
सम्पर्क संसद— जिन्हें जन सम्पर्क का सुयोग प्राप्त है वे उसमें कुछ और भी जोड़ें
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प्रज्ञा परिवार की सभी शिक्षित महिलाओं को अपनी निजी तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करने के अतिरिक्त नव सृजन अभियान में सहयोगी बनने का एक नया उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लेना चाहिए। वह है—परिवार निर्माण। मिशन की तीन गतिविधियां हैं।
(1) आत्म निर्माण
(2) परिवार निर्माण
(3) समाज निर्माण ।
इनमें से आत्म निर्माण और समाज निर्माण की गाड़ी के दो पहियों की उपमा दी जाय तो परिवार निर्माण को धुरी मानना पड़ेगा। इन दो को हाथ कहा जाय तो परिवार निर्माण को धड़ की संज्ञा दी जायेगी।
परिवार निर्माण का महत्व आज अपेक्षा के गर्त में धकेल दिया गया है। फलतः उस पाठशाला में पढ़कर, प्रयोगशाला में ढालकर जैसी प्रतिभाएं उभरनी चाहिए थीं, जैसे समर्थ व्यक्तित्व बढ़ने चाहिए थे उसमें उल्टे कमी होते जा रही है। समाज का स्वतन्त्र कोई अस्तित्व नहीं वह परिवारों का ही एक समुच्चय है। परिवारों में कुसंस्कारिता, प्रतिगामिता छाई रहे तो फिर समाज कल्याण की, उत्थान की बात सोचना व्यर्थ है। परिवार प्रमुख है। विश्व का अभिनव निर्माण वसुधैव कुटुम्बकम् के आधार पर होने जा रहा है। जन समुदाय को मानव परिवार का सदस्य बनकर रहना होगा। भावी दृष्टिकोण और प्रचलन निर्धारण में पारिवारिकता के सिद्धान्तों का ही समावेश होगा। इसलिए इस तथ्य को महत्व मिलना चाहिए। हम सब की दृष्टि परिवार निर्माण की ओर मुड़नी और केन्द्रीभूत होनी चाहिए।
इस महान प्रयोजन की स्थिति में शुभारम्भ मार्गदर्शन क्रियान्वयन, प्रोत्साहन, सहयोग में अग्रगामी तो पुरुषों को ही रहना होगा। अन्यथा दबाव के बिना ढर्रे के प्रचलन में सुधार, परिवर्तन होने की बात बनेगी ही नहीं। उपेक्षा बरती गयी और कुछ सोचने करने वालों को झिड़का गया तो समझना चाहिए कि बीज को ही चिड़िया खा गई। अंकुर उगते ही तेज धूप से जल गया। घर के प्रमुख व्यक्ति इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर परिवार में सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों को बनायें, बढ़ायें। पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि स्थायी और सुचारु रूप से इस पुण्य प्रक्रिया को निरन्तर गतिशील रखना, मात्र नारी का ही काम है। वही तो चौबीस घंटे घर में रहती है। पारिवारिकता घर के दायरे से ही पलती है। उस घोंसले से निकलने पर तो स्थिति कुछ और से और ही हो जाती है। घर में गृह लक्ष्मियों ही रहती हैं। उनका उत्साह सहयोग न हो तो पुरुष के प्रयास जड़ नहीं पकड़ सकेंगे।
परिवार निर्माण का परोक्ष अर्थ है—नारी जागरण। अर्ध मूर्छित, पद दलित, आलस्य, प्रमाद और पिछड़ेपन से ग्रस्त नारी अपने लिए और परिवार के लिए भार ही रहती है। रोटी, कपड़ा पाती और बदले में रसोईदारिन, चौकीदारिन, जननी, धात्री और चलती फिरती गुड़िया की हल्की भारी भूमिका निभाती है। इस पिछड़ेपन के रहते वह परिवार निर्माण जैसे असाधारण कार्य को सम्पन्न कैसे कर सकेगी। इसके लिए सूझ-बूझ, संतुलन अनवरत प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। योजना का स्वरूप, परिणाम एवं अवरोधों का समाधान भी उसके सामने आना चाहिए।
इसी से शिक्षित नारी को आगे आने और साथ में घर की अन्य महिलाओं को साथ लेकर चलना चाहिए। इतना ही नहीं इस युग चेतना को पड़ोस, परिचय एवं सम्बन्धियों तक पहुंचाने का भी प्रयत्न करना चाहिए हर्ष, शोक में जो सम्मिलित रहते हैं वे सभी स्वजन हैं। अपने साथ-साथ ही उन सभी को समेट बटोरकर चलना चाहिए। कार्य क्षेत्र को व्यापक बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि जहां भी उर्वरता हो वहां हरियाली उग सके। अपना निजी परिवार कन्ट्रोल में नहीं आता, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रगति की गुंजाइश जहां है वहां भी कुछ न किया जाय। यह आग्रह मिथ्या है कि पहले अपना घर बना लें तब दूसरों तक पहुंचने की बात सोचेंगे विभीषण लंका के कुटुम्बियों में से एक को भी सुधारने, समझाने में सफल नहीं हुआ पर राम दल के सुसंस्कारियों में पहुंचते ही प्रधान सेनापति बन गया। अपना घर परिवार व्यापक है। उसे चहार दीवारियों में कैद नहीं किया जाना चाहिए। जो सुसंस्कारी सो हमारे। यही नीति-विवेक संगत हैं। घर को प्रमुखता तो दी जाय पर उसी तक कूप मंडूक की तरह सीमाबद्ध न रहा जाय। पक्षियों का आश्रय स्थल तो घोंसला ही होता है पर जीवनचर्या उतने ही छोटे क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती। वे उन्मुक्त आकाश में उड़ते भी हैं और निर्वाह, अनुभव, विनोद, सहयोग की आवश्यकता पूरी करने के लिए दूर-दूर तक परिभ्रमण भी तो करते हैं। सेवाव्रती को जन सम्पर्क से इन्कार करने की बात बनती ही नहीं। वह परिवार के प्रति कर्तव्य पालन तो करता है, पर साथ ही विश्व परिवार की उपेक्षा भी नहीं कर सकता। गूलर के भीतर कैद रहने वाले भुनगे का उदाहरण बन कर रहना, बाहरी क्षेत्र से आंखें बंद किए रहना, किसी भावनाशील के लिए संभव नहीं। समाधिस्थ योगियों और कारागार के बन्दियों की बात दूसरी है।
शिक्षित महिलाओं को अपने घरों के वातावरण में धार्मिकता का समावेश करना चाहिए। विलास, सज्जा, आपाधापी, आलस्य, अपव्यय, असहयोग, अहंकारिता का स्वेच्छाचार दुष्प्रवृत्तियां पनपती रहें तो समझना चाहिए सुख सुविधाओं के भरे-पूरे रहने पर भी उसमें पलने वालों का भविष्य अंधकारमय बनने जा रहा है। व्यक्तित्व घटिया रहा तो फिर मनःस्थिति और परिस्थिति सर्वथा असंतोषजनक ही रहेगी और विग्रहों का, संकटों का, समस्याओं का घटाटोप खड़ा ही रहेगा। इसलिए जहां आजीविका, एवं सुविधा जुटाई जाय वहां यह भी देखा जाय कि परिजनों में सुसंस्कारिता उभारने वाला प्रयास चल रहा है या नहीं, वातावरण बन रहा है या नहीं। धार्मिकता का प्रचलन हर प्रगतिशील घर में होना चाहिए। इस सन्दर्भ में परिवार निर्माण योजना के निमित्त छपे सस्ते साहित्य में विस्तार पूर्वक बहुत कुछ बताया गया है। इन पंक्तियों से नहीं उन प्रतिपादनों को पढ़ने, समझने, अपनाने और कार्यान्वित करने से काम चलेगा।
पारिवारिक पंचशीलों की आवश्यकता उपयोगिता समय-समय पर विस्तारपूर्वक बताई जाती रही है।
(1) श्रमशीलता
(2) मितव्ययिता
(3) सुव्यवस्था
(4) शालीनता और
(5) उदार सहकारिता
की सत्प्रवृत्तियों को पारिवारिक पंचशील कहा गया है और उन्हें घर में हर सदस्य के स्वभाव का अंग बनाने के लिए अथक परिश्रम और हर परिवार संस्था की महत्ता समझने वाले को अथक प्रयास करते रहने के लिए आग्रह किया जाता रहा है। सुशिक्षित नारी का कर्तव्य है कि वह घर के काम धन्धों में दिनभर व्यस्त रहती है—वहां एक नया अतिरिक्त किन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य अपने कंधों पर और भी वहन करे कि परिवार में सुसंस्कारिता की मनःस्थिति और सुव्यवस्था की परिस्थिति भी उत्पन्न करनी एवं क्रमशः बढ़ाते-बढ़ाते पूर्णता तक पहुंचानी है।
पंचशीलों के क्रियान्वयन का सुविस्तृत मार्ग दर्शन परिवार साहित्य के माध्यम से ही समझा जा सकेगा। यहां तो उसका संकेत ही किया जा रहा है और जोर इस बात पर दिया जा रहा है कि परिवार निर्माण को उच्चस्तरीय आवश्यकता माना जाय और उस कार्य को प्रधानतया शिक्षित नारी के सुपुर्द किया जाय। सहयोग, प्रोत्साहन मिलता रहे तो वह उस महान उत्तरदायित्व को भली प्रकार निभा भी सकती है। ईश्वर ने उसकी संरचना जिन तत्वों से की है उसमें इस क्षेत्र की सफलता के निमित्त पूरी-पूरी सुव्यवस्था विद्यमान है।
शिक्षित प्रगतिशील विचार धारा की हर महिला को अपने निजी घर परिवार में उपरोक्त सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण करने के साथ-साथ ही उस सृजन प्रक्रिया का कार्यक्षेत्र पास पड़ोस और सम्बन्धी परिचितों तक बढ़ा देना चाहिए। साथ ही उस सृजन क्षेत्र को क्रमशः अधिकाधिक विस्तृत करते रहना चाहिए। जगी नारियां दूसरों को जगायें। आरती के समय शंख, घड़ियाल इसी निमित्त तो बजते हैं। जले दीपक सम्पर्क में आने वाले बुझे दीपक को भी जलाते हैं। यही प्रयास चन्दन वृक्ष की तरह समीपवर्ती झाड़ियों को भी सुगंधित बनाने की तरह अनायास ही चलना चाहिए।
तीसरे प्रहर आमतौर से महिलाओं को थोड़ा अवकाश मिलता है। इस समय को समीपवर्ती सम्पर्क क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का सेवा कार्य करने के लिए सुरक्षित रखना चाहिए। जागरण की तीन भूमिकाएं हैं—
(1) स्वाध्याय (2) सत्संग
(3) शिक्षण ।
यह तीनों ही कार्य तीसरे प्रहर ज्ञान गोष्ठी चलाकर ही की जा सकती है। इसका नाम महिला सत्संग भी हो सकता है। इसमें घर की तरह पड़ोस की महिलाओं को सम्मिलित रहने के लिए उनसे अनुरोध आग्रह किया जाता रहे तो वे आने लगेंगी। उपयोगिता जब प्रकट होने लगेगी तो वे न तो रुकेंगी न कोई रोकेगा। इस ज्ञान गोष्ठी में कथा कीर्तन को प्रधानता दी जाय। युग संगीत की सामान्य जानकारी प्राप्त कर लेना अथवा उस स्तर का साधन जुटा लेना कठिन नहीं प्रवचन के लिए प्रज्ञा पुराण से बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता। रामायण कथा भी एक सीमा तक काम दे सकती है। संस्कृत का ज्ञान न हो तो भी प्रज्ञा पुराण आराम से कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और भी कई कथा पुस्तकें प्रज्ञा साहित्य के अन्तर्गत छपी हैं। इन उपाख्यानों के साथ-साथ सामयिक आवश्यकताओं को समझने और उन्हें पूरा करने की बात टिप्पणियों के रूप में कहते रहा जाय तो बड़ा प्रभावशाली परिवार शिक्षण सहज ही बन पड़ता है।
इसी अवसर पर जो शिक्षित हो उन्हें स्वयं पढ़ने तथा घर के अन्य लोगों को सुनाने के लिए प्रज्ञा साहित्य के परिवार निर्माण प्रसंग की पुस्तकें देनी चाहिए। साथ ही जल्दी ही उन्हें खाली करके नई लेने की बात भी भली प्रकार समझा देनी चाहिए ताकि वे उसे ले जाकर आलमारी में बन्द न कर दें।
साप्ताहिक महिला सत्संग का आयोजन नितान्त आवश्यक है, भले ही वह अपने घर में हो—सुविधा के सार्वजनिक स्थान में हो अथवा बारी-बारी घरों में चलता रहे। यह निर्धारण सुविधा के ऊपर निर्भर है। छै दिन सामान्य कथा क्रम रहे और सातवें दिन बड़ा समारोह रहे। उसके लिए घरों में जाकर निमन्त्रण देना और आग्रह करना चाहिए। समय तीसरे प्रहर का हो। सामूहिक गायत्री जप, संक्षिप्त अग्नि होत्र, युग संगीत तथा ऐसे प्रवचन हों जिनमें यह बताया जाय कि परिवार निर्माण को प्रमुखता कैसे मिले और वह उपक्रम विधिवत कैसे चले। जो उत्साह दिखाये उन्हें काम सौंपना चाहिए और महिला संगठन के लिए समय देने का आग्रह करना चाहिए।
सामूहिकता का वातावरण बनते ही तीसरे प्रहर की एक महिला पाठशाला आरम्भ कर देनी चाहिए जिसमें साक्षरता, अभिवृद्धि शिक्षितों को आगे की शिक्षा, गृह उद्योग, संगीत, कला कौशल आदि की विशिष्टताएं सम्मिलित करने का प्रयास चलना चाहिए।
प्रज्ञा पुराण या रामायण कथा दैनिक जप, हवन, कीर्तन, प्रवचन, साप्ताहिक सत्संग के रूप में महिला चल पुस्तकालय, तीसरे प्रहर की प्रौढ़ पाठशाला, प्रयत्न पूर्वक सामूहिक, व्यक्तित्व रूप से घरों में धार्मिक वातावरण तथा पारिवारिक पंचशीलों का प्रयत्नपूर्वक प्रचलन, साथ ही आंगन में तुलसी का पौधा लगाना शाक वाटिका, पुष्प वाटिका की घरों में शोभा सज्जा। इतना छोटा कार्यक्रम महिला संसद की शिक्षित समस्यायें अपने सम्पर्क क्षेत्र में आसानी से बढ़ा सकती हैं। ज्ञानघट, अन्न घट स्थापित करके आर्थिक आवश्यकताएं पूरी कर ली जा सकती हैं। यह प्रक्रिया शिक्षित महिलायें बिना एक दिन की देरी लगाये तत्काल आरम्भ कर दें यही श्रेयस्कर है।