
शोध-संसद— ब्रह्मवर्चस् शोध के लिए मनीषा को युग निमंत्रण
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ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के अन्तर्गत मानवीय गरिमा से सम्बन्धित उच्चस्तरीय मूल्यों को प्रस्तुत प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर खरा सिद्ध करना है। पिछले दिनों, विज्ञान बुद्धिवाद, प्रत्यक्षवाद के अधकचरे उभार ने नई पीढ़ी को बेतरह भ्रमग्रस्त किया है। ‘‘जो कुछ है प्रत्यक्ष ही है—पदार्थ ही है’’ का नारा विज्ञान और प्रत्यक्ष वाद ने दिया है। फलतः मत्स्य न्याय का जंगली कानून ही उपयुक्त लगने लगा है। उच्छृंखलता पनपी है और वह बढ़ते-बढ़ते मेरा सो सही ही हठवादिता अपनाते हुए, आतताइयों के आक्रमण की नीति अपनाने लगी है। शालीनता, संयम, अनुशासन, सौजन्य और मानवीय मूल्यों का उपहास ही नहीं उड़ाया जा रहा वरन् उन्हें तिरस्कृत निरस्त भी किया जा रहा है। परिणति सामने है। असन्तोष और विग्रह की आग धधक रही है। कुकर्म बढ़ रहे हैं। आपाधापी और छीना झपटी के इतने प्रत्यक्ष, परोक्ष तरीके उभरने लगे हैं कि व्यक्ति की सुरक्षा, समाज व्यवस्था और विश्व भविष्य की संभावना निरन्तर विभीषिकाओं से घिरती जा रही है। व्यक्ति गिर रहा है और समाज मर रहा है। जीवन दर्शन और लोक प्रचलन में जब दुष्टता और भ्रष्टता को ही मान्यता मिलती है तो पतन पराभव के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता ही क्या है? विषमता की खाई गहरी होती जा रही है। अनीति पनप रही है। समर्थों की मनमानी चल रही है। फलतः विनाश भी निश्चित है। मर्यादा का उल्लंघन जब भी जहां भी पनपा है स्वयं डूबा और सम्पर्क क्षेत्र को डुबाया है। यह दुःखद विडम्बना और भयावह सम्भावना लगती है संचित सभ्यता का अन्त करके छोड़ेगी और बुद्धिमान समझा जाने वाला मनुष्य दुर्गति के शिकंजे में कसता ही चला जाएगा, अन्ततः सामूहिक आत्महत्या के लिए विवश होगा।
प्रस्तुत विभीषिका को निरस्त करने का एक ही उपाय है कि मानवीय मूल्यों को उत्कृष्टता को जीवन्त रखते हुए भ्रष्ट चिन्तन से जूझा जाय। तथ्यतः व्यक्ति या समाज को ऊंचा उठाने, नीचा गिराने की पूरी जिम्मेदारी अपनाये गये दृष्टिकोण की है और यह अनायास ही नहीं बन जाता उसे तात्कालिक दर्शन प्रभावित करता है। आज दर्शन दृष्टिकोण को तथाकथित प्रत्यक्षवाद ने विषाक्त बनाया है। प्रस्तुत, विज्ञान बुद्धिवाद ने जहां अनेकानेक सुख-सुविधाओं की समर्थता, सम्पन्नता को बढ़ाया है वहां उसने जीवन दर्शन में नास्तिकता का ऐसा हलाहल घोला है जो आदर्शवादी मान्यताओं में से एक का भी समर्थन नहीं करता और मनमानी करने के लिए जंगल का कानून अपनाने की प्रेरणा देता है। यदि यह दर्शन प्रवाह उलटा न गया तो बढ़ता हुआ प्रत्यक्षवाद मनुष्य को पशु या पिशाच बनाकर ही रहेगा। फलतः आदिम युग में लौटना पड़ेगा। बढ़ते हुए साधन एक दूसरे का गला काटने के ही काम में आयेंगे।
प्रस्तुत युग संकट से जूझना मनीषा का काम है। क्योंकि विष वृक्ष की जड़ें साधन एवं व्यवहार के क्षेत्र में नहीं अन्तराल की आस्थाओं में गहराई तक घुस गई हैं। उनके लिए परशुराम जैसा कुल्हाड़ा चाहिए। यह ऐसे तत्त्व दर्शन का ही हो सकता है जिसे प्रचलित प्रत्यक्षवाद के गले भी उतारा जा सके और मानवीय मूल्यों की रक्षा भी कर सके। नए सिरे से उसी का निर्धारण प्रतिपादन, ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान को करना पड़ रहा है। अब विज्ञान तर्क और प्रमाण का समर्थन ही बुद्धि ग्राह्य बन गया है। श्रद्धा को भावुकता या अन्ध मान्यता कहा जाने लगा है। नास्तिकतावादी अनास्था न उत्कृष्टता को आवश्यक मानती है न आदर्शवादिता अपनाने में लाभ स्वीकार करती है। उसका मत है कि प्रत्यक्ष ही सब कुछ है। परोक्ष मान्यताओं पर आधारित मानवीय मूल्यों को स्वीकारने में समर्थ लोग क्यों घाटा उठायें? असमर्थों को निगलकर क्यों न समर्थों की क्रीड़ा क्षेत्र की परिधि बढ़ायें? कहना न होगा कि यह प्रत्यक्षवादी दर्शन इतनी अधिक समस्यायें उत्पन्न करेगा जिनसे मनुष्य की संचित शालीनता और समाज की सुव्यवस्था को बनाये रख सकेगा शक्य न हो सकेगा।
इस संकट से उबारने में मात्र मनीषा ही समर्थ हो सकती है। गुत्थी न शासन सुलझा सकेगा न अर्थ तन्त्र। नियन्त्रण और निर्धारण के मूल में ही अब अनास्था भरी रहेगी तो छद्म विडम्बना का लिबास ओढ़कर नंगा नाच नचाती रहेगी। युग चेतना ने मनीषा को चुनौती भेजी है कि वह संकट का सामना करने के लिए ऐसा आधार खोजे जो प्रस्तुत समस्या का सामना कर सकने में समर्थ हो सके। चुनौती स्वीकार कर ली गई है और मानवी मूल्य को, आदर्शवादी उत्कृष्टता को, धर्म एवं अध्यात्म को, मूढ़ मान्यता, प्रतिगामिता के लांछन से बचाने को पूरी तरह निश्चय एवं कृत कार्य होकर रहने का संकल्प कर लिया है। इन दिनों तर्क, प्रमाण और विज्ञान इन तीन की ही मान्यता है। निश्चय किया गया है कि प्रत्यक्षवाद की इन कसौटियों पर उत्कृष्टता को हर दृष्टि से खरा सिद्ध करके रहा जाएगा। तदनुसार सज्जा सजा ली गई है। सरंजाम जुटा लिया गया है और नये आधार पर पुराने प्रतिपादन की सुनिश्चित रूपरेखा तैयार कर ली गई है। संक्षेप में यही है ब्रह्मवर्चस्, शोध संस्थान। उसने दार्शनिक अनुसंधान और वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षण के दोनों ही पक्षों को विज्ञान की भाषा में समझने, समझाने का कार्यक्रम बनाया है। ताकि प्रत्यक्षवाद को उसके द्वारा अपनाये गए आधार ही भ्रान्तियों से छुड़ाने और सत्य और तथ्य समझने के लिए बाधित कर सकें।
ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की कार्य पद्धति की समूची रूप रेखा का प्रस्तुतीकरण इन थोड़ी सी पंक्तियों में संभव नहीं। उसका स्वरूप, संयोजन और कार्यक्रम संक्षेप में दिया जा रहा है। यहां तो इतना ही कहा जा रहा है कि यह कार्य अत्यन्त विस्तृत और व्यापक है। उसे सीमित साधनों और उंगलियों पर गिनाने लायक व्यक्ति न कर सकेंगे भले ही वे कितने ही निष्ठावान, परिश्रमी, सुयोग्य एवं सूझ-बूझ वाले ही क्यों न हों। बड़े कामों के लिए बड़े साधन न सही बड़ा सहयोग तो चाहिए ही। उसे प्रज्ञा परिवार के विशाल क्षेत्र में से उन प्रतिभाओं द्वारा अर्जित करने की आवश्यकता पड़ रही है जिनका विज्ञान, दर्शन और साहित्य क्षेत्रों में समुचित अधिकार और कहने लायक प्रवेश अध्यवसाय है।
विषय गम्भीर है और जटिल भी। उसके लिए कारगर सहयोग दें सकने के लिए प्रायः स्नातकोत्तर स्तर की योग्यता चाहिए। उथला ज्ञान गहरी डुबकी लगा सकने में समर्थ न हो सकेगा। फिर वह सहयोग सेवाभावी भी होना चाहिए। पारिश्रमिक चुकाने का औचित्य तो है पर जहां साधनों का सर्वथा अभाव हो। जीवट की जहां पूंजी हो वहां वेतन पारिश्रमिक चुकाने की बात कैसे सोची जाय? उसे जुटाने के लिए किस-किस के दरवाजे पर झोली घुमाई जाय? इसलिए प्रज्ञा परिवार में से ऐसे सहयोग की योजना इन पंक्तियों से की जा रही है जिनका प्रस्तुत तीन विषयों में—विज्ञान, दर्शन और साहित्य में से एक या कइयों में अच्छा प्रवेश है। साथ ही जिनके पास इतना अवकाश भी है कि थोड़ा बहुत समय नियमित रूप से प्रस्तुत शोध प्रक्रिया में सहयोग देने के लिए लगाते रह सकें। यह उन्हीं के लिए बन पड़ेगा जो सच्चे मन से लक्ष्य की महत्ता और परिणति को समझें। चंचु प्रवेश या उथली चिन्ह पूजा से न इतने महत्वपूर्ण कार्य कभी बन पड़े हैं और न बन पड़ेंगे। श्रद्धा तत्परता और उदारता जितनी बढ़ी-चढ़ी होगी उतना ही समय निकलेगा और उतना ही सहयोग बन पड़ेगा।
शोध संस्थान के सहयोगियों की संसद बनाई जा रही है। उनसे नियमित समय देने और मार्गव्यय या पोस्टेज घर से खर्च करने का अनुरोध किया जा रहा है। इस सन्दर्भ में इतना शुभारम्भ तो भावनाशील मनीषियों में से कोई भी, कभी भी कर सकता है कि अपने सम्पर्क क्षेत्र की अच्छी लाइब्रेरियों का पर्यवेक्षण करें और देखें कि शोध संस्थान द्वारा हाथ में लिए गये विषयों में से किन पर कौन अच्छी पुस्तकें मौजूद हैं। उनके नाम तथा विषय सूची में जिन संदर्भों का ऐसा उल्लेख है जो निर्धारणों के साथ संगति खाता है, उसका विवरण शान्तिकुंज भेज दिया जाय। इन पुस्तकालयों का स्वयं सदस्य बन जायें या किसी स्थायी सदस्य की मारफत पुस्तकें प्राप्त करके जो हरिद्वार से निर्देश किया गया है उसकी ढूंढ़ खोज करके शान्तिकुंज भिजवाते रहा जाय। जहां आवश्यक हो वहां विशिष्ठ पृष्ठों की फोटो कापी भी उतरवाई जा सकती है इस प्रकार ब्रह्मवर्चस् की शोध सम्पदा में अभिवृद्धि करने का प्रयास तत्काल आरम्भ किया जा सकता है।
जिन विद्वानों की निर्धारित शोध विषयों अतिरिक्त जानकारी हो, उनसे यह पूछताछ जारी रखी जा सकती है कि उनकी जानकारी की ज्ञानधारा में क्या कोई आधार ऐसे हो सकते हैं जो प्रस्तुत शोध में सम्मिलित किए जा सकें या उसकी ज्ञान सम्पदा बढ़ा सकें। देश विदेश में ऐसे प्रकाशक अथवा संस्थान हो सकते हैं जिनने इसी प्रकार का प्रकाशन या प्रयास चलाया-बढ़ाया हो। उनके पते ज्ञात हों तो सम्पर्क बढ़ता चलेगा और जो कार्य हाथ में लिया है वह अधिक अच्छी तरह पूरा होता रहेगा। इतना तो कोई भी विज्ञजन सरलता पूर्वक करता रह सकता है। जब अवकाश हो तब हरिद्वार आकर अधिक विस्तृत विचार विनिमय प्रत्यक्ष रूप से भी किया जा सकता है। जो इस प्रकार हाथ बंटायेंगे शोध संस्थान के सदस्य माने जायेंगे।
विज्ञान और दर्शन दो विषय अधिक गम्भीर हैं। साहित्य वर्ग अपेक्षाकृत सरल है। इसलिए विज्ञान वर्ग में काम करने के लिए तो निश्चित रूप से हरिद्वार ठहरना ही अनिवार्य हो जाएगा। यह अवधि न्यूनतम एक महीने की होनी चाहिए। अधिक बन पड़े तो अधिक प्रयोजन सिद्ध होगा। सेवा निवृत्तों के लिए यह अधिक सुविधाजनक है। कार्यरत व्यक्ति भी लक्ष्य की गरिमा समझें तो इतना अवकाश निकाल सकते हैं। मात्र साहित्य वर्ग ही ऐसा है जिसमें पांच दिनों में एक सत्र में सम्मिलित रहने से भी काम चल सकता है। यों वास्तविक काम तो अधिक दिन स्थिर चित्त से ठहरने और इधर-उधर भटकते-भटकते सैर सपाटों पर घूमने फिरने से मन रोककर लक्ष्य में तन्मय होने से ही बन पड़ता है।
इसी शोध प्रक्रिया के अन्तर्गत युग साहित्य का अनुवाद हिन्दी से अन्य भाषाओं में करने का भी है। संस्थान में इन दिनों मूल पाण्डुलिपियों हिन्दी में ही तैयार होती हैं क्योंकि निज की प्रकाशन, मुद्रण सुविधा इन दिनों उतनी ही परिधि में सीमित है। किन्तु शीघ्र ही इस आलोक को देश की हर भाषा में व्यापक बनाया जाना है। प्रकाशन तन्त्र अपना न बन पड़ा तो दूसरों से खड़ा कराया जायेगा। जो इस क्षेत्र में हैं उन्हीं पर इस आलोक विस्तार का उत्तरदायित्व लादा जायेगा। जो हो, अनुवाद तो देश की हर भाषा में चाहिए ही इनमें संसार भर में अधिक प्रचलित अंग्रेजी ही मुख्य है। जिन्हें अन्य भाषाओं का अच्छा ज्ञान हो और अनुवाद में प्रवाह बन जाता हो वे भी शोध प्रक्रिया के भागीदारों में ही सम्मिलित गिने जायेंगे।
प्रस्तुत शोध प्रक्रिया में इन दिनों सहारा तो संसार की अन्य भाषाओं का भी लिया जा रहा है पर उनमें अंग्रेजी प्रमुख है। उसका साहित्य समृद्ध है और अपने काम के तथ्य उसके ज्ञान भंडार में से अपेक्षाकृत अधिक सुविधा पूर्वक अधिक मात्रा में मिल सकते हैं। इसीलिए अंग्रेजी से हिन्दी या हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद करने की जिनमें गति है वे भी शोध प्रयोजन की, अन्वेषकों की तरह ही महत्वपूर्ण सहायता कर सकते हैं। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के लिए मनीषा को सहयोग करने और हाथ बंटाने के लिए इन पंक्तियों में भावभरा आह्वान, आमन्त्रण भेजा जा रहा है।
ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया का प्रवाह तीन विषयों को मिलाकर बनता है। दर्शन, विज्ञान और साहित्य। शोध का मूल विषय दर्शन है। वैज्ञानिक हवाले दार्शनिक मान्यताओं के समर्थन में प्रस्तुत भर किये जाते हैं।
‘‘दर्शन’’ विषय के अन्तर्गत कुछ विषय आरम्भिक चरण में अपनाये गए हैं। आगे के विषय बहुत हैं पर उन्हें हाथ में तभी लिया जाएगा जब प्रथम चरण पर काबू पा लिया जाय। कदम-कदम बढ़ाते ही क्रमिक गति से मंजिल तक पहुंचने में सुविधा रहती है। आरम्भिक विषय इस प्रकार हैं—
(1) विचार विज्ञान:— चिन्तन और उसकी परिणति। विचारों का स्वास्थ्य पर प्रभाव। क्रियाशक्ति और विचार शक्ति का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध। इच्छा शक्ति, संकल्प शक्ति की सीमा, विशेषता और परिणति। साहस की प्रचण्डता और क्षमता। श्रद्धा और विश्वास का व्यक्तित्व के विकास में योगदान आदि।
(2) मनःशास्त्र (मस्तिष्क विधा):— सचेतन, अचेतन और सुपर चेतन के मानसिक त्रिविध स्तर और उनका प्रखरता संवर्धन में योगदान अन्तःकरण कर गहन अन्तराल और उसमें सन्निहित श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा का स्वरूप, प्रयोग एवं अभिवर्धन, अन्तराल में सन्निहित कुसंस्कारों का निराकरण एवं संस्कारों का अभिवर्धन, विश्व के विभिन्न अध्यात्म तत्वज्ञान की एकता तथा मित्रता का कारण और समाधान। आत्मा-परमात्मा और कर्मफल के साथ जुड़ी हुई संगतियां, विसंगतियां। मस्तिष्कीय संरचना और उसके प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों का उभार अनुसंधान आदि।
(3) अदृश्य जगत:— परा और अपरा प्रकृति का क्षेत्र एवं स्वरूप। प्रकृति के अविज्ञात रहस्यों का अनुमान और उन्हें जानने, हस्तगत करने का मार्ग। ब्रह्माण्डीय चेतना, परब्रह्म की माया तथा विधि-व्यवस्था। दृश्य लोक के अन्तराल में अनेकानेक अदृश्य लोकों का समावेश और कार्यक्षेत्र। अदृश्य अणु, परमाणुओं, तरंग प्रवाहों, सूक्ष्मजीवियों तथा देव-दानवों के अपने-अपने संचार। उनके साथ मानव, प्राणी के आदान-प्रदान। ब्रह्माण्ड के ग्रह गोलकों का धरती तथा उसकी सम्पदा के साथ सम्बन्ध सूत्र।
(4) साधना विज्ञान:— मानवी काया की अदृश्य संरचना और उसका अदृश्य प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले सुनिश्चित आधार, मनुष्य की चेतना और उसका ब्रह्मलोक के साथ सम्बन्ध जोड़ने तथा विभूतिवान बनने का देवयान मार्ग। ऋद्धि-सिद्धियों का विज्ञान, स्वरूप और उनको हस्तगत करने का उपाय उपचार। स्वर्ग और मुक्ति का स्वरूप और उन्हें जीवित स्थिति में ही प्राप्त कर सकने की प्रक्रिया। देव सत्ता और उन्हें अनुकूल बनाने के साधन। योगाभ्यासों और तप साधनों का आधार और मार्ग के अवरोधों का परिचय। संसार भर में प्रचलित अनेकानेक साधनाओं के मध्यवर्ती सुनिश्चित सूची एकात्मकता आदि-आदि।
(5) विश्व धर्म:— प्रचलित धर्म सम्प्रदायों की विभिन्नताओं का एक आधार सूत्र से बंधे होने का तत्वदर्शन। धर्म सम्प्रदायों का विरोध मिटाने और अधिकाधिक समीप लाने की प्रक्रिया। धर्मतन्त्र की क्षमता और उसे विग्रही भ्रम जंजालों से बचाकर समुचित व्यक्तित्व निर्माण के लिए नियोजन। धर्मक्षेत्र में टकराव एवं छद्म उत्पन्न करने वाली दुष्प्रवृत्तियों का आधारभूत कारण और उसका समय रहते सतर्कतापूर्वक निवारण।
भविष्य में विश्व एक कुटुम्ब बनकर रहेगा। उसमें, एकता और आत्मीयता के तत्व काम करेंगे। एक राष्ट्र, एक व्यवस्था और एक संस्कृति का ढांचा खड़ा किए बिना विग्रहों के अन्त और समग्र प्रगति का आधार बन नहीं पड़ेगा। इन चारों प्रसंगों पर अगले ही दिन शोध कार्य आरम्भ कर दिया जायेगा। अभी तो धर्म-सम्प्रदायों की एकता ही हाथ में ली गई है।
‘‘विज्ञान वर्ग’’ का दायित्व है कि उपरोक्त दार्शनिक चिन्तन एवं अन्यान्य आध्यात्मिक प्रतिपादनों के पक्ष-विपक्ष में समर्थन में अपने-अपने विषयों से सम्बन्धित उदाहरण तथ्यों व प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करें। विज्ञान की प्रमुख धाराओं का विवरण निम्नलिखित है—
(अ) जीवन विज्ञान।
(ब) चिकित्सा विज्ञान एवं उसकी शाखायें।
(स) पदार्थ विज्ञान एवं उसकी शाखायें।
विज्ञान विषयों में से कौन, किस पक्ष की, किस विषय की, किस धारा से, अभीष्ट प्रसंगों को, किस प्रकार ढूंढ़–खोज करें, किस लक्ष्य को रखें और किस निष्कर्ष पर पहुंचने का ताना-बाना बुने, इसका निर्णय अपनी रुचि, योग्यता और समीपवर्ती क्षेत्र में उपलब्ध हो सकने वाले विशेष साहित्य को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में आवश्यक निर्णय ब्रह्मवर्चस् में पहुंचकर ही करना होगा।
‘‘साहित्य वर्ग’’ अपेक्षाकृत सरल है। इसे लोकमानस में जड़ जमाये बैठी इस मान्यता का खण्डन करना है कि संकीर्ण स्वार्थपरता छद्म प्रवंचना, लिप्सा, तृष्णा, अहन्ता की पूर्ति, आक्रामक अपहरण नीति मनुष्य के लिए लाभदायक है। उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व अपनाने वाला घाटे में नहीं रहता है। इन दिनों अधिकांश जन समुदाय इसी व्यामोह से ग्रस्त और इसी कुचक्र में रुचिपूर्वक व्यस्त है।
इस आसुरी जीवन दर्शन को निरस्त करने के लिए आवश्यक है कि चिन्तन की उत्कृष्टता, स्वभावगत शालीनता और व्यवहार गत आदर्शवादिता के दूरगामी सत्परिणामों को तर्क, प्रमाण और उदाहरणों सहित समझाया जाय। आज आदर्शवादिता के आधार पर समुन्नत बनाने वालों के उदाहरण कम मिलते हैं। फिर भी खोजने पर हर क्षेत्र की ऐसी विभूतियों के जीवनक्रम में जुड़ी हुई विशिष्ट धाराओं को खोजा और जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जा सकता है जिसके आधार पर वे कठिन परिस्थितियों से भी ऊंचे उठे और इतने अधिक लाभान्वित हुए जितना किसी दुष्ट दुरात्मा का अपने छल-प्रपंचों के सहारे भी सफल हो सकना सम्भव नहीं हुआ। इसी सन्दर्भ में खल-नायक की वे सफलतायें भी आती हैं जो उन्होंने अनीतिपूर्वक कमाई और समुचित दण्ड देकर मूल ब्याज लेकर विदा हो गई। मनुष्य में देवत्व का उदय गुण, कर्म, स्वभाव में, चिन्तन और चरित्र की शालीनता अपनाने से ही सम्भव है।
दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति संवर्धन का पक्षधर लोकमानस बनाना पड़ेगा। इसके लिए ऐसे तर्क, प्रमाण, उदाहरण ढूंढ़ने पड़ेंगे जो दैवी सम्पदा के सत्परिणाम और कुकर्मों के लिये उकसाने वाली दुर्गति के रूप में अगणित साक्षियों सहित सिद्ध किया जा सके।
साहित्य वर्ग के शोधकर्त्ता प्रधानतया ऐसे पौराणिक कथानकों, उपाख्यानों, दृष्टान्तों, इतिहासों, घटनाओं, संस्मरणों को मानवी प्रगति के दीर्घकालीन इतिहास में से ढूंढ़ निकालेंगे जो आज की अवांछनीय दृष्टिकोण को, बहुमत के प्रचलन को अनुपयुक्त सिद्ध कर सकें। दूरवर्ती विवेकशीलता अपनाने की प्रेरणा दें सकें और नये सिरे से यथार्थवादी दिशाधारा अपनाने के लिये अभीष्ट उत्साह एवं साहस प्राप्त कर सकें।
इसके लिये महामानवों, खलनायकों एवं पिछड़ेपन के ग्रसित दीन-दयनीय स्तर के लोगों की जीवनचर्या का विश्लेषण, वर्गीकरण पर्यवेक्षण करना होगा और वस्तुस्थिति प्रकट करने वाले तथ्यों को जन साधारण के सामने प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विभिन्न सन्दर्भ में सामने आने वाले व्यक्तियों के स्तर, स्वभाव एवं व्यवहार का शवच्देद करते रहने से सम्भव हो सकता है और बूंद-बूंद से घड़ा सहज से भर सकता है। ऐसा चरित्र प्रधान साहित्य हर जगह समीपवर्ती क्षेत्र के पुस्तकालयों में मिल सकता है उसे शोध दृष्टि से पढ़ने वाले अपने पक्ष पुष्टि के उदाहरण संकलित करके ब्रह्मवर्चस् शान्तिकुंज हरिद्वार के पते पर भेजते रह सकते हैं। इसका उपयोग विभिन्न प्रतिपादनों में समावेश करते हुए आवश्यकतानुसार होता रहेगा।
उपरोक्त तीनों विषयों के विषय में विस्तृत मार्गदर्शन प्रत्यक्ष चर्चा से सम्भव है। इसके लिये पहले से समय निर्धारित कर चर्चा परामर्श हेतु आया एवं स्वयं को इस प्रक्रिया से सम्बद्ध किया जा सकता है।