
आसन प्राणायाम से आधि-व्याधि निवारण
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आज की अनेक बड़ी समस्याओं में से एक है—जन स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट एवं मनोविकारों-शरीरगत व्याधियों में सतत वृद्धि। सुविधा साधन तो बढ़े हैं। निदान व उपचार के साधनों में भी नये-नये आविष्कार हुए हैं। परन्तु व्याधियों की सुरसा मुंह फाड़े बढ़ती ही जा रही है और उपचार का कोई स्वरूप ही समझ में नहीं आता।
प्राकृतिक जीवनक्रम, आहार का संतुलन व नियमितता, सुव्यवस्थित दिनचर्या व मनोबल की दृढ़ता—ये सभी स्वस्थ बने रहने के लिए अनिवार्य हैं, इन तथ्यों को कोई नकार नहीं सकता। फिर क्या कारण है कि आदमी चाहते हुए भी स्वस्थ जीवन को त्यागता व रोगों को आमंत्रण देता है। थोड़ा गहराई से विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि आधुनिकता की दौड़ में व्यक्ति अपने सहज जीवन क्रम को भूल गया है। जो अन्तरंग से अपने को रोगमुक्त करना चाहें, उनके दृढ़ मनोबल के समक्ष तो कोई रोग नहीं टिक सकता। पर आज ऐसी स्थिति कहां है? विकृत, अस्वाभाविक जीवन क्रम एवं तथाकथित व्यस्तता ने व्यक्ति को इतना असहाय, अपंग बना दिया है कि वह रोगों से जूझ पाने योग्य शक्ति ही नहीं जुटा पाता।
खोई जीवनी शक्ति किस तरह लौटायी जाय? अपने सहज भौतिकता से भरे जीवनक्रम में कौन से ऐसे माध्यम अपनायें जायें, ताकि शरीर व मन प्रतिकूलताओं से मोर्चा ले सकने योग्य सामर्थ्य जुटा सके। यह एक ऐसी गुत्थी है जिसे सुलझाना अनिवार्य है। न्यूनतम कार्यक्रम के नाते ही सही, रोगों से बचने व रोग हो तो उसे दूर भागने के लिए क्या पद्धति अपनाई जाय? कम समय में किस प्रकार मनुष्य प्राकृतिक जीवन के समीप जा सके? इसके लिये तो ऋषि प्रणीत चिरपुरातन आसन उपचार एवं प्राणायाम चिकित्सा पद्धति पर ही ध्यान जाता है। यदि उन्हें निर्धारित विधानानुसार नियमित रूप से न्यूनाधिक रूप में भी व्यक्ति करता रहे तो वह स्वयं को मनोविकारों के आक्रमण से तथा शारीरिक व्याधियों के चंगुल में फंसने से बचा जा सकता है।
ब्रह्मवर्चस् द्वारा सारी प्रचलित पद्धतियों का विशद विवेचन-विश्लेषण करके शरीरगत व्याधियों से रोकथाम व उपचार हेतु कुछ विशिष्ट आसन योग क्रमों का निर्धारण किया गया है। इसी प्रकार प्राणायाम द्वारा मनोविकारों की चिकित्सा व रोकथाम हेतु कुछ विशिष्ट प्रकार के निर्धारण किये गये हैं। न्यूनतम पांच मिनट एवं अधिकतम पन्द्रह मिनट में सम्पन्न होने वाली ये उपचार प्रक्रियायें यदि व्यापक रूप से चल पड़ें तो यह समझना चाहिए कि स्वास्थ्य संकट समाधान की पूर्व भूमिका बन गयी।
आसनों के अतिरिक्त इस व्यायाम प्रक्रिया में कुछ ऐसे उपक्रमों को भी सम्मिलित किया गया है जो शरीर की सक्रियता बढ़ाते हैं, टीम भावना के विकास में, मनोबल बढ़ाने में मदद देते हैं। ड्रिल पद्धति से परेड का एक ही उद्देश्य है—अनुशासन और टीम भावना का विकास। स्वास्थ्य तो इसकी प्रतिक्रिया भर है। इसी प्रकार टहलने, जॉगिंग, स्थिर वस्तुओं को ठेलने, दौड़ने एवं मालिश के भी कुछ प्रयोग लिए हैं। प्राणायाम चिकित्सा में प्राण शक्ति के मनोबल संवर्धन के विभिन्न प्रयोगों का विधान किया गया है। मनोविकार निवारण हेतु 3 प्रकार के ध्यानयुक्त प्राणायाम तथा प्रखरता सम्पादन हेतु 4 प्रकार के आध्यात्मिक प्राणायाम इसमें लिये गये हैं। यहां निर्धारित प्रयोगों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है।
आसनों से काय चिकित्सा:—शरीर के विभिन्न संस्थान परस्पर मिलकर विभिन्न क्रियाओं को संचालन करते हैं। पाचन संस्थान का महत्व अपनी जगह है, पर पाचन-परिपाक-अवशोषण के बाद रक्त में प्रविष्ट आवश्यक तत्वों को उपयुक्त वितरण तथा उन्हें निर्धारित स्थलों पर पहुंचाने का कार्य हृदय एवं रक्तवाही संस्थान का है। विभिन्न रस द्रव्यों-हारमोन्स आदि की चयापचय में अपनी भूमिका है। जोड़ों-मांसपेशियों के संचालन पर नाड़ी तन्तुओं की समर्थता निर्भर है। फेफड़े प्राणवायु प्रचुर मात्रा में न खींच पायें तो हृदय अशुद्ध रक्त को ही बार-बार पम्प करके शरीर के अंग-अवयवों जीवकोषों को भेजता रहेगा। इस प्रकार शरीर का हर अंग नित्य नियमित रूप से मर्दन-मालिश मांगता है। यदि यह प्रक्रिया न हो तो विजातीय द्रव्य एकत्र होते रहते हैं व शरीर को रुग्ण बनाते हैं। गठिया, डिस्क काम्प्रेशन, फेफड़ों के बार-बार संक्रमण, क्षयरोग, हृदयरोग, मोटापा, अजीर्ण-अपच-कब्ज, मूत्र प्रजनन अंगों के रोग (विशेषकर महिलाओं के) इन अवांछनीय विकार द्रव्यों के एकत्र होने की प्रक्रिया मात्र है। यदि नियमित रूप से सभी अंगों को बराबर रक्त मिलते रहने की व्यवस्था बनायी गयी हो तो न जीवनीशक्ति गिरे न रोग आक्रमण करें।
प्रस्तुत आसन विधान में 6 अंग विशेषों के लिए 12 विशिष्ट आसन योग निर्धारित किये गए हैं। ये अंग हैं—
(1) पैर (कमर के जोड़ से लेकर पैरों की उंगलियों तक)
(2) पेट और पेडू का अन्दरूनी अंग
(3) रीढ़ की हड्डी व जुड़ी हुई मांसपेशियां
(4) फेफड़े, हृदय व रक्तवाही नलिकायें
(5) कंधों के जोड़ व हाथ
(6) गर्दन तथा चेहरे की मांसपेशियां।
शास्त्रीय विधानों के अनुसार तो कई प्रकार के आसन हैं जो कई विभिन्न संस्थानों पर प्रभाव डालते हैं। इनको पढ़कर तो भ्रम और अधिक होता है, कि किसे अपनाया जाय किसे छोड़ा जाय। गहरी श्वांस-प्रश्वांस क्रिया के साथ हर अंग के व्यायाम में दो आसन योग लिये गये हैं। आसन योग इसलिए कि प्रत्येक में दो या तीन प्रकार के आसनों का ऐसा क्रमबद्ध सम्मिश्रण है कि सब मिलकर उस अंग को आमूलचूल प्रभावित करते हैं, रक्त प्रवाह बढ़ाते हैं तथा बिना अधिक दबाव डाले सूक्ष्म ग्रन्थियों की मालिश भी कर देते हैं। इन्हें थोड़े ही समय के शिक्षण से समझा जा सकता है। एक बार क्रम समझ में आ जाने पर स्वतः प्रक्रिया चल पड़ती है और थोड़े ही समय में चक्र घूम जाता है। हर आसन योग करने के पूर्व शरीर को अच्छी तरह हिला डुला लेना, गर्म कर लेना जरूरी है। मांसपेशियां कड़ी बनी रहीं तो न अंग झुकेगा, न वांछित दिशा में मोड़ा जा सकेगा। यह भी नहीं सोचना चाहिए कि प्रारम्भ से ही समग्र क्रम करना ही है। धीरे-धीरे अभ्यास से हाथ-पैरों में लचीलापन आता है एवं व्यायाम क्रम सहज बन जाता है।
पैरों के व्यायाम के लिए योग क्रमांक एक में उत्थित पादासन, घुटनों को मुंह से लगाना व लेटे-लेटे हाथ पैर चलाना इस क्रम में व्यायाम किया जाता है। हनुमान बैठक योग क्रमांक दो है। पेट-पेडू व कमर के लिए मरुतासन योग क्रमांक 3 है जिसमें बैठकर हाथों से फैले हुए पैरों को छूने का प्रयास किया जाता है एवं आंखें विपरीत दिशा में रखी जाती है। नाभि चालन योग क्रमांक 4 है।
रीढ़ के लिए योग क्रमांक 5 में उष्ट्रासन का प्रयोग किया जाता है तथा योग क्रमांक 6 में ताड़ासन तथा पादहस्तासन का युग्म है। फेफड़ों-हृदय के लिए वज्रासन में शशंकासन-भुजंगासन तथा घुटना टेककर दण्ड लेन का सम्मिलित विधान योग क्रमांक 7 है तथा त्रिकोणासन क्रमांक 8। कन्धों व हाथ के लिए योग क्रमांक 9 व 10 में क्रमशः स्कंध चालन वह हस्तचालन की सरल सी क्रियायें ली गई हैं जिनसे समग्र जोड़, हाथ की मांस-पेशियों व उंगलियों का व्यायाम हो जाता है। गर्दन व चेहरे की मांसपेशियों के लिए गर्दन हिलाना आंखें चलाना क्रमांक 11 तथा शंमुखी मुद्रा क्रमांक 12 योग विधान निर्धारित है। इन्हें चित्रों द्वारा देख समझकर तथा मार्ग दर्शकों से पूछकर सरलता से किया जाता रह सकता है।
सारे जटिल क्रमों को छोड़कर इन सरल संक्षिप्त विधानों को इसलिए चुना गया है कि ये सर्वसाधारण द्वारा किये जा सकें। यह एक सुविदित तथ्य है कि शरीर स्वास्थ्य मांसपेशियों के सुडौल-सबल होने पर नहीं—जीवन शक्ति व स्फूर्ति पर निर्भर है। ये सभी व्यायाम उन सूक्ष्म ग्रंथियों-चक्र उपत्यिकाओं पर प्रभाव डालते हैं जिनका सम्बन्ध शरीर की उन विलक्षण सामर्थ्य से है। जिसके बलबूते रोगों से मोर्चा लिया जाता है। विस्तार से तो सम्बन्धित ग्रंथ देखें पर प्रारम्भिक अभ्यास इस विवरण का विवेचन कर चित्रों से भलीभांति समझकर आरम्भ किया जा सकता है।
प्राणायाम से मनोविकारों की चिकित्सा
संकल्प बल की कमी ही उन उद्वेगों और विक्षोभों का कारण है जो आये दिन मनुष्य को कष्ट देते व कार्यक्षमता को प्रभावित करते हैं। सूक्ष्म रूप में विद्यमान ये मनोविकार प्रत्यक्ष तो दृष्टिगोचर नहीं होते पर अपनी प्रतिक्रिया चिंतन, व्यवहार, शरीरगत क्रियाओं पर बरसाते हैं। धीरे-धीरे ये मनोविकार ही मनोरोगों का रूप ले लेते हैं और अन्ततः रोगी को असमर्थ-अपंग बना देती है। आज शारीरिक रोगों की बहुलता के पीछे तीन चौथाई कारण मनोविकार ही हैं। जिन 6 प्रकार के मनोविकारों के लिए प्राणायाम उपचार की आवश्यकता बताई गई है, वे हैं—
(1) आवेश-असंतुलन
(2) सनक-अकारण भय, बेवजह की कल्पनायें, भ्रम आदि
(3) अवसाद-निराशा, उदासी, कायरता, आत्महीनता
(4) आतुरता-जल्दबाजी-अधीरता
(5) अपराधी वृत्ति-कामुकता प्रधान चिंतन
(6) मंदबुद्धि-मूढ़ता ।
यदि ध्यान से देखें तो इनमें से अधिकतर विकारों से पीड़ित व्यक्ति हमें अपने आसपास ही मिल जायेंगे। इनका थोड़ा बहुत अंश तो सभी में होता है। यदि प्राणायाम चिकित्सा का सहारा लिया जाय तो इनसे मुक्ति पाई जा सकती है और इनसे संबंधित केन्द्रों को इस प्राण प्रयोग द्वारा उत्तेजित कर उन्हें सामर्थ्यवान भी बनाया जा सकता है।
मस्तिष्क में 6 केन्द्र ऐसे हैं जो सीधे इन विकारों से सम्बन्धित हैं। सुषुम्ना के ऊपरी छोर पर स्थित फव्वारा चेतना को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है। इस फव्वारे या ‘रेटीकुलर एक्टीविंग सिस्टम’ नामक संस्थान के प्रवाह को 6 प्रकार के प्राणायामों से सुनियोजित कर उसे निर्धारित केन्द्रों तक फेंककर उन्हें प्रकाशवान न बनाया जाता है। भावना यही की जाती है कि प्राणायाम की पूरक प्रक्रिया के माध्यम से, उस मनोविकार के विरोधी भावों को संकल्प बल द्वारा प्राण-शक्ति से भरे सूक्ष्म जगत से खींचा जा रहा है, सम्बन्धित केन्द्रों तक उस प्रवाह को ले जाकर उसे प्रकाशवान बनाया जा रहा है। कुम्भक की अवधि में ग्रे मेटर के रूप में विद्यमान इन केन्द्रों में स्फुरणा हो रही है तथा रेचक के साथ इन विकारों को निकाल बाहर किया जा रहा है। ‘आवेश’ के लिए चन्द्र नाड़ी से पूरक व सूर्य नाड़ी से रेचक क्रिया (बायें से खींचना, दायें से निकालना), ‘सनक’ के लिये बायें से खींचकर दायें से फिर दायें से खींचकर बायें से निकालना। ‘अवसाद’ के लिए सूर्य नाड़ी से पूरक व चन्द्र नाड़ी से रेचक क्रिया (दायें से खींचना, बायें से निकालना), ‘आतुरता’ के लिए बायें से ही पूरक व रेचक, ‘अपराधी वृत्ति’ के लिए दायें से ही पूरक व रेचक तथा ‘मन्दबुद्धि’ के लिए बिना नथुना बन्द किए दोनों नासिका छिद्रों से सांस लेना व छोड़ना। यह पूरी प्रक्रिया 6 प्रकार के प्राणायामों की हुई। पूरी अवधि से जो लगभग 20 सेकेण्ड से 2 मिनट की है, जिस केन्द्र तक पहुंचाना है उसकी प्रतिच्छाया मस्तिष्क में, बनायी जाती है। इन केन्द्रों को चित्र द्वारा समझकर अपना अभ्यास आरम्भ किया जा सकता है।
आध्यात्मिक प्राणायामों में सोऽहम् प्राणाकर्षण, सूर्यवेधन, नाड़ीशोधन 4 प्रकार के प्राणायाम किए जाते हैं। ये प्राणायाम भावना प्रधान है एवं सूक्ष्म शक्तियों के जागरण के लिए हैं। उपचार हेतु किए जाने वाले प्राणायामों में फेफड़ों का तो व्यायाम है ही, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना धुरी पर विनिर्मित प्राण प्रवाह का समुचित सुनियोजन भी है। यह प्राण की शक्ति धारा प्रसुप्त को जगाने, विकारों को मिटाने तथा अपनी क्षमता को और प्रखर बनाने के लिए प्रयुक्त होती है।
आसन चिकित्सा व प्राणायाम उपचार के ये प्रयोग सबके लिए लाभदायक हैं। नियमित रूप से इन्हें करते रहने से जीवनी शक्ति को बढ़ाने एवं अपना संकल्प बल दृढ़ करने की जो क्षमता सम्पादित की जाती है उसे प्रयोग करके प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।