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Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम

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Language: HINDI
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छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन की व्यापक व्यवस्था चल पड़े

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सामान्य यज्ञों का उद्देश्य—सम्मिलित होने वालों को यज्ञीय जीवन जीने—यज्ञीय वातावरण बनाने—की भाव गरिमा को उभारता है। स्वार्थ के लिए प्रयुक्त हो सकने वाले समय एवं साधन को वातावरण को परिष्कृत करने के लिए नियोजित करना यज्ञ प्रक्रिया का मूलभूत उद्देश्य है। यज्ञ और परमार्थ एक ही तथ्य के दो नाम हैं। परमार्थ में रुझान और प्रयास की बढ़ोत्तरी ही यज्ञ प्रक्रिया की प्रेरणा है। अग्नि को पुरोहित माना गया है। वह निरन्तर परमार्थरत रहता और उस प्रयोजन के लिए अपनी सत्ता खपाता है। अग्नि का शिर सदा ऊंचा रहता है। समीप आने वाले को आत्मसात कर लेता है। जो भी मिले उसे वायुभूत बना कर व्यापक क्षेत्र में बखेर देता है। इन सत्प्रवृत्तियों की प्रतीक-प्रतिमा होने के कारण अग्नि की ऊर्जा तथा तेजस्विता का नमन-वन्दन और यजन किया जाता है। यज्ञ में रुचि रखने वाले इस तथ्य को भी आत्मसात करें।
पवित्रता और प्रखरता के प्रतीक अग्नि को देवता मानकर उसका यजन-अर्चन करने वाले चन्दन के निकट उगने वाले सामान्य पौधों की स्थिति में रहते हुए भी सान्निध्य का लाभ लें। यज्ञ भगवान की निकटता पाकर उससे दिव्य शक्ति की प्रेरणाएं ग्रहण करें। तदनुरूप उद्देश्यपूर्ण यज्ञीय जीवन जियें। सम्पर्क क्षेत्र की—समाज को—वातावरण को—यज्ञीय परम्पराओं से युक्त बनाने के लिए प्रयत्नरत रहें। अग्निहोत्र करने वाले उसकी प्राण, प्रेरणाओं को भी हृदयंगम करें और जीवन-व्यवहार में उसका अधिकाधिक समावेश करें।
पारिवारिक ज्ञान-गोष्ठियों के रूप में संस्कार आयोजन किये जाने चाहिए। पुंसवन संस्कार में गर्भिणी और गर्भस्थ बालक के प्रति समूचे परिवार का क्या खैया हो—यह समझाया जाता है। नामकरण में यह निर्धारण किया जाता है कि इस व्यक्तित्व को किन विशेषताओं से सम्पन्न—किस दिशा में अग्रसर किया जाता है। अन्नप्राशन में न केवल बालक के आधार में बरती जाने वाली सतर्कताओं का ज्ञान कराया जाता है, वरन् पूरे परिवार को यह सुलझा जाता है कि शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य को सुरक्षित-समुन्नत बनाने के लिए आहार का स्तर और उपयोग किस प्रकार होना चाहिए। मुण्डन में जन्म के साथ चले आ रहे संचित कुसंस्कारों के उन्मूलन और दूरदर्शी विवेकशीलता ऋतम्भरा की शिखा ध्वजा प्रतिष्ठापित करने का क्या महत्व और क्या उत्तरदायित्व है। विद्यारम्भ संस्कार में न केवल विद्या की उपयोगिता वरन् उसका स्वरूप और लक्ष्य भी उस परिवार को बताया जाता है ताकि बालक समेत समस्त परिवार को सद्ज्ञान संवर्धन में निरन्तर तत्परता बनी रहे। उपनयन द्विजत्व का दूसरे जन्म का—व्रतबन्ध—व्रतशील रहने का प्रतीक है। जन्म से सभी प्रकृति-प्रेरणाओं के वासना—तृष्णा—अहंता जैसी पशु-प्रवृत्तियों के अनुचर होते हैं। प्रयत्नपूर्वक मानवी गरिमा एवं सुसंस्कारिता का अभ्यास पुरुषार्थ करना पड़ता हे। विवाह में दो भिन्न प्रकृतियों का परस्पर सामंजस्य करने वाली सहिष्णुता अपनानी होती है। आत्मविस्तार की दिशा में एक कदम उठना पड़ता है। परिवार संस्था के सुसंचालन और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अभ्यास आरम्भ करना होता है। घर को तपोवन—एक समुन्नत परिवार के संरचना के लिए गाड़ी के दो पहियों की भूमिका निभानी होती है। जन्म से लेकर विवाह तक के समस्त संस्कारों में व्यक्ति और परिवार के समन्वित विकास से सम्बन्धित अनेकानेक प्रसंगों-प्रयोगों को समझने-समझाने से लेकर व्यवहार में उतारने तक की प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने तक के रहस्यों को स्मरण करना होता है।
विवाह के उपरान्त वानप्रस्थ-वानप्रस्थ अर्थात् गृहस्थ की जिम्मेदारियां हलकी करके समाज कल्याण के—सत्प्रवृत्ति संवर्धन के—प्रयत्नों में अपनी क्षमता का अधिकांश भाग नियोजित करना। इसी का परिव्राजक स्वरूप संन्यास है। अन्त्येष्टि का तात्पर्य है जीवन का अन्त यज्ञ-इष्टि के रूप में करना। परिवार को स्वावलम्बी बनाने के उपरान्त जो साधन बच रहे, उन्हें सत्प्रयोजनों के लिए विसर्जित कर देना। इसमें कुछ अधूरापन रह गया हो, तो उसे उत्तराधिकारियों द्वारा स्वर्गीय आत्मा के लिए उत्सर्जित करते हुए अपनी श्रद्धा का परिचय देना, श्राद्ध-तर्पण करना। यही है सोलह संस्कारों की परम्परा। इसमें व्यक्ति और परिवार के समग्र अभ्युदय के लिए आवश्यक समस्त तथ्यों का समावेश है। जो कर्मकाण्ड इनके निमित्त कराये जाते हैं उनके मंत्रों विधि-विधानों में इन्हीं उद्देश्यों को प्रकट करने वाले संकेतों का, समावेश है।
पर्व सामूहिक आयोजन है। यों आजकल वे घरों पर व्यक्तिगत रूप से मनाये जाते हैं। पर प्राचीन परम्परा उन्हें मिलजुल कर मनाने की है। जिन देवताओं, अवतारों, प्रवृत्तियों की उसमें पूजा-अर्चा की जाती है, वस्तुतः उन्हें समाज को समुन्नत बनाने की रीति-नीति एवं दिशाधारा ही समझी जा सकती है। दीवाली में अर्थ व्यवस्था, गोवर्धन में गोसम्पदा का अभिवर्धन। गीता जयन्ती में कर्मयोग। बसन्त पंचमी में शिक्षा-विस्तार। शिवरात्रि में श्रेय सम्पादन। होली में स्वच्छता श्रमदान, गंगादशहरा, गायत्री जयन्ती में पवित्रता प्रखरता की अधिष्ठात्री ज्ञानगंगा का अवगाहन। गुरुपूर्णिमा में शिष्टाचार, अनुशासन। श्रावणी पर वर्ष भर के दुष्कृत्यों का प्रायश्चित्य। विजयादशमी में पराक्रम। इन्हें सार्वजनिक जीवन में किस प्रकार बढ़ाया जाय इसका प्रशिक्षण है। दोनों नवरात्रियों में साधना पर्व है। राम, कष्ण, हनुमान, परशुराम आदि की जयन्तियों में उन हस्तियों की लीलाओं को स्मरण करते हुए बहुत कुछ सीखा और सिखाया जा सकता है। इसी प्रकार अन्यान्य पर्व-त्यौहार हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों में विशेष महत्व के माने और अधिक उत्साह से मनाये जाते हैं। मकर संक्रान्ति बैसाबी-संक्रान्ति, गणेश-चतुर्थी, दुर्गाष्टमी आदि के कितने ही पर्व प्रान्तों, जातियों, सम्प्रदायों के अनुसार मनाये जाते हैं। जहां जिनका प्रचलन हो, वहां उसे सामूहिक रूप से मनाया जाय। गायत्री यज्ञ के साथ पूर्व के प्रतिनिधि देवता का विशेष पूजन किया जाय, साथ ही उसी परम्परा के पीछे जिन शिक्षाओं प्रेरणाओं का समावेश है उन्हें उपस्थिति जन समुदाय के सम्मुख अपनाने की सामयिक प्रक्रिया का परिचय, विवरण, स्वरूप, कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाय। पर्व किस प्रकार मनाये जायें और उसके साथ जुड़े हुए उद्देश्यों के किन तथ्यों को उजागर करते हुए प्रस्तुत किया जाय, इसका विधि-विधान इस प्रयोजन के लिए छपी पुस्तकों में मौजूद है। समझने और अभ्यास करने से उसमें प्रवीणता प्राप्त की जा सकती है।
विशेष पर्वों में वाजपेय-राजसूय आते हैं। कुम्भ का मेला जिस प्रकार देश के चार स्थानों पर होते हैं, उसी प्रकार सोनपुर, वटेश्वर, गसमुक्तेश्वर, सारों आदि पर सोमवती अमावस्या एवं विशेष पर्वों पर विशेष धार्मिक मेले होते हैं। इन्हें क्षेत्रीय-प्रान्तीय या सार्वदेशिक-धर्म-सम्मेलन कहा जा सकता है। राजसूय पर्वों में कांग्रेस, जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी आदि के अधिवेशनों को माना जा सकता है। आज उनकी संस्कार पर्वों के नाम पर चल रही विडम्बना की भांति ही दुर्दशा हो रही है। हमें युगपरिवर्तन के सन्दर्भ में इन सभी छोटे-बड़े समारोह-प्रचलनों को नया रूप देना चाहिए और उनसे लोक-मानस के परिष्कार को, सत्प्रवृत्ति संवर्धन की प्रक्रिया को, नये सिरे से, नये रूप में अग्रगामी बनाना चाहिए। छोटे-बड़े मेलों को यदि प्रेरणाप्रद बनाया जा सके तो सम्मिलित होने वाले जन-समुदाय को युगांतरीय चेतना से अवगत एवं अनुप्राणित बनाने का काम बहुत सरल हो सकता है। इन दिनों किसी भी प्रयोजन के लिए जन-समुदाय को एकत्रित करना बहुत कठिन भी हो गया है और महंगा भी, किन्तु यदि छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन की पुरातन परम्परा को सामयिक मोड़ दिया जा सके, उनकी व्यवस्था का प्रगतिशील निर्धारण हो सके, तो विचारक्रान्ति अभियान को व्यापक उद्देश्य पूरा करने में भारी योगदान मिल सकता है।
इस सन्दर्भ में क्रिया-कृत्यों की पंडिताऊ विधि व्यवस्था सीख लेने मात्र से काम नहीं चलेगा। हमारी सामयिक सूझ-बूझ यह होनी चाहिए कि उन्हें आकर्षण कैसे बनाया जाय? अधिकाधिक लोगों की उपस्थिति के प्रचार, सम्पर्क, नियन्त्रण जैसे उपायों को उत्साहपूर्वक अपनाया जाय। साथ ही निर्धारित कर्मकाण्ड को छोटा किन्तु अधिक प्रेरणाप्रद बनाने के साथ-साथ संगीत-प्रवचन का भी ऐसा प्रबन्ध किया जाय, जिससे लोकरंजन और लोकमंगल के दोनों ही उद्देश्य सध सकें। प्रस्तुत लोक रुचि में उच्चस्तरीय उद्देश्यों के प्रति उतनी आस्था नहीं जितना कि दृश्य और श्रव्य उपचारों के सहारे मनोरंजन की। इसके बिना उपयोगी योजनाएं भी उपेक्षा की पात्र बनी रहती हैं और उपस्थिति के अभाव में किये गये प्रयास की अभीष्ट परिणति उपलब्ध नहीं होती। इस सामयिक कठिनाई को ध्यान में रखते हुए हमारी सूझ-बूझ, कला-कारिता एवं व्यवहार कुशलता का ऐसा समन्वय होना चाहिए कि अनेकों उत्साही साथी सहयोगी मिल सकें। साधन जुट सकें और लोक-शिक्षण का ऐसा सरंजाम जुट सके, जिसके लिए लोक रुचि की आदर्शवादिता की दिशा में मुड़ने के लिए बाध्य किया जा सके।
उपेक्षा, आलस्य, चिह्न-पूजा, बेकार भुगतने, लकीर पीटने की प्रवृत्ति जहां भी होगी वहां कुरूपता दृष्टिगोचर होगी, घटियापन छलकेगा और उस कुरुचिपूर्ण आमन्त्रण को कोई भला आदमी स्वीकार न करेगा। अस्तु, हमें छोटे-बड़े धार्मिक समारोहों की उपयोगिता समझने और उनके द्वारा नव-निर्माण का वातावरण बनाने की आवश्यकता अनुभव करने के साथ-साथ इस तथ्य को भी विस्मृत नहीं करना चाहिए—जो भी किया जाय, निर्जीव न हो, उसमें अनगढ़पन, अनुभवहीनता, उत्साह का अभाव परिलक्षित न हो। लगे कि आयोजन छोटा है या बड़ा, तत्परता, आस्था, लगन एवं सामर्थ्य भर कुशलता का भरपूर उपयोग करते हुए किया गया है। जन्मदिन, विवाह दिन, षोडश संस्कार, पर्व आयोजन यह सभी परम्परागत हैं। थोड़े प्रयत्न से नियत स्थान नियत समय पर सम्बन्धित लोगों की अच्छी उपस्थिति हो सकती है। परम्परा के निर्वाह और युगधर्म के निर्वाह का समन्वय इन आयोजनों द्वारा भली प्रकार हो सकता है। अपने 70 प्रतिशत अशिक्षा वाले देश में दूसरे शिक्षित देशों की तरह साहित्य उतना सफल नहीं हो सकता। जितना कि दृश्य और श्रव्य साधनों के आधार पर जन-समुदाय को एकत्रित करने और उन्हें युग धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करने वाला सिलसिला। आयोजन सम्मेलन इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। उन्हें नये सिरे से नियोजित करने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि प्रचलित परम्पराओं का आश्रय लेकर मार्ग को सरल बनाया जाय।
संस्कारों के माध्यम से परिवार गोष्ठियां और पर्वों के माध्यम से ग्राम गोष्ठियां किस प्रकार नियोजित और सफल बनाई जाय इसकी एक निर्धारित एवं विचारणीय प्रक्रिया है जिसे किसी युगशिल्पी सत्र में शान्तिकुंज आकर सीखा जा सकता है। इस निर्धारण में आधा भाग कर्मकाण्ड के विधि-विधान का है और उस व्यवहार कुशलता का, जिसमें आयोजन की साज-सज्जा, प्रचार-प्रक्रिया को अधिक आकर्षण बनाकर अधिक लोगों की उपस्थिति सम्भव बना दी जा सकती है। उपस्थिति के लिए दिये गये आमन्त्रण को तभी सफल माना जा सकता है। जब उन्हें कुछ उपयोगी जानकारी एवं प्रेरणा साथ लेकर वापस लौटाने का अवसर मिले।
पर्व आयोजनों का नया कदम क्षेत्रीय सम्मेलन समारोहों के रूप में होना चाहिए। उन्हें प्रचार सभा न रहने दिया जाय वरन् धार्मिक मेले का स्वरूप दिया जाय। प्रज्ञापीठ हजारों की संख्या में बन चुकीं। उसके वार्षिक अधिवेशन गायत्री यज्ञ युगनिर्माण सम्मेलन के प्रचलित स्वरूप तक ही सीमित न रहे, वरन् ‘मेले’ के रूप में विकसित हो और हर स्तर के नर-नारी, बाल वृद्ध को उपस्थित होने के लिए परोक्ष आमन्त्रण भेजें। थोड़े से प्रयत्न, प्रबन्ध एवं सम्पर्क में कितने ही छोटे-बड़े दुकानदार, तमाशे वाले आ सकते हैं। इसके साथ ही नाटक, अभिनय, संगीत सम्मेलन आयोजित करना अपना काम है। सरकारी, गैर सरकारी कितनी ही प्रदर्शनियां लग सकती हैं। सरकारी प्रचार गाड़ियां सिनेमा दिखाने आ सकती हैं। उद्देश्यपूर्ण कठपुतलियों के तमाशे, दंगल जैसे कुछ व्यवस्थाएं स्थानीय सुविधाओं को देखते हुए बनाई जा सकती हैं। यह आकर्षण और एक भी करण के उपाय-उपचार हैं। इनके पीछे मूल उद्देश्य एक ही रहना चाहिए कि धार्मिक मेलों की योजना के पीछे वे साधन पर्याप्त मात्रा में विद्यमान रहें, जो प्रस्तुत दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ने वाला आक्रोश उत्पन्न करने के साथ ऐसी उमंगे उभार सकें जो नव सृजन का वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान प्रस्तुत कर सकें बिना खर्च के आदर्श-विवाह आयोजन भी क्षेत्रीय आयोजनों में विशेष आकर्षण हो सकते हैं। इस दिशा में हमें बहुत कुछ सोचना चाहिए और अपने क्षेत्र में कुछ न कुछ ऐसा प्रयास करना चाहिए जिससे युग परिवर्तन की प्रक्रिया में कारगर सहयोग मिल सके।
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  • सम्पर्क संसद— जिन्हें जन सम्पर्क का सुयोग प्राप्त है वे उसमें कुछ और भी जोड़ें
  • भविष्य निर्माता संसद— युवा पराक्रम नव सृजन की दिशाधारा अपनाये
  • चतुर्थ अध्याय— युग शिल्पी प्रशिक्षण का संक्षिप्त पाठ्यक्रम
  • प्रज्ञा योग हृदयंगम करने योग्य तत्वदर्शन
  • प्रज्ञा योग की क्रिया परक साधना पद्धति
  • आसन प्राणायाम से आधि-व्याधि निवारण
  • जड़ी-बूटियों से स्वास्थ्य संरक्षण एकौषधि उपचार पद्धति
  • दिव्य औषधियों द्वारा आध्यात्मिक कायाकल्प
  • देव संस्कृति का पुनरुत्थान और तुलसी अभियान
  • आन्तरिक कायाकल्प हेतु आहार साधना
  • धर्मानुष्ठानों के क्रियाकृत्य उद्देश्यपूर्ण रहें
  • छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन की व्यापक व्यवस्था चल पड़े
  • देव दक्षिणा प्रत्येक धर्मानुष्ठान का अविच्छिन्न अंग
  • युग-संगीत उभरे और व्यापक बने
  • प्रज्ञा पुराण कथा—उद्देश्य और स्वरूप
  • प्रज्ञा आयोजनों की तैयारी इस प्रकार करें
  • प्राणवान कार्यकर्ता अपने क्षेत्रों का उत्तरदायित्व संभालें
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