ताएं कभी सफल ही नहीं होतीं। गपबाजी में अपना और दूसरों का समय खराब करने वाला बकवास है और सोद्देश्य चर्चा को सफल बना लेना सर्वथा दूसरी। यह सब वाणी की कलाकारिता के निखार-परिष्कार हैं। यह प्रशिक्षण और अभ्यास के सहारे सम्पन्न हो सकते हैं। प्रश्न तो यह है कि इन प्रतिभाओं के विभूतियों के मूलभूत बीजांकुर हैं या नहीं यदि हैं तो उनका उपयोग प्रस्तुत युगधर्म के लिए नियोजित करने की उमंग उठती है या नहीं? यह दोनों बात बनें तो दो पहियों पर आश्रित गाड़ी का आगे लुढ़कना बन पड़े।
प्रज्ञा परिवार में ऐसी असंख्य प्रतिभायें विद्यमान हैं जिनकी वाणी मुखर है। ऐसे लोगों की कमी थोड़े ही है। स्कूलों में पढ़ने वाले ‘लेक्चरर’ वकील, नेता जैसे लोग अनेकानेक हैं। पंडित, पुरोहितों, संत, महात्माओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिन्हें कर्मकांडों, कथाओं, सत्संगों के नाम पर कुछ न कुछ कहते रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त कितने ही छिपे रुस्तम भी ऐसे हैं जिन्हें सार्वजनिक भाषण, संभाषण का अवसर नहीं मिला अन्यथा वे इस क्षेत्र के व्यवसाइयों के कान काटते और बाजी मारते।
यही बात गायकों के सम्बन्ध में भी है। घर रास्ते में कितनों को ही गुन-गुनाते सुना जाता है तो प्रतीत होता है कि इनके कंठ में मिठास और भावों में लहर विद्यमान है। कई ऐसे ही किसी गायन मंडली में सम्मिलित हो जाते हैं और पीछे-पीछे साथ देने लगते हैं तो प्रतीत होता है कि कंठ मिठास की विशिष्टता विद्यमान है और यदि बड़ा अवसर मिले तो थोड़ा सा निखार देने पर वे गायकों की शानदार भूमिका निभा सकते हैं।
इन दिनों आए दिन प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत हर दिन सैकड़ों, हजारों छोटी बड़ी ज्ञान गोष्ठियां हर क्षेत्र में होती हैं उनके लिए कुशल वक्ताओं की भारी मांग रहती है। कुशल से तात्पर्य है— सोद्देश्य और सुव्यवस्थित शैली अपनाकर अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति को ध्यान में रखकर बोलने वाले। अकुशल से तात्पर्य है—मनमौजी ढंग से अपनी वाचालता को बन्दर की तरह कूदने, नचाने वाले। यह कुशलता शान्तिकुंज के एक-एक महीने वाले युग शिल्पी सत्रों में सम्मिलित होकर सीखने और अभ्यास करने से सहज ही उपलब्ध हो सकती है प्रश्न एक ही है कि क्या इस विभूति को लोक मानस पर बिखेरने के लिए भावना है, सुविधा भी है या नहीं। कलाकौशल भी निरुद्देश्य सीखे जायें तो उन्हें गर्दभ भार की तरह निरर्थक ही समझा जायेगा।
यही बात गायन वादन के सम्बन्ध में भी है। प्रज्ञा परिवार के जिन भाग्यवानों को मधुर कंठ की विशिष्ट विभूति उपलब्ध है उन्हें गंभीरतापूर्वक यह बात सोचनी चाहिए कि वे अपना पूरा या आधा समयदान युग परिवर्तन की विषम वेला में कर सकते हैं क्या? यदि कर सकें तो उनकी स्वर लहरी को निखारने और वाद्य यंत्र की सहायता से उसे सजाने का उद्देश्य शान्तिकुंज में न्यूनतम एक महीना रहकर भी उपलब्ध हो सकता है। शिक्षण एवं कौशल प्रमुख नहीं। उपयोग का अवसर मिलने जैसी कोई कठिनाई भी नहीं, प्रज्ञा आयोजनों की इन दिनों धूम है। अगले दिनों तो उसका विस्तार सैकड़ों गुना होने जा रहा है। हर प्रवचन के साथ संगीत जोड़ा गया है। कथा-कीर्तन को परस्पर सम्बद्ध कर दिया गया है। भजन मंडलियां तो अपने आप में पूर्ण हैं। उनमें बीच-बीच में थोड़ी टिप्पणी लगाते चलने भर से गायन समारोहों के माध्यम से जन मानस को दिशा धारा देने का प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता रह सकता है। यह एकाकी प्रयास संभाषण—वार्तालाप प्रचार परामर्श में तो काम दे सकता है पर समारोहों में वक्ता का सहयोगी गायक भी होना चाहिए। अन्यथा आरम्भ की शान्ति स्थापना करने और अन्त में भाव विभोर मनःस्थिति में विसर्जन करने की बात उतनी अच्छी तरह बनेगी नहीं, जितनी कि बननी चाहिए। जो हो भाषण और गायन के दोनों ही पक्ष ऐसे हैं जिनकी आवश्यकता, उपयोगिता प्रस्तुत महाभारत में धनुषबाण के समन्वय जैसी अनुभव की जा रही है।
इस वर्ग के लोगों में से ब्राह्मणोचित आजीविका के लिए भी चिन्ता न करनी पड़ेगी। न जन-जन के आगे हाथ पसारना पड़ेगा। न फीस मांगकर अपनी गरिमा गिराने की आवश्यकता पड़ेगी। वक्ता और गायन का सार्वजनिक गौरव स्थिर रहे उसके लिए उनकी ब्राह्मणोचित आजीविका का प्रबंध भी प्रज्ञा मिशन ने किसी प्रकार जुटाते रहने का प्रबन्ध किया है। इन दोनों वर्गों के प्रशिक्षण अभ्यास की सुविधा तो पहले से ही थी। अब उसमें एक कड़ी और जुड़ गयी है कि जिनके पास पूर्व संचित निर्वाह साधन नहीं हैं अथवा कम पड़ते हैं उनके लिए संचय विलास एवं अपव्यय के लिए तो नहीं पर साधु, ब्राह्मण स्तर का निर्वाह उपलब्ध करते रहने में कमी न पड़ने दी जायेगी।
इन पंक्तियों में एक बार फिर विशेष आमंत्रण उद्बोधन उन विभूतिवानों को भेजा जा रहा है जिनमें वाणी की मुखरता और कंठ की मधुरता के बीजांकुर विद्यमान हैं साथ ही युग धर्म के निर्वाह की भावना उदारता एवं उमंग भी है। ऐसे लोग शान्तिकुंज से सम्पर्क स्थापित करें और उपलब्ध सुयोग-सौभाग्य को सार्थक बनाने में आगा पीछा न सोचें।