
युग प्रवक्ता संसद— धर्मतन्त्र की गरिमा समझें और उसे परिष्कृत करें
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कितने ही भावनाशील अपने देश, धर्म, समाज, संस्कृति की सेवा सच्चे मन से करना चाहते हैं। जिन्हें मनुष्य जीवन की गरिमा, स्वरूप, लक्ष्य और जिम्मेदारी का ज्ञान है वे सोचते हैं कि पेट और प्रजनन के उपरान्त बची हुई क्षमता का उपयोग, उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए। पिछड़ों और पीड़ितों की सहायता करना मानवी अन्तराल में जीवन करुणा का तकाजा है। इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियों के आतंक से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों से जो परिचित हैं उनमें उन्हें निरस्त करने के लिए आक्रोश भी उत्पन्न होता है। यह आवश्यक भी है। परन्तु उतना ही आवश्यक है सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करने वाली सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण, परिपोषण, उन्हें सींचे संजोये बिना सुख-शान्ति की स्थिरता एवं अभिवृद्धि का और कोई रास्ता नहीं। सेवा मानवी अन्तरात्मा का धर्म है। उसे अपनाये बिना व्यक्तित्व की गरिमा जागती ही नहीं, सुसंस्कारिता उगती ही नहीं। गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता ही दैवी सम्पदा है। उससे सुसज्जित व्यक्ति ही महामानवों की पंक्ति में खड़े होते हैं। आत्म सन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह का त्रिविध वरदान बटोरते और जीवन की सार्थकता, सफलता का आनन्द लाभ करते हैं। यह समस्त उपलब्धियां उन्हीं के लिए सम्भव हैं जिन्होंने सेवा धर्म अपनाया। धर्म और अध्यात्म अपनाने का प्रतिफल एक ही है कि संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊंचे उठकर पुण्य परमार्थ में निरत रहने का अधिकाधिक अवसर प्राप्त किया जाय।जो उपरोक्त निर्णय पर पहुंचते हैं उनके सामने प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि सेवा के अनेकानेक क्षेत्रों में किसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाय? किसे प्राथमिकता दी जाय? कौन सा मार्ग अपनाया जाय? किस दिशा में पदार्पण किया जाय? इस चिन्तन में कई क्षेत्र उभर कर सामने आते हैं। सोचा जाता है कि पैसे का महत्व सर्वोपरि है। गरीबी के कारण लोग बहुत दुःख पाते हैं। इसलिए ऐसे प्रयत्न किए जायें जिनसे सम्पदा बढ़े और सुविधाओं का लाभ मिले। दूसरा उपाय यह सूझता है कि शिक्षा बढ़ाई जाय। लोग पढ़े लिखे होंगे तो सही सोचना भी सीखेंगे, सभ्य बनेंगे और उपार्जन भी अधिक करेंगे। तीसरा मार्ग चिकित्सा का सूझता है। बीमारों के कष्ट निवारण में पुण्य है। कराहटों की, रुग्ण, असमर्थों की व्यथा हर ली जाय तो इससे कितनों की ही दुआएं मिलेंगी। ऐसे-ऐसे और भी कई रास्ते हैं। जिनमें सबसे उत्तेजक आकर्षक है राजनीति में प्रवेश। अब सारी विशेषतायें, सम्पदायें, सम्भावनायें, सत्ता में केन्द्रित होती जाती हैं। इसलिए क्यों न शासन सत्ता को हस्तगत किया जाय और उसके द्वारा देश का हित साधन किया जाय? इस प्रवेश में एक बड़ा लाभ यह है कि आदमी चमकता है। कोई डरता है कोई ललचाता है, कई लोग कई प्रकार की आशा लगाते और प्रत्यक्ष परोक्ष सहयोग देने लगते हैं। सत्ता के पक्षवाली राजनीति के अधिक लाभ है, विरोध में कम, तो भी दोनों क्षेत्रों में चमकने की गुंजाइश है। इसलिए स्वार्थ और परमार्थ का जैसा समन्वय राजनीति में दीखता है उतना और किसी में नहीं। वह अपेक्षाकृत सरल भी है। भाषण की कला आती हो और फुरसत रहती हो तो कोई भी नेतागिरी का धंधा आसानी से चला सकता है।
चयन के इस चौराहे पर खड़े हुए सेवा भावी को थोड़ा अधिक गम्भीरता अपनाने और समस्या की जड़ तक जाने की जरूरत है। सोचा यह जाना चाहिए कि आखिर इतनी प्रकार की समस्यायें, कठिनाइयां, विपत्तियां, विभीषिकायें मनुष्य के सामने ही क्यों आती हैं, जिनके लिए उसे दूसरों की सेवा, सहायता, प्राप्त करनी पड़े। बुद्धिहीन और साधनहीन समझे जाने वाले सृष्टि के अन्य सभी प्राणी चैन की जिन्दगी जीते हैं, फिर मनुष्य पर ही ऐसा दुर्भाग्य क्यों टूटता है, जो अगणित साधन-सुविधा रहते हुए भी उसे रोग, शोक, संकट, विग्रह, दरिद्रता, आक्रमण, अनाचार का शिकार बनना पड़ता है। खोजने पर एक ही कारण हाथ लगता है कि चिन्तन में निकृष्टता घुस पड़ना, दृष्टिकोण में विकृतियां, स्वभाव एवं चरित्र में दुष्प्रवृत्तियां भर जाना ही वह आधार भूत कारण है, जिसके कारण उपलब्ध साधनों का दुरुपयोग बन पड़ता है और स्वनिर्मित विफलताओं का घटाटोप बरसने लगता है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जननी है। ‘मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है’ इस शाश्वत सत्य पर जितनी बार विचार किया जाय, उतनी ही अधिक उसकी यथार्थता प्रकट होती है। सभी मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त अनुदान प्रायः समान स्तर के मिले हैं। जो उनका सदुपयोग कर पाते हैं वे प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुंचते हैं। जो उनका दुरुपयोग करते हैं वे अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारते और कुचक्र में फंसकर दुर्गति के गर्त में गिरते हैं।
तथ्य को समझा जा सके तो सेवा साधना का सर्वोपरि, सर्वाधिक महत्व का एक ही कारण और उपाय सामने आ खड़ा होगा कि मनुष्य के चिन्तन को सुधारा जाय, दृष्टिकोण को परिष्कृत किया जाय। इतना बन पड़े तो चरित्र निखरेगा और व्यक्तित्व उभरेगा। यह दिशाधारा मिल सके तो हर मनुष्य इस स्थिति में पहुंच सकता है कि असंख्यों को अपनी नाव में बिठाकर पार करे। किसी दूसरे की सहायता के लिए ताकने की तनिक भी आवश्यकता न पड़े। सफल महामानवों के इतिहास साक्षी हैं कि उनने अपने चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करके, अपने हाथों अपना भाग्य बनाया।
तथ्य बोलते हैं कि मक्खी, मच्छर मारते रहने की अपेक्षा उनके उद्गम केन्द्र कीचड़ साफ करना अधिक दूरदर्शिता पूर्ण है। फुन्सियों पर मरहम लगाना भी ठीक है, पर उस व्यथा से छुटकारा पाने के लिए रक्त शोधक उपचार करने चाहिए। दृष्टिकोण में संयम, सहकार, स्नेह, सद्भाव, श्रम, साहस, जैसे सद्गुणों का महत्व समझने और अपने स्वभाव व्यवहार को सज्जनोचित बनाने की उपयोगिता समाविष्ट हो सके, तो समझना चाहिए कि आज गई गुजरी स्थिति होने पर भी, कल इन्हीं विशेषताओं के कारण उज्ज्वल भविष्य का सरंजाम जुटाना सुनिश्चित है। लानत तो दुर्गुणी पर ही बरसती है। कुसंस्कारी ही पग-पग पर ठोकरें खाते हैं। अप्रामाणिक लोग ही तिरस्कार के पात्र बनते और विरोध असहयोग का त्रास सहते हैं। मन समझाने के लिए तो इस दुर्गति का दोष भाग्य विधान, ग्रह दशा से लेकर किसी भी समीपवर्ती, दूरवर्ती पर मढ़ा और आत्म प्रवंचना से मन हलका किया जा सकता है। पर तथ्य तो तथ्य ही रहेंगे। दुर्गति का प्रधान कारण दुर्मति ही है। संयोग, अपवाद तो कभी-कभी ही देखने को मिलते हैं।
सेवा का केन्द्र क्या हो? इसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो लोक मानस का परिष्कार की एक मात्र वह उपाय सूझेगा, जिसमें एक ही उपचार से समस्त समस्याओं का हल हो सकता है। चिन्तन को सुधारने की प्रक्रिया अध्यात्म तत्वज्ञान के नाम से जानी जाती है और आचरण में अनुशासन स्थापित करने वाली विधा धर्म कहलाती है। इस प्रयोजन को हाथ में लेने वाले कितने महान होते हैं। ऋषि, मनीषियों के, साधु ब्राह्मणों के चरणों पर भाव भरी श्रद्धांजलियां कृतज्ञतापूर्वक अर्पित होती रहती हैं। आज उन महामानवों का समुदाय लुप्त हो चला है, तो भी उनके वंश और वेष का लवादा ओढ़कर लाखों व्यक्ति दक्षिणा बटोरते और श्रद्धा सम्मान से लाभान्वित होते देखे जा सकते हैं। यदि कोई सच्चे अर्थों में धर्म सेवी बन सका तो लोक कल्याण के साथ-साथ आत्म कल्याण भी प्रचुर परिमाण में अर्जित करके रहेगा।
शासन तन्त्र और धर्म तन्त्र की तुलना करने से प्रतीत होता है कि शासन का प्रभाव मात्र भौतिक क्षेत्र पर है, जबकि धर्म व्यक्तित्व के गहन क्षेत्र में प्रवेश करके, भाव श्रद्धा, प्रखर प्रज्ञा और आदर्श कर्म निष्ठा को उभार कर मनुष्य में देवत्व का उदय करता है। भ्रष्टता दुष्टता पर शासकीय नियंत्रण नगण्य जितना ही हो पाता है। राजनीति में श्रद्धा जगाने और संयमी उदार जीवन जीने की प्रेरणा देने वाले कोई नहीं है, जबकि धर्म इन्हीं दैवी सम्पदाओं से लबालब भरा है। आज धर्म के नाम पर जो चल रहा है उसकी भरपूर भर्त्सना करते हुए यह भी सोचना चाहिए कि धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है। वस्तुतः वह चरित्र एवं चिन्तन में उत्कृष्टता भर देने और समाज को सत्परम्परा अपनाने के लिए बाध्य करने वाला एक प्रचण्ड अनुशासन है। ऐसा अनुशासन, जिसके सामने न अनीति ठहरती है, न उदण्ड आततायी उच्छृंखलता। शासन के बिना भी धर्म निभ सकता है, किन्तु धर्म कर्तव्य को छोड़ बैठने वाले जन समुदाय द्वारा अपनाई गई नैतिक अराजकता को काबू में रख सकना, कठोर से कठोर शासन तन्त्र के लिए भी संभव नहीं है। यह तुलना इसलिए की जा रही है कि राजनीति की धकापेल में घुसपैठ करने और पिछड़ने पर सदा उद्विग्न दिखने वाले, यदि सेवा धर्म के प्रति सच्चे हों और आत्म श्लाघा के बिना काम चला सकते हों, तो उन्हें धर्म तन्त्र को प्रखर परिष्कृत करने के लिए अपनी सुरुचि मोड़नी चाहिए। यह क्षेत्र विश्व समस्याओं के समाधान में पूर्णतया समर्थ होते हुए भी, प्रतिभावानों से सर्वथा शून्य है। सर्वविदित है कि सुनसान पड़े खण्डहरों में चमगादड़ों और अवावीलों के ही घोंसले बनते हैं, भले ही वे कभी राजदरबार वाले भव्य भवन ही क्यों न रहे हों। धर्म की वर्तमान दुर्दशा के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के साथ-साथ सोचना यह भी होगा कि जब विचारशील प्रतिभायें इस उत्तरदायित्व से विमुख होती चली जाएंगी, तो फिर उस उपेक्षित क्षेत्र में किसी सत्प्रवृत्तियों के पलने की आशा भी कैसे की जाय?
इस दुर्गतिग्रस्त समय में भी धर्म तन्त्र का कलेवर इतना भारी भरकम है, कि उसे सुधारने और प्रगति प्रयोजनों में लगाने का साहस कर सकें, तो प्रस्तुत सामर्थ्य के बलबूते भी अनुपयुक्त को हटाने और उपयुक्त को गतिशील बनाने में जादुई छड़ी घुमाने की तरह चमत्कारी सफलता मिल सकती है।
इन दिनों जन गणना के आधार पर साठ लाख धर्म व्यवसायी हैं। मन्दिर मठों की सम्पदा अरबों-खरबों की है। इतनी जनशक्ति और धनशक्ति को निहित स्वार्थों के पेट में चले जाने से, ढकोसलों-आडम्बरों में खर्च होने से बचाया और सृजनात्मक प्रयोजनों में लगाया जा सके, तो इसका परिणाम उससे भी अनेक गुना अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है, जैसा कि सरकारी पंच वर्षीय योजनायें बनाने वाले आशा करते और अनुमान लगाते रहते हैं। प्रश्न एक ही है कि यह करे कौन? जब विचारशीलों के सिर पर राजनीति का भूत ही सन्निपात ज्वर की तरह चढ़ बैठा हो, तो यह सोचे कौन कि धर्म तन्त्र का परिशोधन-पुनर्निर्माण करने की उसे सृजन प्रयोजनों में लगाने की आवश्यकता है।
समाज की बर्बादी के अनेक छिद्र हैं। उनके रहते प्रगति के सभी आधार कट जाते हैं। शादियों में होने वाले खर्च का अनुमान लगाया जाय तो वह शिक्षा और चिकित्सा पर खर्च होने वाली संयुक्त राशि से भी अधिक भार बैठती है। औसत परिवार की एक तिहाई आमदनी, विवाहों से, उससे आगे पीछे के प्रचलनों से बर्बाद हो जाती है। इस तथ्य को समझा ही जाना चाहिए कि खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती है। इस कुप्रथा के रहते अपना देश हजार वर्ष में भी गरीबी से छूट नहीं सकेगा, इसी प्रकार पर्दा प्रथा, जाति-पांति की ऊंच-नीच, शिक्षा व्यवसाय, मृतक भोज, बाल विवाह जैसी अगणित कुप्रथायें ऐसी हैं जो नशेबाजी और चोर जालसाजी से भी अधिक दुष्परिणाम उत्पन्न करती हैं।
नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र की अनेकानेक कुप्रथाओं को उलटने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों का, सत्परम्पराओं का प्रचलन करने के लिए एकमात्र हल, धर्मतन्त्र का प्रगतिशील प्रयोजनों के लिए उपयोग करना ही है। यह कार्य धर्म को गाली देते रहने से नहीं, उसके भीतर प्रवेश करके विवेकशील दूरदर्शिता का समावेश करने से ही होगा। अवांछनीयताओं के उन्मूलन का एक ही उपाय है कि उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित किया और समर्थ बनाया जाय। यह कार्य धर्म तन्त्र और अपने सेवा क्षेत्र का आधार बनाने से ही सम्भव हो सकता है। दीपक जलाने से ही अन्धकार दूर होता है। भावनाशील सेवाभावी यदि धर्मतन्त्र को बदनाम करने वाले अन्धकार को हटाना, उसकी सनातन गरिमा से मानवता को कृतकृत्य बनाना चाहते हों, तो स्वयं इस क्षेत्र में प्रवेश करें और प्रतिगामिता को प्रगतिशीलता में बदलें।