
झोला पुस्तकालय चलायें—युग चेतना लायें
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ज्ञान रथ का ही स्वाध्याय परम्परा का दूसरा रूप झोला पुस्तकालय है। इसे भी एक प्रकार से ज्ञान रथ ही मानना चाहिये। ज्ञानरथ को प्राथमिकता इसलिये दी गई है कि उससे मिशन का विज्ञापन होता है। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों पांच सात कांग्रेस वालटियर ही तिरंगा झंडा लेकर गली-कूचां से निकल जाते थे तो तहलका मच जाता था। सर्वत्र जागृति आ जाती थी, ज्ञानरथ जिस क्षेत्र में भी निकलता है। वहां दर्शकों में उमंगें उमड़ने लगती हैं। सृजन शिल्पियों की यह निष्ठा लोक निष्ठा लोक प्रतिष्ठा के रूप में उन्हीं के पास लौट आती है। मिशन को प्रामाणिक होने का गौरव मिलता है।
बर्फ बेचने वलों को धकेल दूर से देखते ही बच्चे उछलकूद मचाते और अभिभावकों से पैसे की जिद करने लगते हैं ज्ञानरथ देखते ही आत्मा भी वैसे ही मचलने लगती है और अपनी क्षुधा की शान्ति के लिये युग साहित्य की मांग तीव्र कर देती है। इन सब कारणों से गांवों तक में ज्ञान रथ की ही परम्परा डालने को कहा गया है। पर जहां उस तरह का सुयोग न बन पड़े वहां स्वाध्याय परम्परा के निर्वाह के लिये झोला पुस्तकालय अभियान सर्वसुलभ है। उसमें अपेक्षाकृत कम पूंजी थोड़े श्रम से भी काम चल सकता है। केवल मात्र साहित्य खरीदने की इच्छा रखने वालों की पूर्ति नहीं हो पाती।
प्रज्ञा परिवार की सच्ची सदस्यता प्राप्त करने की एक अनिवार्य शर्त है—एक घंटा समय और दस पैसा नित्य-आलोक वितरण के लिए। निष्ठावानों और यथार्थवादियों के लिए यह शर्त तो स्वीकार करनी ही होती है—करनी ही चाहिये। जो इतना भी न कर सके समझना चाहिए कि मिशन के प्रति उनका समर्थन सद्भाव नितान्त उथला—खोखला है। आदर्शवादिता अपनाने के लिए आखिर कुछ प्रयत्न भी तो करना पड़ता है। कल्पना लोक में उड़ते रहने से तो काम नहीं चल जाता। प्रज्ञा परिजनों में से जो निष्ठावान हैं या होंगे उन्हें इस शर्त को स्वीकारना ही चाहिए। इसमें न व्यस्तता बाधक है न दरिद्रता। मात्र उपेक्षा, उदासीनता ही इतना न बन पड़ने का निमित्त कारण है। इस अवसाद को इस आपत्ति काल में भी न हटाया जा सका तो इसे दुर्भाग्य भरी दुर्बलता ही कहा जायेगा।
सभी प्रज्ञा-परिजन, घर में ज्ञान घट रखें। न्यूनतम दस पैसा प्रतिदिन उसमें जमा करें। इसका प्रज्ञा साहित्य खरीदें और उसे निजी परिवार के हर सदस्य को पढ़ाते, सुनाते रहने की नियमित निश्चित व्यवस्था बनायें। इसके अतिरिक्त घर-घर जाकर न सही दैनिक काम काज करते हुए जिनसे नियमित सम्पर्क बनता हो उन्हें प्राणवान साहित्य पढ़ने देने और वापिस लेने का सिलसिला चला दें। हर किसी के सम्पर्क में काम काज करते समय अनेकों से नियमित वास्ता पड़ता है न पड़ता हो तो थोड़े प्रयत्न से सम्पर्क बढ़ाया जा सकता है और उससे परिचय क्षेत्र में प्रज्ञा साहित्य देने वापस लेने का उपक्रम चलाया जा सकता है। सम्भव हो तो इस प्रयोजन के लिये रास्ते चलते घरों पर भी जाया जा सकता है।
कहीं मांगने जाने में संकोच करना उचित है किन्तु यदि किन्हीं को अमृतोपम अनुदान मुफ्त में देने के लिए जाना हो तो इसमें गर्व ही होना चाहिए और उत्साह—उल्लास भी। बादलों की तरह खेते-खेत पर बरसने के लिए दौड़ना, सूर्य चन्द्र की तरह आलोक बांटना, पवन की तरह प्राणवायु बांटने के लिए घर-घर पहुंचना, किसी के लिए भी संकोच का कारण नहीं होना चाहिए। इस बहाने मित्रता का क्षेत्र, सद्भाव सहयोग बढ़ता है जिसे छोटी उपलब्धि नहीं माना जाना चाहिए। परमार्थ करने वालों को जो आत्म-संतोष मिलता है वह इस छोटे प्रयत्न से भी उपलब्ध किया जा सकता है।
जो लोग इसे पढ़ेंगे, समझेंगे वे उस प्राण प्रेरणा से प्रभावित हुए बिना न रहेंगे। जो प्रभावित होंगे वे उस मार्ग पर चलेंगे भी, जो चलेंगे वे समस्याओं से उबरेंगे और प्रगति पथ पर अग्रसर होंगे। इस सद्भावना को काल्पनिक नहीं माना जाना चाहिए। जो प्रयोग करेंगे वे देखेंगे कि इस परमार्थ का प्रतिफल आदर्शवादी वातावरण के रूप में हाथों-हाथ प्रस्तुत होने लगा।
परमार्थ की गरिमा इस कसौटी पर नहीं कसी जानी चाहिए कि उसमें कितना श्रम लगा और कितना प्रदर्शन हुआ वरन्, मूल्यांकन इस आधार पर होना चाहिए कि उसमें किस स्तर का कितना दूरगामी परिणाम उत्पन्न हुआ। अन्न, वस्त्र, औषधि बांटने, मन्दिर, धर्मशाला बनाने का भी पुण्य है पर उसमें तात्कालिक शरीरगत आवश्यकता ही पूरी होती है। चिरस्थाई प्रभाव तो भावनात्मक परिष्कार का ही होता है। दिशा मिलने, दृष्टिकोण बदलने से तो जीवन की दिशाधारा की उलट सकती है। इस स्तर के परमार्थ ब्रह्मदान कहे जाते हैं और दान—पुण्यों की बिरादरी में माने जाते हैं। झोला पुस्तकालय योजना को इसी स्तर की—कल्पवृक्ष उद्यान लगाने जैसी योजना समझा जाना चाहिए जो उसे हाथ में लेंगे वे जितना दूसरों को भला करेंगे उससे अधिक अपना। मेंहदी पीसने वाले के हाथ अनायास ही रंग जाते हैं। तो कोई कारण नहीं की झोला पुस्तकालय की स्थापना एवं सेवा साधना का प्रभाव परिणाम उसके संचालक पर न पड़े। यह प्रभाव ऐसा है जिसे उज्ज्वल भविष्य की संरचना का बीजारोपण बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है।
सभी जानते हैं कि पच्चीस पैसा सीरीज वाला प्रज्ञा साहित्य कितनी उच्चस्तरीय प्राण प्रेरणाओं से भरा पूरा है। आकर्षक एवं सस्तेपन की दृष्टि से तो उसे अद्वितीय ही कहा जा सकता है। इसमें लोक जीवन के हर पक्ष पर इतने सशक्त प्रखर व्यवहार एवं उत्कृष्ट प्रतिपादन भरे पड़े हैं जिन्हें पकड़ने पढ़ाने से प्रज्ञापुत्र आलोक वितरण का कार्य भली प्रकार सम्भव हो सकता है। सम्पर्क क्षेत्र में भावनात्मक अनुदान प्रस्तुत करने के उत्तरदायित्व को जितनी अच्छी तरह झोला पुस्तकालय के माध्यम से निभाया जा सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं।
यह भली प्रकार समझा जाना चाहिए कि सर्वग्राही युग विभीषिका का निराकरण मात्र दूरदर्शी-विवेकशीलता-महाप्रज्ञा-को जन-जन के मन-मन में प्रतिष्ठापित करने से ही सम्भव हो सकता है। इस दिशा में छोटा किन्तु सार्थक प्रयास झोला पुस्तकालय के रूप में चलाया जा सकता है उसमें विश्व मानव की, देव संस्कृति की आधारभूत सेवा साधना के ऐसे बीजांकुर भरे हैं जो समयानुसार अक्ष्ज्ञयवट की तरह अभिवन्दनीय बन सकते हैं।
प्रज्ञा साहित्य की पच्चीस पैसे वाली पुस्तिकायें हर वर्ष 360 की संख्या में छपती हैं। युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि मथुरा में मिलती हैं। ज्ञान घटों का दस पैसे का अनुदान उन्हें खरीदने में लगाया जा सकता है जो इच्छुक हों, उन्हें बेची जा सके, ऐसी व्यवस्था भी रखी जा सकती है। गायत्री साहित्य, वैज्ञानिक अध्यात्म साहित्य जोड़कर कई परिजनों ने बिक्री के माध्यम से सहायक आजीविका के साधन भी जुटायें हैं। शहरों में वह और भी संभव है। बेचने की बात भी जोड़नी हो तो आदर्शवाक्यों को छोटे-बड़े चित्र, स्टीकर, पोस्टर भी रखना चाहिए। उनके माध्यम से हर दीवार के सामने या हाथ में रहने वाले उपकरण को बोलती पुस्तक का रूप दिया जा सकता है। प्रत्येक प्रज्ञा परिजन सदस्यता की शर्त निभायें—झोला पुस्तकालय चलायें यह युग चेतना का ऐसा अनुरोध है जिसकी अवज्ञा नहीं होनी चाहिए।