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Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


युग शिल्पी संसद— युग शिल्पी संसद की कार्य पद्धति का श्रीगणेश

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First 21 23 Last

यह युग संधि का परिवर्तन पर्व है। इन दिनों मनुष्य का भाग्य विधान नई स्याही, नई लेखनी से कोरे कागज पर नये सिरे से लिखा जा रहा है। विनाश को विकास में बदलने वाले युग सृजेताओं की भूमिका का इस अभिनव इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेख होगा। साहस के धनी ही उस राज मार्ग का निर्माण करेंगे जिस पर चलते हुए कोटि-कोटि अनुयायी लक्ष्य तक पहुंचने और नये युग की नयी धारा प्रचलित, प्रवाहित करेंगे। पीढ़ियां अनन्त काल तक इन्हें भावनापूर्वक स्मरण रखेंगी और कृतज्ञतापूर्वक शत-शत नमन करेंगी।
इन दिनों महाकाल ने हर जागृत आत्मा से समय दान की याचना की है और कहा गया है कि विलासी व्यामोह और संचय की लिप्सा पर नियंत्रण करके भाव भरे अनुदान युग देवता के चरणों में अर्पित करें। कोई अति कृपण ही इस चुनौती को अस्वीकार कर सकता है। प्रसन्नता की बात है कि प्रज्ञा परिवार में भाव भरी सुसंस्कारी साहसिकता उमगी है और अधिकांश ने औसत निर्वाह और परिवार को स्वावलम्बी, स्वल्प, सन्तोषी बनने का पाठ पढ़ाकर तथाकथित कठिनाइयों को हल कर लिया है। दृष्टिकोण बदलते ही पर्वत जैसे अवरोध तिनके जैसे हलके हो गये हैं और व्यवस्था, अभावग्रस्तता जैसे कुछ दिन पूर्व की बहानेबाजी अब तनिक भी असमंजस उत्पन्न नहीं करती। समस्यायें अपने ढंग से सुलझ गई हैं। पहले जो उपाय सोचा जाता था वह तो नहीं बन पड़ा पर परिस्थितियां अपने हल निकालने के लिए हजार नए रास्ते खोज लेती हैं। युग शिल्पियों ने कदम आगे बढ़ाने का संकल्प कर लिया तो फिर अवरोधों का काल्पनिक कुहासा छंटने में भी देर नहीं लगी। अब वे पूर्ण निश्चिन्ततापूर्वक नव सृजन के मोर्चे पर अग्रिम पंक्ति में आने के लिए खड़े हैं। आश्चर्य है कि तथाकथित असमंजसों में से एक भी आड़े नहीं आया और न किसी का पेट खाली रहा, न परिवार भूखा मरा। सच पूछा जाय तो यह दोनों की क्षेत्र इन बदली परिस्थितियों से अधिक तृप्ति, तुष्टि और शान्ति अनुभव करते हैं। आदर्शवादी आस्थाओं में यह विशेषता है कि व्यक्ति उन्हें सच्चे मन से पकड़े, जकड़े रहे तो सहयोग और विरोध प्रदर्शन करने वाले भी समयानुसार नरम पड़ जाते हैं और व्यंग्य उपहास करने के स्थान पर प्रशंसक समर्थक ही नहीं अनुकूल भी बन जाते हैं। युग शिल्पियों में से अधिकांश का अनुभव यही है। जो पक रहे हैं वे कल नहीं तो परसों इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि शूर-साहसियों के द्वारा अपनाई जाने वाली उत्कृष्ट आदर्शवादिता आरम्भ में ही घाटे का भय दिखाती है। अनुभव बताता है कि यह लाभदायक मार्ग है। अगणित महामानवों की जीवन गाथा इस सत्य की, तथ्य की, शपथ पूर्वक साक्षी देने के लिए प्रस्तुत हैं।
युग शिल्पियों को क्या करना है। इसके लिए उनके सम्मुख प्रथम चरण में अपनाई जाने वाली पंच सूत्री योजना स्पष्ट है:—
जागृत जन शक्ति के सहारे ही नव सृजन की बहुमुखी आवश्यकतायें पूर्ण की जानी है। इसके लिए धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण का मार्ग अपनाया गया है और पंच सूत्री योजना को प्रश्रय दिया गया है

   (1)  प्रज्ञा संस्थानों का संस्थापन
   (2)  ज्ञान रथ के माध्यम से स्वाध्याय
   (3)  स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से सत्संग
   (4)  पारिवारिक ज्ञान गोष्ठियों के लिए जन्म-दिवसोत्सव
   (5)  लोक मानस ढालने के लिए आदर्श वाक्य आन्दोलन।
यह पंच सूत्री योजना चल पड़ने पर जन सम्पर्क सधेगा। जन समर्थन मिलेगा और जन सहयोग की कमी न रहेगी। यह प्रथम चरण है। दूसरे चरण के दस सूत्र हैं। पांच सृजनात्मक पांच सुधारात्मक। अपने देश की वर्तमान परिस्थितियों में इन्हें हर दृष्टि से प्राथमिकता मिलनी चाहिए, इनके परिणाम दूरगामी होंगे और उनकी सफलता कायाकल्प जैसी स्थिति उत्पन्न करेगी।
(1)    अपने देश में सत्तर प्रतिशत अशिक्षित हैं। अशिक्षा के रहते न भौतिक प्रगति हो सकती है न आध्यात्मिक। जानकारियों और विचारणाओं का क्षेत्र सीमित रहने पर मनुष्य कूप मंडूक ही बना रहेगा। न अनगढ़पन खलेगा, न समय के साथ कदम बढ़ाने का उत्साह ही उत्पन्न होगा। प्रगति के लिए शिक्षा की आवश्यकता को अनिवार्य ही माना जाना चाहिए। यह पेट भरने के उपरान्त दूसरी आवश्यकता है। जिसकी पूर्ति होनी ही चाहिए।
यह कैसे संभव हो? हमें हर काम के लिए सरकार का मुंह ताकने की आदत है। यह भुला दिया जाता है कि सरकार के साधन बहुत सीमित हैं। उसके लिए बालकों के शिक्षा साधन जुटाना तक कठिन पड़ रहा है तो फिर 60 प्रतिशत प्रौढ़ नर-नारियों को साक्षर बनाने की—अत्यन्त व्ययसाध्य योजना को पूर्ण करने की आशा उससे कैसे की जाए। यह कार्य जन स्तर पर ही हो सकता है। हर शिक्षित से सम्पर्क साधा जाए। उसे विद्या ऋण चुकाने के लिए एक-दो घंटे नित्य देते रहने के लिए मनाया जाये। इस आधार पर गली-गली मुहल्ले-मुहल्ले नर-नारियों की प्रौढ़ पाठशालाएं चलें। बच्चों को सुसंस्कारी बनाने तथा स्कूली पढ़ाई को परिपुष्ट करने के लिए भी ऐसा ही प्रबन्ध हो। इसके लिए शिक्षकों का सेवा सहयोग प्राप्त करने अनपढ़ों में उत्साह जगाने और स्थान आदि का सुयोग बिठाने का त्रिविधि कार्यक्रम हाथ में लेना होगा। जन स्तर पर यह प्रयास चल पड़े, उत्साह भरा प्रवाह उमड़ पड़े तो जन आन्दोलन के सहारे इस अत्यन्त आवश्यक एवं अत्यन्त दुरूह कार्य को सम्पन्न कर दिखाना कुछ भी कठिन न रहेगा।
(2)    स्वास्थ्य संवर्धन में कितने ही तथ्यों का समावेश है। सम्पन्नता बढ़ने साधन जुटने की प्रतीक्षा में इसके लिए रुका नहीं जा सकता। आहार के पोषण को कम करने के लिए घरों में शाक वाटिका लगानी होगी। भोजन पकाने की पद्धति में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे। आहार-विहार संतुलित करने के सम्बन्ध में अपने देश की स्थिति को देखते हुए जन साधारण को वर्ण माला पढ़ाने जैसी जानकारी कराने एवं आदत डालने की आवश्यकता पड़ेगी। व्यायाम, खेल, कूद का नया माहौल बनाना होगा। प्रजनन में संयम बरतने और शिशु पालन का ककहरा पिछड़े देहातों में  नये सिरे से पढ़ाना होगा।
(3)    इस सन्दर्भ में स्वच्छता का अपना महत्व है। गली कूचों में-गांव के इर्द-गिर्द फैले हुए कूड़े-कचरे और मल-मूत्र में किस प्रकार दुर्गन्ध उठती, बीमारी फैलती तथा बहुमूल्य खाद की बर्बादी होती है। इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से प्रतीत होता है कि तनिक से आलस्य-प्रमाद में स्वास्थ्य संकट में, अतिरिक्त उपज में, अर्थ व्यवस्था में कितनी भारी क्षति पहुंचती है। जापान में मनुष्य के मल-मूत्र को सुनहरा खाद कहा जाता है और गोबर के स्थान पर उसी से बहुमूल्य खाद बनाकर उपज का कीर्तिमान बनाया जाता है। देहातों में मानवी मल-मूत्र के सदुपयोग की व्यवस्था नहीं। यदि खेतों में चलते फिरते पखाने बनाये जा सकें अथवा पानी के लोटे के साथ खुरपी लेकर शौच जाने के लिए लोगों को समझाया जा सके तो हर मनुष्य का मलमूत्र खाद बन सकता है और उपज बढ़ाने में आश्चर्य जनक योगदान दें सकता है। हर गांव में सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति कठिन है। पर श्रमदान का उत्साह उत्पन्न करके इस आधार पर गली कूचों का कूड़ा करकट खाद के गड्ढों तक पहुंचाया जा सकता है। घरों की तथा कुओं की सड़ती हुई नालियों की निकासी का प्रबन्ध हो सकता है। कुएं तालाबों की सफाई होती रहे तो भी बढ़ती हुई बीमारियों की रोकथाम हो सकती है और कुरुचिपूर्ण वातावरण का, गन्दगी सहन करने वाले स्वभाव का कायाकल्प हो सकता है। यह सभी कार्य ऐसे हैं जिन्हें जन सहयोग के सहारे ही सम्पन्न किया जा सकता है।
(4)    आलस्य-प्रमाद ने अपने देश में एक भयावह बुराई का रूप धारण कर लिया है। कामचोरी, हरामखोरी में बड़प्पन समझा जाने लगा है। श्रम जीवियों को हेय, अछूत माना और तिरस्कृत किया जाता रहा है। फलतः गरीबी बेकारी की समस्या दिन-दिन विकट होती जा रही है। इस सन्दर्भ में गृह उद्योगों के प्रति नये सिरे से उत्साह उत्पन्न करने की आवश्यकता है। हाथ से चलने वाले या जहां बिजली है, वहां छोटी मशीनों के सहारे चल सकने वाले कुटीर उद्योग गांव-गांव लगाये जायें और बढ़ती हुई बेकारी तथा गरीबी का प्रश्न हल किया जाए। मात्र खेती या नौकरी के सहारे देश की अर्थ व्यवस्था सुस्थिर नहीं रखी जा सकती। सरकार पर यह दबाव डालना होगा कि वह कुटीर उद्योगों के सुरक्षित क्षेत्र से बड़े मिल कारखानों को प्रतिस्पर्धा न करने दें। खादी युग की तरह कुटीर उद्योगों के बने माल को प्राथमिकता देने के लिए जन आन्दोलन खड़ा करना होगा।
(5)    कामचोरी हरामखोरी को एक तरह का अनैतिक असामाजिक कार्य माना जाय और इस प्रवृत्ति वालों को कुछ उपार्जन करने एवं कार्यों में संलग्न होने के लिए समझाया दबाया जाय—आलस्य—प्रमाद की दुष्प्रवृत्ति जितनी ही घटेगी उतनी ही सत्प्रवृत्ति सम्पदा एवं प्रगति बढ़ती चली जायेगी।
(6)    वृक्षों के घटने से जीवन के लिए उपयुक्त प्राणवायु का अनुपात कम होता जा रहा है। वर्षा के पानी से भूमि कटती है। पत्तों की खाद न मिलने से उर्वरता कम होती है। वर्षा में कमी पड़ती है। इमारती तथा जलाऊ लकड़ी के दाम दिन-दिन बढ़ते हैं। हरीतिमा घटने पर मौसम का सन्तुलन डगमगाता है। खाद्य संकट उभरता है तथा अन्याय ऐसे असंख्यों कारण सम्पन्नता तथा तन्दुरुस्ती पर बुरा प्रभाव डालते हैं। इन खतरों को देखते हुए वृक्षारोपण के लिए जन-जन में उत्साह उत्पन्न करने की आवश्यकता है।
जहां भी खाली जगह हो, फलदार, छायादार या जलाऊ लकड़ी के पेड़ लगाये जायें। उनका पालना, पशु पालन तथा शिशु पालन की तरह उत्साह वर्धक उपयोगी माना जाये। आंगन बाड़ी, छत बाड़ी, छप्पर बाड़ी का प्रचलन हर घर में किया जाय ताकि आर्थिक बचत होने के साथ-साथ कुपोषण दूर करने का आधार बने एवं घरों की शोभा सौन्दर्य बढ़ाने का प्रवाह चल पड़े।
(7)    हानिकारक प्रचलनों में तम्बाकू, शराब, भांग, अफीम, चरस आदि के नशे अत्यधिक घातक हैं। इनका सेवन धीमी आत्म-हत्या के समान है। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रखरता, अर्थ व्यवस्था, परिवार परम्परा, प्रतिष्ठा की दृष्टि से नशेबाजी को सर्वनाशी ही माना जा सकता है। इस दुर्व्यसन से व्यक्ति और समाज हर दृष्टि से नीचे गिरता जा रहा है।
(8)    सभी जानते हैं कि खर्चीली शादियां अपने समाज को दरिद्र और बेईमान बनाये दें रही हैं। हर गृहस्थ को अपनी प्रायः एक तिहाई आमदनी इसी कुप्रथा में खर्च करनी पड़ती है। लड़के वाला दहेज मांगता है और लड़की वाला जेवर का धूमधाम। इसमें दोनों पक्ष दिवालिया होते हैं। समूचे परिवार को अर्थ संकट में धकेलते हैं और शिक्षा, चिकित्सा व्यवसाय आदि आवश्यक कार्यों के लिए जिस पूंजी की आवश्यकता होती है, उसके चुक जाने पर भांति-भांति के संकट सहते हैं।
इस कुप्रथा को दूर करने के लिए विचारशील लड़के-लड़कियों से देन दहेज वाली खर्चीली शादी न करने की प्रतिज्ञाएं कराई जानी चाहिए। अभिभावकों को बिना खर्च के विवाह करने के लिए सहमत किया जाना चाहिए। इस सन्दर्भ में छोटी उपजातियों का सीमा बन्धन शिथिल करके दायरा बड़ा किया जाना चाहिए। प्रज्ञा परिवार के लाखों सदस्य अपने जैसे सुधारवादियों में बिना खर्च की आदर्श एवं सामूहिक शादियां करने लगे हैं। अब उस शुभारम्भ को देश भर में व्यापक प्रचलन के रूप में सुविस्तृत किया जाना चाहिए।
(9)    फैशन, श्रृंगार, ठाठ-बाट, जेवर आदि के नाम पर अहंकार प्रदर्शन का जो बचकानापन इन दिनों चल पड़ा है, उसमें विलासिता, कामुकता, उच्छृंखलता आदि दुर्व्यसनों की ही वृद्धि हुई है। ईर्ष्या भड़की है और नकल करने की धुन में कितनों ने ही गरीब रहते हुए भी अमीरी की झूठी सज्जा सजाई है। बढ़े हुए खर्च की पूर्ति के लिए अनाचारी आमदनी की राह बनाई है। आलस्य-प्रमाद आदि बढ़ा है। इस प्रकार खर्च होने वाली राशि अल्प बचत जैसा उपाय अपनाकर बैंक में जमा की गई होती या उत्पादन कार्य में लगाई गई होती तो सादगी के साथ जुड़ी हुई सज्जनता बढ़ती और बचाई हुई राशि से व्यक्ति तथा समाज की समृद्धि बढ़ने में योगदान मिलता।
अपव्ययों में एक सन्तान की संख्या बढ़ाना भी है। इन दिनों प्रस्तुत जन संख्या के लिए ही अन्न, वस्त्र, मकान, शिक्षा, चिकित्सा के साधन इतने व्यक्तियों के लिये जब उपलब्ध नहीं है फिर अनावश्यक संख्या में उत्पन्न की जाने वाली पीढ़ी के लिये निर्वाह एवं विकास के साधन कहां से उपलब्ध होंगे। अभिभावकों का अर्थ सन्तुलन, माता का स्वास्थ्य, बच्चों का भविष्य और देश का भार इन आवश्यक प्रजनन से गिरता ही चला जा रहा है। हर व्यक्ति को समझाया जाना चाहिए कि उत्पादन नहीं बढ़ रहा है तो कम से कम अपव्ययों को तो नहीं ही बढ़ायें।
(10)    अवांछनीयताओं में कितनी ही ऐसी हैं जिससे जितनी जल्दी पीछा छुड़ाया जा सके उतना ही उत्तम है। मूढ़ मान्यताओं में टोना-टोटका भूत-पलीत, भाग्य-ज्योतिष, मुहूर्त, शुभ-अशुभ, जैसे कितने ही अन्ध विश्वास पिछड़े वर्गों में फैले हैं और उस भ्रम जंजाल में वे बुरी तरह समय गंवाते, पैसा ठगाते और भ्रान्तियों में उलझते हैं।
कुरीतियों में जाति-पांति के नाम पर चलने वाली ऊंच-नीच की मान्यता, पर्दा प्रथा, दहेज, मृतक भोज, बाल विवाह, भिक्षा व्यवसाय जैसी कितनी ही कुप्रथाएं जड़ जमाये बैठी हैं। जिससे समाज हर दृष्टि से जर्जर हुआ जा रहा है।
अनैतिकताओं में मिलावट, रिश्वत, चोरी, ठगी, अपहरण, उत्पीड़न से लेकर हत्या डकैती तक की अपराधी वृत्तियां आतंक मचाती, आशंका, अविश्वास, अनिश्चितता, अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न करती हैं। अवांछनीय आकर्षण एवं दबाव से चिन्तन एवं चरित्र का निरन्तर अधःपतन होता जा रहा है।
प्रथम चरण के पांच सूत्र पूरे होते ही इस सूत्री सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम हाथ में लिए जाने चाहिए। युग सन्धि के प्रथम पांच वर्षों की यह पन्द्रह सूत्री योजना पूरी होते-होते कायाकल्प जैसी परिस्थितियां दृष्टिगोचर होने लगेंगी। इन निर्धारणों में सभी जागृत आत्माओं को प्राण पण से कटिबद्ध होना और उन्हें पूरा करके ही चैन लेना चाहिए।
First 21 23 Last


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  • द्वितीय अध्याय— प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण और उनके उत्तरदायित्व
  • प्रज्ञा संस्थानों को प्राणवान रखा जाय
  • कार्यकर्ताओं की नियुक्ति को अनिवार्य प्राथमिकता दी जाए
  • ‘‘ज्ञानरथ’’ समय की महती आवश्यकता
  • झोला पुस्तकालय चलायें—युग चेतना लायें
  • लोकरंजन और लोकमंगल का समन्वय स्लाइड प्रोजेक्टर
  • आदर्श वाक्य—बोलती दीवारें
  • जन्म दिवसोत्सव, देखने में छोटा किन्तु परिणाम में महान
  • एकाकी प्रयत्न से चल पड़ने वाले प्रज्ञा मंदिर
  • इस वर्ष के दो विशेष अभियान
  • तृतीय अध्याय— प्रज्ञा परिवार का पुनर्गठन
  • शोध-संसद— ब्रह्मवर्चस् शोध के लिए मनीषा को युग निमंत्रण
  • युग प्रवक्ता संसद— धर्मतन्त्र की गरिमा समझें और उसे परिष्कृत करें
  • तीर्थ यात्रा की पुण्य प्रक्रिया का पुनर्जीवन
  • युग शिल्पी संसद— युग शिल्पी संसद की कार्य पद्धति का श्रीगणेश
  • युग गायक संसद— वाणी के कलाकार एक कदम आगे आयें
  • उपाध्याय संसद— उपाध्याय वर्ग नई पीढ़ी को युग चेतना से अनुप्राणित करें
  • युग प्रहरी संसद— प्रज्ञा परिजनों के लिए अणुव्रत
  • सम्पर्क संसद— जिन्हें जन सम्पर्क का सुयोग प्राप्त है वे उसमें कुछ और भी जोड़ें
  • भविष्य निर्माता संसद— युवा पराक्रम नव सृजन की दिशाधारा अपनाये
  • चतुर्थ अध्याय— युग शिल्पी प्रशिक्षण का संक्षिप्त पाठ्यक्रम
  • प्रज्ञा योग हृदयंगम करने योग्य तत्वदर्शन
  • प्रज्ञा योग की क्रिया परक साधना पद्धति
  • आसन प्राणायाम से आधि-व्याधि निवारण
  • जड़ी-बूटियों से स्वास्थ्य संरक्षण एकौषधि उपचार पद्धति
  • दिव्य औषधियों द्वारा आध्यात्मिक कायाकल्प
  • देव संस्कृति का पुनरुत्थान और तुलसी अभियान
  • आन्तरिक कायाकल्प हेतु आहार साधना
  • धर्मानुष्ठानों के क्रियाकृत्य उद्देश्यपूर्ण रहें
  • छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन की व्यापक व्यवस्था चल पड़े
  • देव दक्षिणा प्रत्येक धर्मानुष्ठान का अविच्छिन्न अंग
  • युग-संगीत उभरे और व्यापक बने
  • प्रज्ञा पुराण कथा—उद्देश्य और स्वरूप
  • प्रज्ञा आयोजनों की तैयारी इस प्रकार करें
  • प्राणवान कार्यकर्ता अपने क्षेत्रों का उत्तरदायित्व संभालें
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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