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Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


दिव्य औषधियों द्वारा आध्यात्मिक कायाकल्प

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अध्यात्म तत्वज्ञान का सार निष्कर्ष यही है कि चेतन सत्ता का वाहक मानव शरीर है और उसे प्रकृति के अन्य घटकों की तरह निर्धारित नियम-मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। शरीर की स्वाभाविक संरचना इतनी अद्भुत है कि यदि उस पर असंयम जन्य अस्तव्यस्तता न लादी जाय तो वह शतायु की न्यूनतम परिधि को पार कर सैकड़ों वर्ष जी सकता है। मरण तो प्रकृति धर्म है, पर किसी तरह मरते खपते, जीर्ण-शीर्ण स्थिति में जीना मनुष्य का स्वयं का उपार्जन है। आरम्भ से ही मार्ग पकड़ लिया जाय तो कहना ही क्या? अन्यथा मध्य काल में ही उचित दिशा मिलने पर रुख बदलना, स्वयं में सुधार ला सकना संभव है। कल्प-काल की सभी तप तितीक्षाएं, प्रायश्चित्त रूपी साधना उपक्रम, उच्चस्तरीय विशिष्ट भावयोग की साधनाएं एक प्रकार से आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक कल्प का उद्देश्य लेकर ही निर्धारित की गयी है।
आयुर्वेदीय काया कल्प में आहार-साधना द्वारा संयमशीलता का अभ्यास कराया जाता है। यह निग्रह प्रक्रिया है। निरोध के बाद सुनियोजन हेतु अनिवार्य है कि पदार्थ की कारण शक्ति द्वारा आन्तरिक उपचार—अंग अवयवों की चिकित्सा का क्रम बिठाया जाय। उपवास युक्त तितीक्षा में एक आहार को ग्रहण की गयी साधना जितनी फलदायी है, उतनी ही एक ही जड़ी-बूटी से दिव्य वनौषधि से अपने अन्तरंग को नव जीवन देने वाली कल्प चिकित्सा भी महत्वपूर्ण है। इतनी अधिक महत्वपूर्ण व अद्भुत कि उसके बिना कल्प प्रक्रिया का उद्देश्य ही पूरा नहीं होता। काय साधनाओं से आरोग्य लाभ मिलता है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। परन्तु तपश्चर्या की ऊर्जा व संयम जन्य मनोबल की सामर्थ्य के साथ दिव्य औषधियों के सेवन क्रम का भी जब जीवनचर्या में समावेश हो जाता है तो योग साधनाओं के वे सभी लाभ मिलने लगते हैं, जिनकी चर्चा गुह्य-विज्ञान के पृष्ठों पर की जाती रही है।
यदि यह उच्चस्तरीय स्वरूप न भी बन पड़े तो यह मानकर चलना चाहिए कि कल्प प्रक्रिया में समाविष्ट आहार चिकित्सा, दिव्य औषधि कल्प, तितीक्षा, उपवास तथा योग साधना प्रक्रियाओं में सम्पुट से शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के रूप में, दीर्घायुष्य तथा संकल्प शक्ति के ऐसे अनुदान मिलते हैं जो आत्मिक प्रगति के लिए इच्छुक साधक को सामान्य से असामान्य स्थिति में पहुंचा देते हैं। औषधि कल्प को शरीर स्वास्थ्य तक सीमित कर गौण नहीं बना देना चाहिए। पंचकर्म आदि के माध्यम से शोधन कर शरीर चिकित्सा का शास्त्रोक्त विधार चिर पुरातन काल से निर्देशित चला आया है। आंवला, पलाश, हरीतकी, पीपल, शिलाजीत, ब्राह्मी, गिलोय, त्रिफला, गोक्षुर, भल्लातक, सुवर्ण आदि की चर्चा कल्प चिकित्सा सम्बन्धी शास्त्रों में होती है। इनमें अन्य प्रकार के आहार कल्पों दुग्ध अथवा मठा कल्प का भी प्रावधान रखा जाता है। एनिमा द्वारा नियमित सफाई  तथा पर्पटी के सेवन को भी अनिवार्य माना जाता है। परन्तु इन सभी को आज की परिस्थितियों के अनुरूप एक सरल विधान नहीं माना जा सकता। यदि उद्देश्य की पूर्ति करनी ही है तो क्यों न शरीर व मन पर प्रभाव डालने वाली औषधियों के एकाकी प्रयोग को महत्व दिया जाय? जब उपवास प्रक्रिया एवं तितीक्षा की उद्देश्य पूर्ति एक ही अन्न से चिकित्सा करने के रूप में किये जाने का विधान बना ही लिया गया तो क्यों न इस कार्य के लिये भी पांच दिव्य औषधियों को निर्धारण लिया जाय ताकि उन्हें ताजे स्वस्थ रूप में संस्कारित करके ग्रहण करने से कुसंस्कारों का निष्कासन एवं प्रगति की दिशा में अग्रगमन के विविध प्रयोजन पूरे हो सकें? यही विचार कर सूत्र संचालकों ने कल्प प्रक्रिया के इच्छुक साधकों के लिये पांच ऐसी औषधियां चुनी हैं जिन्हें ऋषि गण मान्य साधना के उद्देश्य से अपने आध्यात्मिक काया कल्प के लिए प्रयुक्त करते थे। ब्राह्मी, शंखपुष्पी, तुलसी, अश्वगंधा तथा शतावर के रूप में इन पांच दिव्य वनौषधियों के माध्यम से कल्प को युग ऋषि द्वारा निर्देशित विधान माना जाय एवं न्यूनाधिक रूप में हर साधक इनका सेवन करता रहे, यह अपेक्षा की गयी है।
कल्प साधक उपासना, जप, स्वाध्याय, सत्संग, कुटी प्रवेश एकांत की अन्तर्मुखी साधना जैसे दैनिक कृत्यों की पूर्ति तो शास्त्र परम्परा के अनुसार करते ही हैं। पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवधि अन्तर्जगत की गुत्थियों को सुलझाने के लिए किए जाने वाले मंथन के लिये ही है। इस क्रिया रहित प्रक्रिया को आध्यात्मिक कल्प का मेरुदण्ड, आधार केन्द्र कहा जा सकता है। चिन्तन-मनन की इन दो साधनाओं को तपश्चर्या-अनुशासन की पृष्ठभूमि माना जा सकता है। प्रायश्चित के विभिन्न पक्ष भी इसी पूर्वार्ध में सन्निहित हैं। उत्तरार्ध और भी अधिक महत्वपूर्ण है जिसमें प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाये जाते हैं। आत्म परिष्कार के बाद यदि मन व अन्तर्जगत को क्रमबद्ध दिशा नहीं मिलेगी तो उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। औषधि सेवन को इसीलिए महत्व दिया गया है एवं निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि शरीर की सूक्ष्म आध्यात्मिक संरचना इससे प्रभावित-उत्तेजित हो तथा प्रसुप्त के जागरण में, भावयोग की उच्चस्तरीय स्थितियों में पहुंचने का साधक को अवसर मिल सके।
सीधे कारण शरीर को प्रभावित करने वाली इन औषधियों में तुलसी का स्थान सर्वोपरि है। यह एक प्रकार की संजीवनी बूटी है एवं सभी रोगों की स्वयं में अकेली एक निराली औषधि है। तुलसी की सूक्ष्म सामर्थ्य, सात्विकता सर्व विदित है। जल में तुलसी के पत्र दल डालकर लिया गया चरणोदक साधक के लिये आत्म निग्रह का सर्व श्रेष्ठ साधन शास्त्रों में बताया गया है। सामान्यतया कायाकल्प सम्बन्धी शास्त्रों के कल्प तंत्रों में रसायनों का ही वर्णन अधिक मिलता है। परन्तु तुलसी जैसी औषधि जो रसायन कर्म से भरी कहीं अधिक श्रेष्ठ गुणवत्ता धारण करती है, का वर्णन चिर पुरातन आर्ष ग्रन्थों के अतिरिक्त कहीं मिलता नहीं। तुलसी के रामा, श्यामा, बेसिलकार, मरुवा वन तुलसी, कपूर तथा अजवाइन तुलसी नाम से कई भेद प्रचलित हैं। अध्यात्म उपचार प्रकरण में हमेशा रामा या श्यामा तुलसी का ही प्रयोग होता है। ये ही सर्वोपलब्ध सर्व प्रचलित भी हैं। ग्रन्थ कहते हैं—
महाप्रसादजननी, सर्वसौभाग्यवर्धिनी।        आधिव्याधिहरीनित्यं तुलसित्वं नमोऽस्तुते॥
अर्थात्— ‘‘हे तुलसी! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों को बढ़ाने वाली हैं। सदा आधि-व्याधि को मिटाती हैं, आपको नमस्कार है।’’
आधि-व्याधि निवारण शब्द में कुसंस्कार निष्कासन एवं स्वास्थ्य संवर्धन, सद्गुण-प्रतिष्ठापना के सिद्धान्त गुंथे हुए हैं। शास्त्रकार लिखते हैं—
त्रिकालं विनतापुत्र प्राशर्य तुलसी यदि।       विशिष्यते कामशुद्धिश्चान्द्रयाण शतं बिना॥ 
अर्थात्— हे विनता पुत्र! प्रातः, मध्याह्न तथा शाम को, जो तीनों संध्याओं में तुलसी का सेवन करता है उसकी काया वैसी ही शुद्ध हो जाती है, जैसी कि सैकड़ों चान्द्रायण व्रतों से होती है। वस्तुतः तुलसी एक महत्वपूर्ण  आध्यात्मिक काया कल्प योग है। शरीर का बाह्य आभ्यान्तिरिक शोधन कर यह सामर्थ्य बढ़ाती है, चिन्तन को सतोगुण प्रधान तथा चरित्र को निर्मल बनाती है। कल्प चिकित्सा विधान में तुलसी पत्र दल चूर्ण को गंगा जल में संस्कारित किया जाता है तथा कल्प रूप में उसे नियमित रूप से 30 से 60 ग्राम (6 से 12 चम्मच) की मात्रा में सेवन करने का विधान बनाया है।
ब्राह्मी का कुटी प्रावेशिक विधि से काया कल्प विधान का प्रसंग शास्त्रों में मिलता है। मेधा वर्धन, उत्तेजना शमन, दुर्बलता निवारण तथा वात आदि प्रकोपों से पीड़ित काया के दोष शमन हेतु इससे श्रेष्ठ कोई औषधि नहीं। बुढ़ापे का नाश, शतायु प्राप्ति, स्मरण शक्ति में वृद्धि मनोविकारों का निवारण ऐसे अतिरिक्त लाभ हैं जो नित्य 30 से 40 ग्राम ब्राह्मी कल्क सेवन 30 दिन तक करने में सहज ही प्राप्त होते हैं। जब उपवास-शोधन, आहार उपचार तथा योग साधनों के भाव योग परक क्रिया प्रयोगों के साथ इसे सेवन किया जाता है तो आत्मिक उत्कर्ष में महत्वपूर्ण योगदान मिलता है। ब्राह्मी को कुछ विशिष्ट औषधियों की भावना देकर कल्क बनाने से विशिष्ट लाभ मिलता है। एक माह तक ब्राह्मी का निरन्तर सेवन आयु, बल तो बढ़ाता ही है, वर्ण को सुन्दर, वाणी को मधुर तथा बुद्धि को तीव्र करता है। काया कल्प के लिए मात्रा को कम बढ़ाकर वर्ष भर अनुपान भेद से व्यक्ति के लिए सेवन का शास्त्रों में विधान है। अपनी कल्प साधना पद्धति में ब्राह्मी का कल्क अभिमन्त्रित पुष्पों के रस की भावना के साथ साधकों को प्रतिदिन वन्दनीया माताजी द्वारा दिया जाता है। सरस्वती पंचक की इस महत्वपूर्ण औषधि की आध्यात्मिक सामर्थ्य से सब भली-भांति परिचित हैं।
शंखपुष्पी भी एक मेध्य औषधि है। इसके भी पंचांग का कल्क बनाकर दूध में मिश्रित कर प्रातः पुष्प रसों के साथ इसे देते हैं आयुष्य की वृद्धि, एकाग्रता एवं आसन सिद्धि, मेधा शक्ति की वृद्धि तथा जीवनी शक्ति में अप्रत्याशित परिवर्तन इसके महत्वपूर्ण लाभ हैं। आत्मिक उपचारों में इसका नाम ब्राह्मी के साथ लिया जाता है। कल्प साधकों के लिए तो इसे नव जीवन देने वाली, उन्नति के सोपानों पर चढ़ाने वाली दिव्य औषधि माना जाता है।
अश्वगंधा तथा शतावर दोनों ही रसायन हैं, वलय हैं। तप-संयम द्वारा जब विकारों का शमन हो जाता है। तब इनका सेवन बल बढ़ाने वाला प्रतिरोधी सामर्थ्य को ऊंचा उठाने वाला माना जाता है। आध्यात्मिक प्रगति के इच्छुक साधकों के लिये ये किसी भी प्रकार से बाधक नहीं हैं। इन्हें कामोत्तेजक अवश्य माना जाता है। पर जहां निग्रह के साथ नियोजन है, वहां संचित सामर्थ्य से विशिष्ट ऊर्जा सम्पादन में ये जो योगदान देती है उसकी जितनी चर्चा की जाय, कम है। कायाकल्प इनके माहात्म्य से ग्रन्थों के पृष्ठ रंगे हैं।
कल्प साधना का उद्देश्य व्यक्ति को मात्र नीरोग, दीर्घायुष्य बनाना ही नहीं साधक के व्यक्तित्व को आमूलचूल बदल देना है। संयम अकेला काफी नहीं। कुसंस्कार घटने के साथ आन्तरिक प्रखरता न बढ़े तो योगाभ्यास व साधनाएं वे प्रयोजन पूरे नहीं कर पाते जिनके लिए उनका विधान किया जाता रहा है। एकान्त सेवन, अन्तर्मुखी चिन्तन, आहार नियमन तथा दिव्य स्वरूप बदल देती हैं, उसे नया जीवन देती हैं, इसे देखकर कोई भी आश्चर्यचकित हो सकता है। कोई कारण नहीं कि च्यवन, ययाति की तरह आज भी व्यक्ति समुदाय का काया कल्प नहीं किया जा सके। यह पूर्णतः वैज्ञानिक तथ्यों पर परीक्षित एक अध्यात्म उपचार प्रक्रिया है, इसे हर साधक कल्प काल में अनुभव कर सकता है।


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