
स्वयं बदलें—प्रवाह को उलटें
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यह परिवर्तन का महान पर्व है। तमिस्रा के पलायन और दिनमान के ऊर्जा विस्तार का यह मध्यवर्ती प्रभात है। युग सन्धि के इन बीस वर्षों में मनुष्य जाति के भविष्य में असाधारण उलट-पुलट होने जा रही है। महाकाल की गलाने और ढालने वाली भट्ठी प्रचण्ड दावानल की तरह गगन चुम्बी होती जा रही है। वर्तमान प्रचलनों की अवांछनीयता अगले दिनों ठहर न सकेगी। उसके स्थान पर आदर्शवादी उत्कृष्टता को सिंहासनारूढ़ होने का अवसर मिलेगा।
इस प्रभात परिवर्तन का प्रथम दर्शन पर्वत शिखरों पर दृश्यमान किरणों की तरह होना चाहिए। इन दिनों कोई जागृत आत्मा मूक दर्शन बन कर न रहे। अग्रिम पंक्ति में खड़ा हो और महाकाल के अनुशासन को सर्व प्रथम धारण करके मूर्धन्यों, वरिष्ठों की तरह श्रेयाधिकारी बनें।
इन दिनों जिनके अन्तराल में स्रष्टा के युग परिवर्तन प्रयास के प्रति उत्साह जगता हो, भागीदार बनने के लिए उमंग उठती हो, उन्हें इस हलचल को दैवी प्रेरणा एवं आत्मा की पुकार की तरह महत्व देना चाहिए। सोचना कि जब असंख्यों के कान पर जूं तक नहीं रेंगती तो उन्हीं को यह कसक क्यों कचोटती है? पूर्व जन्मों के संचित सुसंस्कार ही आदर्शवादी प्रयासों में अग्रिम भूमिका निभाने की प्रेरणा देते हैं। पिछले अभ्यास एवं अनुभव ही परमार्थ प्रयोजनों का उत्तरदायित्व कन्धों पर उठाने का साहस प्रदान करते हैं। जागृत आत्माओं के इन उठती उमंगों के आधार पर अपनी वरिष्ठता अनुभव करनी चाहिए। दूसरों से भिन्न मानकर चलना चाहिए। उथले परामर्श स्वीकार करने के स्थान पर अपना स्थान असंख्यों को मार्गदर्शन कर सकने वाले मूर्धन्यों की पंक्ति में निर्धारित करना चाहिए। ऐसी दशा में उनके सोचने का स्तर एवं कार्य पद्धति का निर्धारण भी भिन्न रहेगा। उथले लोगों के उपहास, परामर्श, मतभेद, असहयोग, विरोध की परवाह न करते हुए मूर्धन्य एकाकी चलते हैं और सूर्य चन्द्र की तरह अपने बलबूते अपना मार्ग चुनते हैं। वही मनःस्थिति जागृत आत्माओं की भी होनी चाहिए। महानता के श्रेयाधिकारी, देवदूतों के उत्तराधिकारी बनने का लाभ उन्हें ही मिलता है जो आदर्शवादियों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होते हैं और बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म प्रेरणा के सहारे स्वयमेव अपनी दिशा धारा का निर्माण निर्धारण करते हैं।
दूसरों की अपेक्षा अपनी रीति-नीति में प्रमुख परिवर्तन यहां से आरम्भ होना चाहिए कि आकांक्षायें अभिलाषायें वैभव बड़प्पन से हटाकर व्यक्तित्व को महान बनाने और जीवनक्रम को अनुकरणीय, अभिनन्दनीय स्तर तक ले जाने की योजना बनायें। दूसरों की आंखों में चकाचौंध उत्पन्न करने—सस्ती वाहवाही लूटने की बात छोड़ें और उस मार्ग को खोजें जिस पर अपनी महानता को जागृत, प्रकट, परिपुष्ट और चिरस्मरणीय बनने का अवसर मिलता है। कुछ प्राप्त करना ही है तो ऐसा पायें जिसमें आत्म तृप्ति, लोक श्रद्धा और दैवी अनुकम्पा के अजस्र अनुदान प्राप्त हों। कुछ पराक्रम करना ही कुछ वर्चस्व की सिद्ध करना है, तो ऐसा सेतु बांधें, कोई ऐसा जहाज बनायें जिसके सहारे असंख्यों को प्रचण्ड जलधारा का अवरोध पार करते दूसरे किनारे तक पहुंचाने का अवसर मिले। पुरुषार्थ करना है तो उच्चस्तरीय करें। वैभव उपार्जित करना ही हो तो ऐसा कमायें जो न केवल अपने वरन् दूसरों को भी काम आये। शूरवीर बधिकों और कसाइयों को नहीं कहते, योद्धा वे हैं जो निर्बलों को अनीति से बचाने में अपनी छाती अड़ा सकें।
बड़प्पन न संचय में है न उपभोग में। ठाठ बाट बनाने में नाटक वाले अधिक कुशल होते हैं। अभिनेता इस कला में प्रवीण होते हैं। खजांची आये दिन लाखों के बारे न्यारे करते हैं। सर्प खजाने पर बैठे रहते हैं। लोगों का ध्यान आकर्षित करने में तो सड़क पर नंगे घूमने वाले पागल भी सफल हैं। इस बचकानी हरकतों को कोई विचारशील न अपनायें। सोचें कि बड़प्पन एक दृष्टिकोण है जिसमें सदा ऊंचा उठने, आगे बढ़ने, रास्ता बनाने, जो श्रेष्ठ है उसी को अपनाने की उमंग उठती और हिम्मत बन्धती है। राजहंसों की रीति-नीति यही है। वे निजी जीवन में मोती चुगते हैं। नीर−क्षीर विवेक को अपनाये रहते हैं और सब कुछ करने की योजना बनाते हैं तो समुद्र पार तक उड़ जाने या गायत्री जी, ब्रह्माजी जैसे देवाधि देवों की पीठ पर लदे रहने की विशिष्टता प्रकट करते हैं।प्रज्ञापुत्रों का चिंतन और चरित्र ऐसा ही होना चाहिये। उनकी उमंगों में आकांक्षाओं में गतिविधियों में, विभूतियों में, प्रशंसाओं में कुछ ऐसी विशेषता होनी चाहिये जिससे दूसरों को प्रेरणा मिले। दीपक की तरह प्रकाशवान रहने और वातावरण में आलोक भरे रहने का गौरव कम नहीं है। भले ही इसमें संचित सम्पदा चुकती हो, भले ही जलन सहनी पड़ती हो। ओलों का अनुकरण न किया जाय जो बादलों पर घूमते हैं। सफेद ठण्डे भी दिखते हैं किन्तु गतिविधियों का लेखा-जोखा लेने पर फसल को जलाने और अपने को गलाने में ही उसकी सम्पदा का अन्त दिखता है। ध्वंस तो माचिस भी कर सकती है। कांटा भी प्राणघातक हो सकता है। अपना पराक्रम बुहारी जैसा, सूपे जैसा, कांटा जैसा, कपास जैसा, सृजनात्मक रहे तो क्या हर्ज है। घास जैसे उगे, हरीतिमा बिखेरें और दूसरे के काम आ जायें तो यह उपक्रम भी बुरा नहीं है।
उनकी नकल न करें जिनने अनीति पूर्वक कमाया और दुर्व्यसनों में उड़ाया। बुद्धिमान कहलाना आवश्यक नहीं। चतुरता की दृष्टि से पक्षियों में कौवे को और जानवरों में चीते को प्रमुख गिना जाता है। ऐसे चतुरों और दुस्साहसियों की बिरादरी जेलखानों में बनी रहती है। ओछों की नकल न करें। व्यक्तित्व की दृष्टि से बचकाने, लालची, उद्धत, उच्छृंखल लोग अपने मार्गदर्शक न बनें। आदर्शों की स्थापना करते समय श्रेष्ठ, सज्जनों को, उदार महामानवों को ही सामने रखें। पतितों की प्रशंसा करने, उन्हीं का अनुसरण करने की भूल न करें। सस्ती उपलब्धियां कमाने में प्रायः धूर्तता को ही सफलता मिलती है। पर स्मरण रखा जाय कि वह उपार्जन बहुत महंगा पड़ता है। सम्पत्तिवान होने के कारण किसी को भी श्रेय न दें और न उनकी राह पर चलने की उतावली करें। इसमें जोखिम ही जोखिम है।
युग परिवर्तन का शुभारम्भ प्रज्ञा परिजनों के दृष्टिकोण निर्धारण एवं क्रिया में आलोक भरने के रूप में होना चाहिये। इंजीनियर हो तो भवन बनें, डॉक्टर हों तो अस्पताल चलें, अध्यापक हों तो बच्चे पढ़ें, सेनापति हों तो सिपाही जैसे लड़ें। अग्रगामी रास्ता दिखाते ही नहीं बनाते भी हैं। यदि वह सही दिशा में जाता होगा और सीधा होगा तो उस पर चलने वाली भीड़ की कमी न रहेगी। कठिनाई तो आरम्भ में ही होती हैं। ढर्रे चल पड़ें तो बड़े-बड़े उद्योगों को मुनीम, गुमास्ते भी चलाते रहते हैं। युग सृजन में प्रमुख भूमिका उनकी होगी जो आगे चलेंगे अर्थात् अपने व्यक्तित्व और प्रयास में ऐसी आदर्शवादिता भर देंगे जिसे देखकर उस अनुकरण का साहस जन-जन में उभरे। युग परिवर्तन का श्रीगणेश अपने निजी क्षेत्र में प्रज्ञा परिजनों को करना है। उन्हें इस प्रकार का सांचा बनना है जिससे रटने वाले ठीक उसी तरह के बनते चले जायें।
इस सन्दर्भ में प्रथम निर्धारण यह है कि लोक प्रवाह से तनिक भी प्रज्ञावित न हुआ जाय। लोगों को अन्धी भेड़ों की मंडली भर समझा जाय और यह मानकर चला जाय कि अपनी विशिष्ट सत्ता इनका मार्गदर्शन करने के लिये हुई है। पथ प्रदर्शक अपनी स्वतन्त्र सूझ-बूझ का परिचय देते हैं। उन्हें उथले परामर्शदाताओं की उपेक्षा की करनी पड़ती है। भटके लोग तो दूसरों को भटका ही सकते हैं।
मानकर चलना होगा कि नित्यकर्म, निर्वाह क्रम के सामान्य लोक व्यवहार को छोड़कर प्रज्ञा परिजनों को अपनी आकांक्षा, कार्यविधि, आदतें लगभग ऐसी बदलनी चाहिए जिसे व्यक्तित्व का कायाकल्प कहा जा सके। गीता में योगी के लक्षण बताते हुए कहा है, वे दिन में सोते और रात में जागते हैं अर्थात् सामान्य जनों से अपनी गतिविधियां भिन्न प्रकार की बनाते हैं।
लोगों का दृष्टिकोण, जीवनक्रम एवं प्रयास का शवच्छेद किया जाय तो उसमें से अधिकांश रावण, कुम्भकर्ण, मारीच, कंस, दुर्योधन, जरासंध, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, भस्मासुर के भाई-भतीजे दिखाई पड़ेंगे। अन्तर इतना ही है कि योग्यता एवं समर्थता के अभाव में मनचाही कर नहीं पाते। रीति-नीति उनकी उसी स्तर की है। सूर्पनखा, ताड़का, त्रिजटा, सुरसा, पूतना, मन्थरा घर-घर में विराजमान हैं। अन्तर साधन और अवसर न मिल पाने जितना है। इन लोगों के बीच रहते हुये भी कमल पत्र की नीति बनानी चाहिये। सुदामा, केवट, हनुमान, भगीरथ जैसों का अनुकरण करने में घाटा नहीं सोचना चाहिये। कौशल्या, सुमित्रा उर्मिला, कुन्ती, मदालसा, मीरा, संघमित्रा का रास्ता अपनाने में कोई घाटा नहीं। पिछला जीवन उथला रहा हो तो भी भविष्य का उज्ज्वल निर्धारण करने में कोई अड़चन नहीं। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, विल्वमंगल, अजामिल जैसे बदल सकते हैं। आम्रपाली, वासवदत्ता की कथायें बताती हैं कि सामान्य स्तर से गई गुजरी नारी भी आन्तरिक परिवर्तन होने पर विश्व विभूति बन सकती है। आदर्शवादी परिवर्तन के लिये जीवन का हर क्षेत्र, संसार का हर कोना खुला पड़ा है।
सर्वप्रथम अपने समय और खर्च को कसना चाहिये। औचित्य की सीमा समझी जाय और उपभोग, संचय, व्यामोह, खुशामद की अभ्यस्त आदतों को उलट दिया जाय तो अगले ही दिन अभ्यस्त ढर्रा, रवैया बदलने लगेगा। मनःस्थिति न परावलम्बियों जैसी रहेगी न दीन-दयनीयों जैसी। आत्मबोध उभरते ही प्रतीत होगा कि न केवल निर्वाह के साधन पर्याप्त हैं वरन् देने के लिये भी विपुल वैभव अपने पास विद्यमान है। धन न सही समय, श्रम, प्रभाव, प्रतिभा की दृष्टि से भगवान ने किसी को भी दरिद्र नहीं बनाया। उन्हें बर्बादी से बचाने के उपरान्त हर व्यक्ति इस स्थिति में होगा कि वह समाज और संस्कृति को बहुत कुछ दें सकेगा। असंख्यों को रास्ता बताने में लाल मशाल हाथ के लिये आगे-आगे चल सकेगा।
लोग कुरीतियों के अभ्यस्त हैं। हम क्यों उनका अनुसरण करें। लोग अन्धा-धुन्ध बच्चे जनते, उनके लिये कुबेर का वैभव जुटाने की बात सोचते हैं। हम क्यों न अपने बालकों को श्रमजीवी एवं सृजन सहयोगी बनायें। शादियों में पैसे की होली फूंकने की जरूरत क्या है? ठाठ-बाट का अमीरी का खर्चीला स्वांग क्यों करें ?
लोगों की आदतें बिगड़ गई हैं। वे चटोरेपन में लिप्त रहकर खोखले बनते जा रहे हैं। हमें वैसा करने की क्या पड़ी है? लोगों की अनीति उपार्जन और संचय अपव्यय में उसका समापन करने की आदत है, हम क्यों वैसा करें। लोग नशा पीते हैं। अभक्ष्य खाते हैं, दुर्व्यसनों में डूबे, कुकर्म करते रहकर जिन्दगी के दिन काटते हैं। क्या स्वजन सम्बन्धी होने के नाते इन्हीं का दबाव माना और इन्हीं का अनुसरण किया जाय? मूढ़ मान्यताओं में जकड़े, अनाचारों से अभ्यस्त, कुचक्री, षड्यंत्ररत लोगों को न हमारा परामर्शदाता होना चाहिये न सूत्र-संचालक, न नेता। भले ही वे अपनी चतुरता के कारण बड़े लोगों में गिने जाने लगे हों। कोई ब्राह्मण वंश में जन्मा है या साधुवेश धारण करता है, अधिक पढ़ा है या पदाधिकारी बन गया है। इनमें से एक भी ऐसा कारण नहीं है जिससे इन्हें नीति निर्धारक माना जा सके। इस अज्ञान, अन्धकार, अनाचार और दुराग्रह के माहौल से हमें समुद्र में खड़े स्तम्भों की तरह एकाकी खड़े होना चाहिये। भीतर का ईमान, बाहर का भगवान यदि इन दो को मजबूती से पकड़ें और विवेक तथा औचित्य के दो पग बढ़ाते हुये लक्ष्य की ओर एकाकी बढ़ें तो इसमें सच्चा शौर्य पराक्रम है। भले ही लोग उपहास उड़ायें या असहयोगी, विरोधी रुख बनाये रहें।
युग परिवर्तन में जिस सतयुग के अवतरण का लक्ष्य है उसे प्रज्ञा परिजन सर्वप्रथम आत्म सत्ता में अवतरित करें। एक जलता दीपक असंख्यों को जला देता है। इस तथ्य पर विश्वास करें। स्वयं बदलें-प्रवाह को पलटें और पराक्रमी युग प्रवर्तकों की अग्रिम पंक्ति में खड़े हों। यही है समय की मांग और आत्मा की पुकार जिसे कोई भी प्राणवान अनसुनी न करें।