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Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम

Media: TEXT
Language: HINDI
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इस सुयोग-सौभाग्य को खोयें नहीं

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प्रज्ञावतरण की इस पुण्य वेला में उन सभी का विशेष उत्तरदायित्व है जो आद्यशक्ति की गरिमा अनुकम्पा का स्वरूप समझने में समर्थ हैं। दूल्हा अकेला नहीं जाता बरात भी साथ चलती है। सेनापति अकेला नहीं लड़ता, सैनिक भी साथ रहते हैं। मिल मालिक अकेला ही उत्पादन नहीं करता सुयोग्य श्रमिकों की मंडली भी कार्यरत रहती है। राष्ट्रपति अकेला ही शासन नहीं चलाता, अफसरों का समुदाय उस व्यवस्था में हाथ बंटाता है। प्रज्ञावतार की दिव्य सत्ता की प्रमुख है और वही युग परिवर्तन के सरंजाम जुटा रही है। तो भी समग्र कर्तृत्व का वहन उसे अकेले की नहीं करना है। हाथों के पुरुषार्थ में दस उंगलियां और उनके चौबीस पोर भी अपनी क्षमता के अनुरूप, अपने ढंग से उस कर्म कौशल में सम्मिलित रहते हैं।
विगत अवतारों में उनके सामयिक सहयोगियों का अविस्मरणीय अनुदान रहा है। राम अवतरण में लक्ष्मण, हनुमान, अंगद, विभीषण, सुग्रीव, नल-नील जैसे बलिष्ठ और सामान्य रीछ वानरों जैसे कनिष्ठ समान रूप से सहगामी रहे हैं। गिद्ध-गिलहरी जैसे अकिंचनों ने भी सामर्थ्यानुसार भूमिकाएं निभाई हैं। कृष्ण काल में पांडवों से लेकर ग्वालबालों तक का सहयोग साथ रहा है। बुद्ध के भिक्षु और गांधी के सत्याग्रही कंधे से कंधा मिलाकर जुटे और कदम से कदम मिलाकर चले हैं। भगवान सर्व समर्थ हैं वे चाहें तो उंगली की नोंक पर पर्वत उठा सकते हैं और वाराह, नृसिंह की तरह अकेले ही अभीष्ट प्रयोजन पूरे कर सकते हैं, किन्तु प्रियजनों को श्रेय देना भी अवतार का एक बड़ा काम है। शबरी और कुब्जा जैसी महिलाओं और केवट और सुदामा जैसे महापुरुषों को भी अवतार के सखा सहचर होने का लाभ मिला था। गांधी के सान्निध्य में विनोबा और बुद्ध के सहचर आनन्द जैसे असंख्यों को श्रेय मिला था। भगवान के अनन्य भक्तों में से नारद जैसे देवर्षि वशिष्ठ जैसे महर्षि और विभीषण जैसे अगणितों को अविच्छिन्न यश पाने का अवसर मिला है। सहकारिता को, संगठन को सर्वोपरि शक्ति के रूप में प्रतिपादित करने के लिए महान शक्तियां सदा ही यह प्रयत्न करती रही हैं कि जागृतों को महत्वपूर्ण अवसरों पर अग्रिम पंक्ति में खड़े होने के लिए उभारा जाय। अर्जुन के साथ तो इसके लिए भर्त्सना जैसे उपाय बरते गये थे। सुग्रीव को धमकाने लक्ष्मण पहुंचे थे। परमहंस विवेकानन्द को घसीट कर आगे लाये थे। अम्बपाली, अंगुलिमाल, हर्षवर्धन और अशोक से जो लिया गया था उससे असंख्य गुना उन्हें लौटाया गया था। भामाशाह के सौभाग्य पर कितने ही धनाध्यक्ष ईर्ष्या करते रहते हैं।
भगतसिंह और सुभाष जैसा यश मिलने की संभावना हो तो उस मार्ग पर चलने के लिए हजारों आतुर देखे जाते हैं। समझाया जाए तो कितने ही केवल बिना उतराई लिये पार उतारने की प्रक्रिया पूरी कर सकते हैं। पटेल और नेहरू बनने के लिए कोई भी अपनी वकालत छोड़ सकता है पर दुर्भाग्य इतना ही रहता है कि समय को पहचानना और उपयुक्त अवसर पर साहस जुटाना उनींदे लोगों से बन ही नहीं पड़ता। ‘‘जागरूक ही हैं जो महत्वपूर्ण निर्णय करते, साहसिकता अपनाते और अविस्मरणीय महामानवों की पदवी प्राप्त करते हैं। ऐसे सौभाग्यों में श्रेयार्थी का विवेक प्रमुख होता है अथवा उपनिषद्कार के अनुसार महानता जिसे चाहती है उसे वरण कर लेती है’’ की उक्ति में सन्निहित दैवी अनुकम्पा के प्रतिपादनों में से कौन सा सही है।
महानता की अपनी निजी सामर्थ्य है। उसके आधार पर वह स्वयं तो अपनी प्रखरता एवं गरिमा प्रकट करती ही है, साथ ही अपने सम्पर्क परिकर को भी उन विशेषताओं से भरती और कृतकृत्य बनाती देखी गई है। अतएव महान् बनने के लिए जहां आत्म-साधना और आत्म विकास की तपश्चर्या को आवश्यक बताया गया है वहां इस ओर भी संकेत किया गया है कि उसकी प्रखरता से सम्पर्क साधने और लाभान्वित होने का अवसर भी चूका जाय। यों ऐसे अवसर कभी कभी ही आते और किसी भाग्यशाली को ही मिलते हैं। किन्तु कदाचित वैसा सुयोग बैठ जाय तो ऐसा अप्रत्याशित लाभ मिलता है जिसे लाटरी खुलने और देखते-देखते मालदार बन जाने के समतुल्य कहा जा सके।
छोटे कृमि कीटकों के लिए समुद्रपार की यात्रा एकाध दिन में ही पूरी कर लेना असंभव जितना कठिन है। फिर भी यदि वे किसी प्रकार किसी जलयान या वायुयान में जा घुसे तो देखते देखते इतनी लम्बी यात्रा कर सकते हैं जिसकी सामान्य स्थिति में उन निजी पुरुषार्थ को देखते हुए कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था। आये दिन देखा जाता है कि नाव में बैठ कर अनेकों यात्री भयावह प्रवाह वाली गरजती उफनती नदी को सरलता पूर्वक पार कर लेते हैं जब कि निजी बाहुबल से तैर कर उस पार जाने का दुस्साहस कर बैठने पर जल समाधि में भागीदार ही बन सकते हैं। इसे सुयोग का अवलम्बन ही कह सकते हैं, जिसके आधार पर यात्री नदी पर करते और नगण्य से प्राणी हजारों मील की यात्रा एक दिन में पूरी करते देखे जाते हैं।
चन्दन के समीप उगे झाड़-झंखाड़ों के सुगन्धित बन जाने और उसी मूल्य में बिकने की किम्वदन्ती प्रख्यात है। पानी के दूध में मिलकर उसी भाव बिकने की उक्ति आये दिन दुहराई जाती रहती है। पारस को छूकर कलि, कुरूप, और सस्ते मोल वाले लोहे का सोने जैसे गौरवास्पद बहुमूल्य धातु में बदल जाना प्रख्यात है। स्वाति की बूंदों से लाभान्वित होने पर सीप जैसी उपेक्षित इकाई को मूल्यवान् मोती प्रसव करने का श्रेय मिलता है। पेड़ से लिपटकर चलने वाली बेल उसी के बराबर ऊंचे जा पहुंचती और अपनी प्रगति पर गर्व करती है। जबकि वह अपने बलबूते मात्र जमीन पर ही थोड़ी दूर रेंग सकती है, उसकी दुर्बल काया को देखते हुए इतने ऊंचे चढ़ जाने की बात किसी प्रकार समझ में नहीं आती किन्तु पेड़ का सान्निध्य और लिपट पड़ने का पुरुषार्थ जब सोना सुहागा बन कर समन्वय बनाते हैं तो उससे महान पक्ष की तो कुछ हानि नहीं होती पर दुर्बल पक्ष को अनायास ही दैवी-वरदान जैसा लाभ मिल जाता है।
यह उदाहरण उस सुयोग का महत्व समझाने के लिए दिये जा रहे हैं। जिसमें महानता के साथ सम्पर्क साधना, उसके सहयोग का सुयोग पा लेना भी कई बार अप्रत्याशित सौभाग्य बनकर सामने आता है। यों वैसे अवसर सदा−सर्वदा हर किसी के लिए उपलब्ध नहीं रहते।
रामचरित्र के साथ जुड़ जाने पर कितने ही सामान्य स्तर के प्राणियों ने सामान्य क्रिया-कलापों के सहारे असामान्य श्रेय पाया। इस तथ्य को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। बन्दर स्वभावतः इधर-उधर लकड़ी-पत्थर फेंकते रहते हैं, समुद्र पर पुल बनाने में प्रायः इतनी ही कूद-फांद उन्हें करनी पड़ी होगी, पर उसे सुयोग ही कहना चाहिए कि उतनी छोटी-सी उदार श्रमशीलता को ऐतिहासिक बना दिया और कथा-वाचक उनकी भावभरी चर्चा करते-करते अघाते नहीं, ऐसे आदर्शवादी सहयोगों की सफलता में कर्त्ताओं का पुरुषार्थ ही नहीं—दैवी सहायता भी काम करती है और श्रेय उन अग्रगामी साहसियों के पल्ले बंध जाता है। नल-नील ने समुद्र पर पुल बनाया और पत्थर पानी पर तैरने लगे। इस प्रकार के घटनाक्रम सामान्य स्थिति में देखे नहीं जाते। दैवी प्रयोजनों में दैवी सहायता की असाधारण मात्रा उपलब्ध होती है।
हनुमान का उदाहरण इसी प्रकार का है। वे सदा से सुग्रीव के सहयोगी थे पर जब बालि ने उसकी सम्पदा एवं गृहिणी का अपहरण किया तो वे प्रतिरोध में कोई पुरुषार्थ न दिखा सके। इससे प्रतीत होता है कि उस अवसर पर सुग्रीव की तरह हनुमान ने भी अपने को असमर्थ पाया होगा और जान बचाकर कहीं खोह-कन्दरा का आश्रय लेने में ही भला देखा होगा। इससे स्पष्ट है कि उनकी जन्मजात क्षमता सामान्यों से अधिक नहीं रही होगी पर वे जब प्राण हथेली पर रखकर रामकाज के परमार्थ प्रयोजन में संलग्न हुए तो पर्वत उठाने, समुद्र लांघने, अशोक उद्यान उजाड़ने, लंका जलाने जैसे असम्भव पराक्रम दिखाने लगे। सुग्रीव पत्नी को रोकने में सदा असमर्थ रहने पर भी अन्य देश में—समुद्र पर बसे अभेद दुर्ग को बेधकर वे सीता को मुक्त कराने में सफल हो गये। इसमें दैवी सहायता की बात प्रत्यक्ष है—ऐसा अनुग्रह उन सभी को मिल सका जिन्होंने राम की गरिमा की, उनके लीला क्रम में सहयोग देने की परिणति की पूर्व कल्पना कर ली। वयोवृद्ध जामवन्त और जटायु, अकिंचन गिलहरी, दरिद्र केवट और शबरी की सामर्थ्य और भूमिकाओं को देखा जाय तो उनके द्वारा प्रस्तुत किए गये अनुदान अकिंचन जितने ही कहे जा सकते हैं। इतने पर उनकी गाथाएं अजर अमर बन गईं। वे श्रेयाधिकारी बने और अपने उदाहरणों से असंख्यों को भावभरी प्रेरणायें दें सकने में समर्थ हुए। इस सौभाग्य भरी उपलब्धि में प्रमुख श्रेय उस सूझ-बूझ को है जिसने अपनी श्रद्धा-सहायता को महान् व्यक्तित्व और महान अवसर के साथ जोड़कर लाखों गुना अधिक श्रेय कमाया।
कृष्ण चरित्र पर दृष्टिपात करने से भी यह तथ्य असाधारण रूप से उभरकर आगे आता है। गोपियों का छाछ पिलाना, थोड़ी सी हंसी ठिठोली कर देना, ग्वाल-बालों का लाठी सहारा जैसे कृत्य ऐसे नहीं हैं जिन्हें दैनिक जीवन में सर्वत्र घटित होते रहने वाले सामान्य उपक्रमों से भिन्न समझा जा सके। इतने पर भी वे सहयोग पुराण-उपाख्यानों से बहुत बार दुहराये-सराहे जाते रहते हैं, उनमें अनेकों योद्धा लड़ते और हारते-जीतते रहते हैं, पर अर्जुन भीम जैसों को श्रेय मिला उसकी गरिमा असामान्य हो गई है। अर्जुन-भीम वे ही थे, जिन्हें वनवास के समय पेट भरने के लिए और जान बचाने के लिए बहरूपिए बनकर दिन गुजारने पड़े थे। द्रोपदी को निर्वासन होते आंखों से देखने वाले पांडव यदि वस्तुतः महाभारत जीत सकने जैसी समर्थता के धनी रहे होते तो न तो दुर्योधन, दुशासन वैसी धृष्टता करते और न पांडव ही उसे सहन कर पाते। कहना न होगा कि पांडवों की विजयश्री में उनकी वह बुद्धिमत्ता ही मूर्धन्य मानी जायेगी जिसमें उनने कृष्ण को अपना और अपने को कृष्ण का बनाकर भगवान से घोड़े हंकवाने जैसे छोटे काम करने को विवश कर दिया था। यदि वे वैसा न कर पाते और अपने बलबूते जीवन गुजारते स्थिति सर्वथा भिन्न होती और यायावरों की तरह जैसे-तैसे जिन्दगी व्यतीत तो करते।
सुदामा की कृष्ण से सघन मित्रता जमा सकने की दूरदर्शिता ही उन्हें मित्र के समतुल्य बना देने को श्रेय दिला सकी। ‘कृष्ण-सुदामा’ की संयुक्त चर्चा अनेकानेक अवसरों पर होती रहती है। कोई कृष्ण की उदारता को, कोई सुदामा की गौरव-गरिमा को प्रधानता देते हैं। जो हो दोनों का समन्वय रहा तो ऐसा ही जिसमें महानता का सान्निध्य समन्वय अपनी चमत्कारी परिणति सिद्ध कर सके।
बुद्ध और गांधी के महान व्यक्तित्वों के सम्बन्ध में दो राये नहीं हो सकतीं। पर इस सन्दर्भ में इस तथ्य को भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए, कि उनके सघन सम्पर्क में आने वाले असाधारण रूप से लाभान्वित हुए और सौभाग्यशाली बने।
बुद्ध के साथ जुड़ने का साहस न कर पाते तो हर्षवर्धन, अशोक, आनन्द, राहुल, कुमार जीव, संघमित्रा, अम्बपाली आदि की जीवनचर्या कितनी नगण्य रह गईं होती— इसका अनुमान लगा सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। गांधी के साथ यदि विनोबा राजगोपालाचार्य, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र बाबू आदि न घुले होते—अपना पृथक्-पृथक् वर्चस्व बनाकर चले होते तो वह स्थिति बन नहीं पाती जो बन सकी। नेहरू और लाला बहादुर शास्त्री की घनिष्ठता प्रसिद्ध है। यदि उस सघनता को ताक पर रख दें और अपने बलबूते उठने-बैठने की बात सोचें तो फिर परिणाम भी कुछ दूसरे ही स्तर के होने की बात सामने आ खड़ी होगी।
चाणक्य के साथ चन्द्रगुप्त, समर्थ के साथ शिवाजी, परमहंस के साथ विवेकानन्द की सघनता दोनों पक्षों के लिए कितनी सन्तोषजनक परिणाम प्रस्तुत कर सकी—इसे कौन नहीं जानता। मांधाता ने आद्य शंकराचार्य के साथ जुड़कर चारों धाम बनाने का श्रेय पाया। भामाशाह का अनुदान राणा प्रताप के साथ सम्बद्ध होने पर ही सार्थक हुआ अन्यथा इतना पैसा तो सेठ-साहूकारों के यहां से चोर-ठग भी उठा ले जाते हैं और बेटे-पोतों में, दुर्व्यसनों में उड़ाते-फूंकते देखे जाते हैं। महामानवों के साथ जुड़ जाने पर श्रेय पथ कितनी द्रुतगति से प्रशस्त होता है, इनके असंख्य उदाहरणों में टिटहरी का वह कण भी सम्मिलित है जिसमें अगस्त ऋषि की सहायता से समुद्र सोखे जाने और अण्डे वापिस मिलने की घटना कही जाती है।
असामान्य पतियों की अर्धांगिनी बन कर कितनी ही ऐसा उच्चस्तरीय श्रेय पा सकीं जैसा कि अपने बलबूते उनके लिए पा सकना सम्भव नहीं था कस्तूरबा गांधी, अहिल्याबाई जैसी अगणित महिलायें इसी श्रेणी में आती हैं। पौराणिक युग की राधा, अरुन्धती, शची, मैत्रेयी, द्रोपदी आदि की गौरव गरिमा में उनके पतियों के व्यक्तित्वों का कम योगदान नहीं रहा है। इस सौभाग्य के अभाव में उन्हें सामान्य महिलाओं की तरह ही जीवनयापन करना पड़ता।
महानता आग के समान है, उसके सम्पर्क में जो भी आता है गरिमायुक्त एवं तद्रूप होता चला जाता है। पृथ्वी का वैभव सूर्य के अनुदान से मिला है। यदि सूर्य का तापमान मात्र तीस डिग्री घट जाये तो समूची धरती चालीस फुट बर्फ से ढक जायेगी। इसी प्रकार तीस डिग्री तापमान बढ़ जाये तो यहां भी बुद्ध ग्रह जैसी भयानक गर्मी तपेंगी और वृक्ष वनस्पतियों से लेकर जल, थल और नभचर प्राणियों में से किसी का भी जीवित रह सकना सम्भव नहीं होगा। इसे पृथ्वी का सौभाग्य ही कहना चाहिए कि वह उपयुक्त स्तर के स्नेह सूत्र में सूर्य के साथ बंधी और आदान-प्रदान का उपयोग सिलसिला चल पड़ा मछलियां जलराशि के सहयोग के बिना अपने बलबूते किस प्रकार जीवित रह सकती हैं? उनकी संरचना अति महत्वपूर्ण होते हुए भी यह सम्भव नहीं कि अपने पैरों पर खड़ी रह सकें और जलराशि की अपेक्षा करके अपनी समर्थता सिद्ध करे सकें।
मुर्गा इसलिए प्रख्यात हुआ कि उसने प्रभातकाल के आगमन को सही समय पर पहचाना और उसकी सूचना सर्वसाधारण को देने का साहस जुटाया अग्रगामी सदा श्रेयाधिकारी होते रहे हैं। प्रभात की प्रथम किरण धारण करने वाले शिखर सबका ध्यान आकर्षित करते हैं। दौज का चन्द्रमा पूजा जाता है संसार भर के आन्दोलनों में जो सर्वप्रथम आगे आये, वे प्रख्यात हुए। यों पीछे आने वाले असंख्यों-अविज्ञातों का भी त्याग-बलिदान कम नहीं था। स्वतन्त्रता संग्राम में जिन्होंने भाव-भरी भूमिका निभाई वे पेन्शन पाने, शासन में उच्चपद पाने के श्रेयाधिकारी बने थे। वह समय निकल जाने के उपरान्त कोई उस सौभाग्य को पाना चाहे तो यही कहना पड़ेगा कि समय निकल गया। उनींदे लोग उन दिनों असमंजस की स्थिति में पड़े रहने पर मात्र पश्चात्ताप ही कर सकते हैं गांधी की डांडी यात्रा एवं धरसना के नमक सत्याग्रह का स्मरण सदा ही किया जाता रहेगा। बाद में तो कितनों तो कितनों ने ही नमक बनाया और कारागार भुगता था।
सत्साहस अपनाने की गरिमा तो सदा ही रही है और रहेगी, पर इस दिशा में बढ़ने-सोचने वालो में से अत्यधिक भाग्यवान वे हैं जो किसी महान् अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। महान् व्यक्ति भी सदा नहीं जन्मते। जन्मते हैं तो उनके साथ जुड़कर स्वल्प पराक्रम से असीम यश पाने का सुअवसर हर किसी को कहां मिलता है। इसे दैवी वरदान या पूर्व संचित पुण्यों का प्रतिफल ही कहना चाहिए कि महानता उभरे और उसके साथ सघनता स्थापित करने का साहस जग पड़े।
समय पर शादी के प्रस्ताव आते हैं और सुयोग्य वधू मिलने का अवसर रहता है। आगत प्रस्तावों को ठुकराते रहने वाले ढलती उम्र में इच्छा उठने पर भी उपयुक्त विवाह का सुयोग खो बैठते हैं। इन दिनों महाकाल ने आग्रह पूर्वक प्राणवानों को सहयोग देने के लिए बुलाया है। वस्तुतः यह श्रेयाधिकारी बनने का सौभाग्य सन्देश भर है। भगवान के काम, समय के उपक्रम एवं दिव्यशक्तियां अपनी अदृश्य क्षमता के आधार पर स्वयं ही सम्पन्न कर लेती हैं। रीछ वानर रूठ मटककर बैठ जाते तो भी सीता वापिसी और लंका की दुर्गति निश्चित थी। ऐसे अवसरों का सबसे बड़ा लाभ वे अग्रगामी उठाते हैं जो संकीर्ण स्वार्थपरता को छोड़ कर समय की मांग पूरी करने के लिए बिना समय गंवाये अग्रिम मोर्चे पर जा खड़े होते हैं। युग सन्धि को प्रस्तुत प्रभाव वेला का ठीक ऐसा ही मुहूर्त समझा जाना चाहिए, जिसमें साहसी, सदाशयी छोटे-छोटे कदम बढ़ाने पर भी अत्यधिक श्रेय संचित कर सकने वाले दूरदर्शियों में गिने जायेंगे।
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प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
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Type: SCAN
Language: ENGLISH
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The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
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संत विनोबा भावे
Type: SCAN
Language: HINDI
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त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
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त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
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अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
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अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
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युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
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युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
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गर पूछे कोई मुझसे तो मैं कहूँ कि स्वर्ग बस यहीं है
Type: TEXT
Language: EN
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गर पूछे कोई मुझसे तो मैं कहूँ कि स्वर्ग बस यहीं है
Type: TEXT
Language: EN
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आध्यात्मिक कायाकल्प का विधि- विधान-२
Type: TEXT
Language: HINDI
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ऋगवेद भाग 2-A
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Language: EN
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ऋगवेद भाग 2-A
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भगवान को मत बहकाइए
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Language: EN
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भगवान को मत बहकाइए
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Language: EN
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गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
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Articles of Books

  • प्रथम अध्याय— युग-सन्धि की प्रसव-पीड़ा और प्रज्ञावतरण
  • इस सुयोग-सौभाग्य को खोयें नहीं
  • स्वयं बदलें—प्रवाह को उलटें
  • युगशिल्पी अहंमन्यता के विष-पान से बचे रहें
  • अध्यात्म क्षेत्र की वरिष्ठता—विनम्रता पर निर्भर
  • प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
  • सृजन यज्ञ में हमारी श्रद्धांजलियां समर्पित होनी ही चाहिए
  • द्वितीय अध्याय— प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण और उनके उत्तरदायित्व
  • प्रज्ञा संस्थानों को प्राणवान रखा जाय
  • कार्यकर्ताओं की नियुक्ति को अनिवार्य प्राथमिकता दी जाए
  • ‘‘ज्ञानरथ’’ समय की महती आवश्यकता
  • झोला पुस्तकालय चलायें—युग चेतना लायें
  • लोकरंजन और लोकमंगल का समन्वय स्लाइड प्रोजेक्टर
  • आदर्श वाक्य—बोलती दीवारें
  • जन्म दिवसोत्सव, देखने में छोटा किन्तु परिणाम में महान
  • एकाकी प्रयत्न से चल पड़ने वाले प्रज्ञा मंदिर
  • इस वर्ष के दो विशेष अभियान
  • तृतीय अध्याय— प्रज्ञा परिवार का पुनर्गठन
  • शोध-संसद— ब्रह्मवर्चस् शोध के लिए मनीषा को युग निमंत्रण
  • युग प्रवक्ता संसद— धर्मतन्त्र की गरिमा समझें और उसे परिष्कृत करें
  • तीर्थ यात्रा की पुण्य प्रक्रिया का पुनर्जीवन
  • युग शिल्पी संसद— युग शिल्पी संसद की कार्य पद्धति का श्रीगणेश
  • युग गायक संसद— वाणी के कलाकार एक कदम आगे आयें
  • उपाध्याय संसद— उपाध्याय वर्ग नई पीढ़ी को युग चेतना से अनुप्राणित करें
  • युग प्रहरी संसद— प्रज्ञा परिजनों के लिए अणुव्रत
  • सम्पर्क संसद— जिन्हें जन सम्पर्क का सुयोग प्राप्त है वे उसमें कुछ और भी जोड़ें
  • भविष्य निर्माता संसद— युवा पराक्रम नव सृजन की दिशाधारा अपनाये
  • चतुर्थ अध्याय— युग शिल्पी प्रशिक्षण का संक्षिप्त पाठ्यक्रम
  • प्रज्ञा योग हृदयंगम करने योग्य तत्वदर्शन
  • प्रज्ञा योग की क्रिया परक साधना पद्धति
  • आसन प्राणायाम से आधि-व्याधि निवारण
  • जड़ी-बूटियों से स्वास्थ्य संरक्षण एकौषधि उपचार पद्धति
  • दिव्य औषधियों द्वारा आध्यात्मिक कायाकल्प
  • देव संस्कृति का पुनरुत्थान और तुलसी अभियान
  • आन्तरिक कायाकल्प हेतु आहार साधना
  • धर्मानुष्ठानों के क्रियाकृत्य उद्देश्यपूर्ण रहें
  • छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन की व्यापक व्यवस्था चल पड़े
  • देव दक्षिणा प्रत्येक धर्मानुष्ठान का अविच्छिन्न अंग
  • युग-संगीत उभरे और व्यापक बने
  • प्रज्ञा पुराण कथा—उद्देश्य और स्वरूप
  • प्रज्ञा आयोजनों की तैयारी इस प्रकार करें
  • प्राणवान कार्यकर्ता अपने क्षेत्रों का उत्तरदायित्व संभालें
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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