
आन्तरिक कायाकल्प हेतु आहार साधना
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अध्यात्म तत्वज्ञान का निर्धारण है—आत्म-शोधन, आत्म-परिष्कार अर्थात् संचित मल-आवरण-विक्षेपों का, कषाय-कल्मषों का, संचित कुसंस्कारों का निराकरण उन्मूलन। इसे रंगाई से पूर्वे की धुलाई, बुवाई से पूर्व की जुताई कह सकते हैं। नाली में जमी कीचड़ न हटे तो उस उद्गम से जन्मने वाले कृमिकीटकों को हटाते रहने पर भी पिण्ड छूटने वाला नहीं है। तप-साधना का उद्देश्य है—स्वयं साहस उभारते हुए संचित कुसंस्कारों के विरुद्ध अनुनय-विनय, सहन-सिखावन को निरर्थक मानकर तेजस्वी विद्रोह खड़ा कर देना। ब्रह्मविद्या का सार संक्षेप यही है कि साधक अपनी संचित कुसंस्कारिता से जूझें और उसके स्थान पर भावना, विचारणा एवं कार्यपद्धति में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिये भागीरथी संकल्प अपनायें और पवनपुत्र जैसा समुद्र लांघने का पराक्रम कर दिखायें। इतना कर गुजरने वाले ही इस दिव्यलोक में प्रवेश पाते और रत्न-राशि बटोरकर वापस लौटते हैं।
कल्प साधना में आत्म-शोधन की तपश्चर्या के रूप में आहार साधना तथा आत्म क्षेत्र में उच्चस्तरीय विशिष्टताओं के समावेश के रूप में योग साधनाओं का समावेश है। कायाकल्प का प्रचलित अर्थ है—वृद्धावस्था को नवयौवन में बदल देना। यह मान्यता तो अलंकारिक है। दीर्घायुष्य तो सम्भव है, पर उत्पादन-अभिवर्धन के क्रमिक स्वरूप में परिवर्तन ला सकना कठिन है। नियति को ऐसा परिवर्तन स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसलिए वृद्धावस्था को कष्टसाध्य न होने देने तथा नीरोग दीर्घायुष्य का आनन्द लेते रहने की सम्भावना को ही कायाकल्प मान लेना चाहिये एवम् दूसरों की तुलना में अपने को अधिक सौभाग्यशाली मानकर सन्तोष करना चाहिये।
‘कल्प’ शब्द आयुर्वेद में पुनर्यौवन प्राप्ति के लिए किये गये उपचारों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। च्यवन, ययाति आदि द्वारा इसी विधि के जराजीर्ण स्थिति से छुटकारा पाकर नवयौवन प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है। महामना मालवीयजी ने भी किन्हीं तपसी बाबा के संरक्षण में रहकर अपना कायाकल्प उपचार कराया था तथा आंशिक लाभ भी पाया था। पाश्चात्य देशों में यौवन प्राप्ति हेतु जीवों की हारमोन-ग्रन्थियां लगाने के माध्यम से तथा उनके भ्रूणों को पिलाकर इस उद्देश्य के प्रयोग किये हैं। कितना लाभ उन्हें मिला, यह अविज्ञात है, पर इतना सुनिश्चित है कि स्थाई परिवर्तन किसी में सम्भव नहीं हो सका। प्रकृति का नियत क्रम, बन्धन जब यथावत् है तो मरण से पूर्व की स्थिति से कैसे बचा जाय? वृद्धा अवस्था तो आनी ही है, इसलिए टूटे को मरम्मत कर मात्र काम चलाऊ बना लेने की बात तक को ही शरीर कल्प सोचना चाहिए। जितनी भी किसी चिकित्सा पद्धति में शरीर शोधन और नवीनीकरण की गुंजाइश है उतनी प्रस्तुत कल्प साधना में भी विद्यमान है। प्रकृति के और भी समीप होने और अध्यात्म के दैनन्दिन जीवन में समाविष्ट रहने से यह और अधिक निर्दोष, श्रेष्ठ एवम् चिरस्थाई है।
स्पष्टतः समझ लेना चाहिए कि साधना तपश्चर्या के कायाकल्प विधान का सबसे परिष्कृत स्वरूप आहार साधना से बन पड़ता है। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है। शरीर आहार से ही बनता है। प्रकारान्तर से आहार के स्तर को ही शारीरिक स्वास्थ्य को आधार और मानसिक सन्तुलन का आधारभूत कारण माना गया है। आत्मिक प्रगति की बात सोचते ही सर्व प्रथम आहार साधना की बात सामने आती है। अभक्ष्य को अनावश्यक मात्रा में उदरस्थ करने वाला धर्मोपदेशक भले ही बन सके, धर्मात्मा नहीं बन सकता। इसलिए पूजा-उपचार की तरह आहार साधना पर भी ध्यान देना अनिवार्य आधारों पर सम्मिलित रखा गया है। कल्प साधना के अन्य उपचारों से भी अधिक महत्व आहार निग्रह को दिया गया है। आहार निग्रह के उपरान्त मनोनिग्रह कठिन नहीं रह जाता। संकल्प शक्ति बढ़ती है व अन्य मनोयोग परक उपचारों की ओर गति बढ़ती है तथा शरीर की दृष्टि से भी मनुष्य ऐसा सामर्थ्यवान बनता है कि ऋतु असन्तुलन एवं अप्रत्याशित परिवर्तन उसे डगमगा न पायें।
सर्वथा निराहार रहकर तप-साधना करना तो कठिन तितीक्षा माना जाता है। चिर पुरातन चान्द्रायण साधना में विधान भी कुछ इसी प्रकार का था कि मनुष्य क्रमिक रूप से आहार को नियन्त्रित करे एवं इस प्रकार शरीर शोधन एवं संकल्प सम्पादन की विधि क्रियायें पूरी करता चले। आज की परिस्थितियों में वैसे संकल्पवान विरले ही मिलेंगे। मन भूख के कारण व्यग्र हो तो साधना में स्थिरता, एकाग्रता कैसे बन पड़े। उपासना-उपचार, योग-साधना एवं तप-तितीक्षा के समन्वित स्वरूप से ही काया कल्प योग बनता है। आहार न लेने से मन का डांवाडोल हो जाना और 1 माह जैसी अल्पावधि भी पूरी न कर पाना, आत्म परिष्कार—आन्तरिक कायाकल्प के सारे उद्देश्यों को अपूर्ण बना देती है। ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ यही है कि समय और परिस्थितियों का, देशकाल पात्र का ध्यान रखते हुए ऐसा सन्तुलन बिठाया जाय कि तपश्चर्या के आधारभूत सिद्धान्तों की भी रक्षा होती रहे एवम् उपवास क्रम भी सरलतापूर्वक निभ सकने योग्य बन जाय।
अनेक सम्मिश्रणों से बचकर, संतुलित भोजन के नाम पर नाना प्रकार की वस्तुओं के सेवन का खण्डन कर इस कल्प साधना में एक ही अन्न एवम् एक ही औषधि से कल्प करने का विधान बनाया गया है। सम्मिश्रित आहार जीवन के लिए अनिवार्य है, यह एक ऐसी भ्रान्ति है, जिसे जनमानस से मिटाया जाना अनिवार्य है। वस्तुतः इससे पाचन तन्त्र को और अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। यह तो पाश्चात्य मान्यता है। जिस वस्तु की शरीर रचना एवं वनस्पति-अन्न वर्ग की रासायनिक संरचना को देखते हुए निष्कर्ष यही निकलता है कि मानवी काया के लिए एक समय में एक ही प्रकार का आहार लिया जाना श्रेष्ठ है। आहार भी उतना ही हो जितना अनिवार्य है। हो सके तो आधा पेट खाली रखा जाय ताकि अभ्यस्त कुसंस्कारी शरीर को अपना शोधन करने का अवसर मिल सके। शरीर संरचना कुछ इस प्रकार की है कि यदि पेट के पाचक रस ठीक से कार्य कर रहे हों, तो वे सामान्य से आहार से भी जरूरत योग्य जीवन तत्व निकाल कर उसे अपने ढांचे से ढाल कर सहज ही अपना काम चला सकते हैं।
वस्तुतः अन्न एक प्रकार की औषधि है। प्राणवान सात्विक अन्न एक प्रकार का आध्यात्मिक ईंधन है, जो शरीर व मन को प्राण तथा गति देता है। अन्न ही संस्कार देते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव बनाते हैं। जब औषधि ही मान लिया गया तो स्वाद क्या देखना? भाप से पकाये गये सुसंस्कारी अन्न की गुणवत्ता भुने-तले गये मशालों से सम्मिश्रित आहार से कहीं अधिक श्रेष्ठ है वह साधक के लिए तो एक अनिवार्यता है। पंचतत्वों की मानवी काया के लिए गेहूं, जौ, चावल, मक्का एवं बाजरा की पंच अन्न चिकित्सा का स्वरूप बनाया गया है। जहां बाजरा उपलब्ध न हो, वहां ज्वार को भी लिया जा सकता है। साधक, निकृष्ट-चिन्तन-सामर्थ्य के अनुसार मार्गदर्शकों द्वारा सूक्ष्म पर्यवेक्षण कर इनमें से किसी एक को भाप द्वारा पकाकर उसे नियमित क्रम से कम मात्रा में ग्रहण करने का विधान बनाया जाता है। किन्हीं-किन्हीं के लिए हविष्मान (गेहूं, जौ, तिल) का भी निर्धारण किया जा सकता है। इसमें अपनी रुचि, स्वाद का दबाव न देकर निर्धारित विधि-विधान से चलने को ही न्यूनतम तपश्चर्या-तितिक्षा कहा गया है। प्रत्येक अन्न स्वयं में इतना समग्र है कि वह शरीर में संव्याप्त कमी को पूरा करता ही है, विकारों का निवारण कर काया का और भी समर्थ-सशक्त बनाता है। उपवास का इसमें समावेश ही है। जिन साधकों को इसमें से पृथक्-पृथक् अन्न अनुकूल पड़े, वे अमृताशन की खिचड़ी का सेवन कर न्यूनतम कल्प का अपना संकल्प निभा सकते हैं। स्वादों की अभ्यस्त काया के लिए एक छोटा-सा कल्प विधान भी एक ऐसा शुभारम्भ है, जिसे हर दृष्टि से अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति की ओर एक कदम कहा जा सकता है। यदि इस एक माह के एक आहार स्वाद संयम को न्यूनाधिक रूप में साधक आगे भी अपने-अपने घरों पर निभाते रहें तो वे निश्चित ही दीर्घायुष्य नीरोगी काया के वरदानों से लाभान्वित होते रहेंगे।
शांतिकुंज-गायत्री तीर्थ में अब ब्वाइलर व्यवस्था द्वारा भाप से अन्न, शाक या खिचड़ी को पकाकर हर साधक को खिलाने का ही विधान बना दिया गया है। अन्न की सात्विकता तब और भी बढ़ जाती है, जब निर्धारणानुसार हर व्यक्ति अपना आहार वन्दनीया माताजी से ग्रहण करता है। इसमें पदार्थ की उस कारण शक्ति के माध्यम से चिकित्सा का तत्वदर्शन अन्तर्निहित है, जो हर साधक की अध्यात्म क्षेत्रों में प्रगति का एक महत्वपूर्ण सोपान है। कल्प काल की आहार साधना का निर्धारित विधान स्वरूप ही है। उस उपवास मिश्रित एक आहार साधना को ऐसा सन्तुलित रखा गया है कि उससे न तो खाली पेट रहने से उत्पन्न होने वाली कठिनाई का साधक को सामना करना पड़े और न पेट को विश्राम मिलने के उद्देश्य में व्यतिरेक उत्पन्न हो। इस आहार साधना के अतिरिक्त शांतिकुंज व्यवस्था में प्रातः अखण्ड ज्योति के दर्शन के साथ ही जड़ी-बूटी कल्प का सेवन कराया जाता है। एक आहार के अतिरिक्त एक जड़ी-बूटी का सेवन काया कल्प विधान का एक महत्वपूर्ण अंग है।
कल्प साधना को एक प्रकार की ‘‘सुसंस्कारी आहार साधना’’ कहा जा सकता है। जिसने आहार द्वारा अपने काय-संस्थान का समुचित शोधन परिपोषण कर लिया, वह निश्चित ही आध्यात्मिक कायाकल्प का सुपात्र बन गया। यदि इतना मात्र बन पड़ा तो और भी अधिक कड़ी कल्प चिकित्सा की मनोभूमि भी बन सकेगी और शरीर भी इतना समर्थ बनेगा कि उस कड़े दबाव को सहन कर सके। चटोरेपन की अभ्यस्त आदत तथा पेट को ठूंस-ठूंस कर लादने की विद्रूपता को कैसे छोड़ा जाय, उसका यह प्रारम्भिक शिक्षण है। फल, दूध, मट्ठा, शाक-सब्जी आदि के भी कल्प किये जाते हैं। परन्तु इन्हें अभी की स्थिति के लिए उपयुक्त न मानकर आगे के लिए छोड़ दिया गया है। अगले दिनों आवश्यकतानुसार इस प्रकार के कल्पों का भी विधान बनाया जाएगा।
गम्भीर रोगों का उपचार बड़े अस्पतालों में ही हो पाता है। कल्प चिकित्सा जैसे आध्यात्मिक विधान को घर रहकर नहीं किया जा सकता है। आन्तरिक कायाकल्प व परिशोधन की तपश्चर्या जिस प्रकार के वातावरण में सम्भव है, वह गायत्री तीर्थ में सहज ही उपलब्ध है। जिन्हें आत्मिक प्रगति अभीष्ट हो, जो उच्चस्तरीय साधना की ओर अपना कदम बढ़ाना चाहते हैं, उन्हें इस क्रम में निश्चित ही सम्मिलित होना चाहिये।