
‘‘ज्ञानरथ’’ समय की महती आवश्यकता
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युग चेतना को घर-घर पहुंचाने के लिए प्रज्ञा साहित्य हर शिक्षित को पढ़ाना चाहिए और उसके माध्यम से हर अशिक्षित को सुनाने का प्रयत्न होना चाहिए। प्रज्ञा अभियान के कार्यक्रमों में इसे मूर्धन्य माना गया है। व्यक्तिगत रूप से इस प्रयास को झोला पुस्तकालय के रूप में चलाने का प्रयत्न प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को करना चाहिए। दस पैसा नित्य और एक घंटा समय की सदस्यता शर्त इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए रखी गई है।
आलोक वितरण की इस योजना को अधिक सुनियोजित रीति से सम्पन्न करने का विकसित एवं सुव्यवस्थित रूप है चल पुस्तकालय इसे ज्ञानरथ भी कहा जाता रहा है। पिछले दिनों जहां कहीं भी इस योजना को कार्यान्वित किया गया है, वहां उसका आशातीत परिणाम निकला है। अब यह एक प्रकार से अनिवार्य माना जाना चाहिए कि इसे प्रत्येक प्रज्ञा संस्थान सुनियोजित रूप से चलायें। जहां प्रज्ञा संस्थान नहीं बन सके हैं वहां उन्हें चलते फिरते नितान्त सस्ते किन्तु अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में आश्चर्यजनक रीति से सफल होने वाले इन ज्ञानरथों को यही मानकर चलाया जा सकता है, कि यह भी एक छोटा प्रज्ञा संस्थान है।
आमतौर से देवालय स्थिर ही होते हैं, किन्तु उस परम्परा का महत्व भी समझा ही जाना चाहिए, जिससे तीर्थों को भी ‘चल’ बना कर घर बैठे दर्शन कराने की सुविधा बनाई जाती है। ऐसे अनेकों हो सकते हैं। जो असमर्थ एवं अशक्ति के कारण देव दर्शन से वंचित रहें उन्हें लाभ देने के लिए देव प्रतिमाओं को चल बनाने की आवश्यकता तत्वदर्शियों ने समझी है और देवालय निर्माण के साथ-साथ उसे भी जोड़ा है। जगन्नाथ जी की रथ यात्रा प्रसिद्ध है। इसी प्रकार अन्यत्र भी रथ यात्रा निकलती है। आंध्र में पाण्डुरंग की प्रतिमा बैल गाड़ी पर सजाकर गांव-गांव दर्शन कराने के लिए ले जाई जाती है। शिवरात्रि पर गंगाजल को कन्धे पर रख कर गांव-गांव झांकी कराई जाती है। तब उसे अभीष्ट शिव मन्दिर पर चढ़ाया जाता है। रामलीला में भगवान की शोभा यात्रा निकलने का भी कार्यक्रम रहता है। महात्माओं नेताओं के जुलूस निकलते हैं ताकि उनका दर्शन लोग घर बैठे भी कर सकें। अब चल बैंक, चल अस्पताल, चल न्यायालय, चल पोस्ट ऑफिस आदि भी बनने लगे हैं। इनके पीछे छिपा उद्देश्य, चल पुस्तकालय के साथ जुड़कर भी उतना ही प्रभावी सिद्ध होता है। ज्ञानरथ की महत्ता एक छोटे प्रज्ञा संस्थान के रूप में समझी जा सकती है। उसकी लागत और भव्यता कम होते हुए भी उपयोगिता में किसी प्रकार कम नहीं माना जा सकता है। सच तो यह है कि उसे और भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है देवालय में पहुंचने वालों को ही दर्शन मिलते हैं पर इनके द्वारा महाप्रज्ञा का परिचय प्राप्त करने का अवसर घर बैठे इतने लोगों को मिलता रहता है जितने कि देव दर्शन के लिए भी नहीं पहुंचते।
चार रबड़ के पहियों वाले स्टॉल रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्मों पर घूमते हैं। सड़क बाजारों में पर तरह-तरह के डिजाइनों की धकेल गाड़ियां फेरी वाले चलाते हैं। इन्हीं में से कोई उपयुक्त डिजाइन चुनकर या अपनी कल्पनानुसार किसी डिजाइन की घरेलू गाड़ी बनाई जा सकती है। कांच के ढक्कन वाला, आकर्षण, प्रदर्शन का उद्देश्य पूरा कर सकने वाला सुसज्जित ज्ञानरथ न बन सके तो शाक भाजी वालों जैसी खुली गाड़ी बहुत ही कम दाम में बन सकती है। धूप और गर्मी, नमी से बचाने के लिए उस पर पारदर्शक प्लास्टिक ढंके रखा रखा जा सकता है इन ज्ञानरथों के अब तक अनेकों डिजाइन बन भी चुके हैं। जिनमें कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें साइकिल सवार पैरों की सहायता से चला सकते हैं। इनकी लागतें अधिक नहीं बैठतीं। खुली होने पर ढाई तीन सौ में और ढक्कनदार कांच वाली ऊंची दर्शनीय बनाने पर वह पांच सौ लगभग स्थानीय साधनों से ही बन सकता है। हर जगह के मिस्त्री इन्हें हल्की, सुन्दर एवं सस्ती बनाने में अपनी सूझ-बूझ का परिचय दें सकते हैं। एक हजार का साहित्य इनके के लिए पर्याप्त हो सकता है। अधिक सामान रखने के लिए पहियों के बीच एक भंडारी भी रह सकती हैं।
इन चल पुस्तकालयों का मूल उद्देश्य घर-घर, जन-जन तक प्रज्ञा-साहित्य पहुंचाने की सेवा करना है। हर शिक्षित को, घर बैठे, बिना मूल्य, नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पहुंचाने की योजना को कार्यान्वित करने में सभी वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र संलग्न हों। इसे और भी सुनियोजित करने के लिए इन ज्ञानरथों की अधिक उपयोगिता है। झोला पुस्तकालयों में थोड़ा साहित्य ही लेकर चला जा सकता है, पर इसमें तो उतना लद जाता है जो हर दिन हजार घरों तक उसे पहचाने वापस लाने की योजना आसानी से पूरी करता रहे।
इसके अतिरिक्त इसमें पहियों से लेकर ऊपर तली तक चारों ओर बोर्ड लगाकर इतना आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक बनाया जा सकता है कि रास्ता चलते लोग उसे देखें, आकर्षित हों और खड़े होकर पूछताछ करके अपनी जिज्ञासा शान्त करें। जन संकुल क्षेत्र में इसे ले जाया जाय तो लोग सहज ही आकर्षित होंगे। उन्हें प्रज्ञा साहित्य दिखाया महत्व समझाया जा सके तो कोई कारण नहीं कि उसकी बिक्री न होने लगे। यह दुहरा प्रयोजन हुआ। इससे राहगीर भी युग चेतना से परिचित होने का लाभ लेते हैं, साथ ही बिक्री कमीशन से इतना लाभ भी अर्जित होता रहता है कि उससे चलाने वालों का पारिश्रमिक भी निकलता है। यह बिक्री उन लोगों में भी होती है जो मुफ्त में नित्य पढ़ते हैं। कुछ ही समय में उनमें अनेकों इतनी रुचि लेने लगते हैं कि उस ज्ञान सम्पदा को घर में रखने, अपने परिवार तथा पड़ोस को लाभ देने की बात सोचते हैं। ऐसे लोग इतना सस्ता और इतना अच्छा साहित्य खरीदने में थोड़ा पैसा प्रसन्नता पूर्वक खर्च निकलने में सहायता मिलती है।
प्रत्येक प्रज्ञा संस्थान में जन सम्पर्क के लिए कार्यकर्ता की नियुक्ति आवश्यक मानी गई है। उसके बिना आलोक वितरण का काम एक कदम भी नहीं चल सकता। यह आवश्यकता जहां न बनेगी वहां वे निर्जीव ही बने पड़े रहेंगे। नियुक्त कार्यकर्ता के लिए वेतन की आवश्यकता पड़ती है। इसकी पूर्ति ज्ञान रथ तो अपने बलबूते ही कर लेते हैं। मुफ्त पढ़ने वाले, देर सवेर में खरीदते रहने वाले स्थायी ग्राहक भी बनेंगे। अपने यहां ज्ञानघट स्थापित करेंगे और उस पैसे से अपने यहां घरेलू ज्ञान मन्दिर की स्थापना करेंगे। इससे उद्देश्यों की पूर्ति भी होगी। युगान्तरीय चेतना घर-घर तक, जन-जन तक पहुंचेगी साथ ही यह प्रयास आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी भी बन जायेगा।
आरम्भिक पूंजी अधिक से अधिक एक हजार चाहिए। कमी हो तो कम में भी गाड़ी के स्वरूप तथा साहित्य की पूंजी में कटौती करके छोटे में भी आरम्भ किया जा सकता है। यह लागत वस्तुतः व्यापार में लगे मूल धन की तरह है जो किसी दान दक्षिणा में खर्च नहीं होती वरन् अपनी ब्याज हाथों हाथ निकलती रहती है। प्रज्ञा परिजन इतनी राशि मिल जुल कर अनुदान या उधार के रूप में बड़ी आसानी से जुटा सकते हैं महत्व समझा जा सके और उसे कार्यान्वित करने में एकाध प्रतिभा आगे आये तो समझना चाहिए इस व्यवस्था के बनने में कहीं भी, कुछ भी कुछ भी अड़चन आड़े न आयेगी। जो थोड़ी भाग-दौड़ करने, व्यवस्था जुटाने और सहयोग अर्जित करने की कला से परिचित हैं उनके लिए इतनी छोटी, किन्तु इतनी महत्वपूर्ण व्यवस्था बनाने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
परिजनों को ज्ञान रथ बनाने में दिक्कत न हो इस दृष्टि से हरिद्वार में ही ज्ञानरथ उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। हलके मॉडल का मात्र लकड़ी और साइकिल के पहियों से चल सकने वाला बिना पहिये का ज्ञानरथ 350 में उपलब्ध होता है। कुछ भाग एंगिल शेष लकड़ी का बनाने से लागत 425 तथा सम्पूर्ण लोहे का बनाने से वह 550 में पड़ता है। 150 में साइकिल के दो बड़े वह छोटे पहिये का प्रबन्ध हो जाता है। उसमें आदर्श वाक्य लिखकर राष्ट्रीय ध्वजा जैसा सम्मानास्पद स्वरूप प्रदान किया गया है। समर्थ शाखाओं से यह आग्रह किया गया है कि वे इसी तरह के ज्ञानरथ अपने यहां तैयार करायें और समीपवर्ती प्रज्ञा संस्थानों को उपलब्ध करायें।
विनिर्मित प्रज्ञा-संस्थानों को इस योजना की क्रियान्वित करना अपना प्रमुख कार्यक्रम मानना चाहिए और उसे अविलम्ब प्रारम्भ करने, जन सम्पर्क करने एवं आलोक वितरण का प्रयास तत्काल हाथ में लेना चाहिए। जहां प्रज्ञा-संस्थान नहीं बने हैं वहां ज्ञानरथ को ही छोटा प्रज्ञा-संस्थान मान कर उसे चालू करना चाहिए। इमारत की दुकान न मिले पर लोग सड़कों के किनारे लकड़ी के खोखे खड़े करके उनमें दुकान बनाते और अपना खर्च चलाते हैं। जहां प्रज्ञा-संस्थान नहीं बने वहां यह खोखे के ज्ञान-मन्दिर बना कर यह मानना चाहिए कि वे परिस्थितियों से भले ही पिछड़े हों, प्रयास की दृष्टि से अग्रगामियों की पंक्ति में ही खड़े हैं। जहां निर्माण को चुके वहां समझा जाना चाहिए कि स्थिरता के साथ गतिशीलता जोड़ने वाली यह सच्चे अर्थों में प्राण-प्रतिष्ठा कर ली गई।
ज्ञानरथों को कोई भी सामान्य शिक्षा एवं स्वास्थ्य वाला व्यक्ति चला सकता है। बातचीत में कुशल लड़के इसमें भली प्रकार सफल हो सकते हैं। इन बेकारी के दिनों में थोड़ी आजीविका के साथ इस महत्वपूर्ण समाज सेवा के लिए कहीं भी विचारशील परिश्रमी व्यक्ति मिल सकते हैं। किसी को इसमें संकोच इसलिए नहीं करना चाहिए कि वे माल बेचने के लिए फेरी वालों की तरह नहीं फिर रहे हैं वरन् एक अत्यन्त उच्चस्तरीय उद्देश्य की पूर्ति में निरत हैं। बाजारू पुस्तकें या जिस-तिस का माल बेचने पर ही उन्हें फेरी-वाला कहा जाता है। प्रज्ञा साहित्य को जन-न तक पहुंचाने वाले तो ‘प्रज्ञा पुत्र’ ही समझें जायेंगे और सम्मानित होंगे। ज्ञानरथ चलाने में देवता की रथ यात्रा खींचने वालों जैसा पुण्य समझा जा सकता है।
जहां प्रज्ञा संस्थान बन चुके वहां के लिए भी, जहां नहीं बन सके वहां भी ज्ञानरथ तो एक अनिवार्य आवश्यकता की तरह बनने ही चाहिए—चलने ही चाहिए। अब तक जहां इस सर्वोपरि महत्व के काम को हाथों में न लिया गया हो, वहां उसे तत्काल कार्यान्वित किया जाना चाहिए। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को अपने कंधों पर यह उत्तरदायित्व अनुभव करना चाहिए कि उसके प्रभाव क्षेत्र में जितने अधिक संभव हों, ज्ञान रथ बनने चाहिए, चलने ही चाहिए। समय की मांग है कि इस सन्दर्भ में कहीं भी उपेक्षा न की जाए, न फिर कभी करने की टाल मोटल की जाए। इस निर्माण के उपयुक्त मुहूर्त आज्ञा को ही समझा जाना चाहिए। जहां जीवन को वहां सामूहिक या एकाकी प्रयत्न से यह शुभारम्भ इन्हीं दिनों होना चाहिए।